Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडा १
अध्ययन १ : टिप्पण १०७ वसुबन्धु ने प्राणातिपात की व्याख्या में बतलाया है -'इसको मारूंणा-ऐसा जानकर उसे मारता है और वह उसी को मारता है किसी दूसरे को नहीं मारता तब प्राणातिपात होता है । संकल्प के बिना किसी को मारता है, अथवा जिसे मारना चाहता है उसे नहीं मारता किंतु किसी दूसरे को मारता है, वहां प्राणातिपात नहीं होता।'
प्रस्तुत सूत्र में बौद्धों के इस अहिंसा विषयक दृष्टिकोण को आलोच्य बतलाया गया है । इसे आलोच्य बतलाने के पीछे हिंसा का एक मानदंड है । वह है-प्रमाद । हिंसा का मुख्य हेतु है-प्रमाद, फिर हिंसा करने का संकल्प हो या न हो । अप्रमत्त और वीतराग के मन में हिंसा का संकल्प उत्पन्न ही नहीं होता। उनके द्वारा कोई जीव-वध हो जाता है तो उनके हिंसा-जनित कर्म-बंध नहीं होता । जो वीतराग नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है, उसके द्वारा किसी जीव का वध होता है तो उसके हिंसा-जनित कर्म-बंध अवश्य होता है । कोई बच्चा हो अथवा कोई समझदार मनुष्य भी नींद में हो अथवा कोई जानबूझ कर हिंसा न कर रहा हो, फिर भी इन सब अवस्थाओं में यदि प्राणातिपात होता है तो वे हिंसा के दोष से मुक्त नहीं हो सकते । संकल्पकृत हिंसा और असंकल्पजनित हिंसा से होने वाले कर्म-बन्ध में तारतम्भ हो सकता है, किन्तु एक में कर्म का बन्ध और दूसरी में कर्म का अबंध-ऐसा नहीं हो सकता। संकल्प व्यक्त मन का एक परिणाम है। प्रमाद अव्यक्त चेतना (अध्यवसाय, अन्तर्मन या सूक्ष्म मन) का कार्य है । यदि वह विरत नहीं है तो स्यूल मन का संकल्प न होने पर भी जीव-वध होने पर हिंसा होगी और यदि प्रमाद नहीं है तो जीव-वध होने पर भी द्रव्यतः हिंसा होगी, किन्तु उससे कर्म-बन्ध नहीं होगा। बौद्ध इष्टिकोण में हिंसा और अहिंसा के बीच संकल्प और असंकल्प को भेदरेखा खींची गई है। जैन दृष्टिकोण में उनके बीच प्रमाद और अप्रमाद की भेदरेखा खींची गई है। इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर बौद्ध दृष्टि की आलोचना की गई है।
१०७. श्लोक ५५
भिक्षु त्रिकोटि शुद्ध मांस को खाता हुआ पाप से लिप्त नहीं होता। इस विषय में चूणिकार ने एक उदाहरण दिया है-एक भिक्ष उपासिका के घर गया। उसने बटेर को मार, उसे पका भिक्षु को दिया । गृहस्वामी ने आश्चर्य के साथ कहा-देखो, यह कैसा निर्दय है। इससे ज्ञात होता है कि भिक्षु मांस लेते थे। उद्दिष्ट मांस का बुद्ध ने भिक्षु के लिए निषेध किया था। 'भिक्षुओ ! जानबूझकर अपने उद्देश्य से बने मांस को नहीं खाना चाहिए। जो खाए उसे दुक्कर दोष है । भिक्षुओ ! अनुमति देता हूं (अपने लिए मारे को) देखे, सुने, संदेहयुक्त-इन तीन बातों से शुद्ध मछली और मांस के खाने की ।"
चूणिकार ने त्रिकोटि मांस का उल्लेख किया है । वे तीन कोटियां उक्त उद्धरण में स्पष्ट हैं-अदृष्ट, अश्रुत, अशंकित ।
सूत्रकार ने पुत्र को मारने का उल्लेख किया है। यह भी निराधार नहीं है । चूणिकार ने पुत्र के तीन अर्थ किए हैं-नरपुत्र, सूअर या बकरा । निम्रन्यों ने बौद्धों के मांसाहार के विषय में कोई बातचीत की और वह बातचीत बुद्ध के पास पहुंची । तब बुद्ध ने पूर्वजन्म की घटना बताते हुए कहा
पूर्व समय में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के राज्य काल में बोधिसत्व उत्पन्न हुए वे प्रवजित होकर हिमालय में चले गए। एक बार वे भिक्षा के लिए वाराणसी में आए। एक गृहस्थ तंग करने के लिए, उनको अपने घर ले गया। भोजन परोसा। तपस्वी ने भोजन किया। अन्त में गृहस्थ ने कहा-'मैंने तुम्हारे लिए ही प्राणियों का वध कर मांस का यह भोजन तैयार किया था। इसका पाप केवल हमें ही न लगे, तुमको भी लगे । गृहस्थ ने यह गाथा कही-हन्त्वा झत्वा वीधत्वा च देति दानं असञतो।
एदिसं भत्तं भुञ्जमानो स पापेन उपलिप्यति । -असंयमी व्यक्ति प्राणियों को मारकर परितापित कर, वध कर दान देता है। इस प्रकार का भोजन खाने वाला पाप से लिप्त होता है। १. अभिधर्मकोश ४१७३ : प्राणातिपातः सञ्चिन्त्य परस्याभ्रान्तिमारणम् ।
अदत्तादानमन्यस्य स्वीक्रिया बलचौर्यतः॥ २. चूर्णि, पृष्ठ ३८ : भिक्षुः त्रिकोटिशुद्धं भुजानोऽपि मेधावी कम्मुणा गोवलिप्पते। तत्रोदाहरम् उपासिकाया भिक्षुः पाहणओ गतो।
ताए लावगो मारेऊण ओवक्खडेत्ता तस्स दिण्णो । घरसामिपुच्छा । अहो ! णिग्धिण त्ति । ३. विनयपिटक ६४६, राहुल सांकृत्यायन पृष्ठ २४५ । ४. चूणि, पृष्ठ ३८ : किमंग णरपुत्रं शूकरं वा छागलं वा ।
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