Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १: टिप्पण १२६ २. अथर्ववेद में सृष्टि के विषय में अनेक उल्लेख हैं । वे सब ऋग्वेद के ही उपजीवी कहे जा सकते हैं।
इस वेद के १९ वे कांड के ५३, ५४ में काल को सृष्टि का सर्जक माना है। काल ने ही प्रजापति, स्वयंभू, काश्यप आदि को उत्पन्न किया। उससे ही सारी सृष्टि पैदा हुई।
विभिन्न ब्राह्मण ग्रंथों में भी सृष्टि विषयक चर्चा उपलब्ध होती है१. सत्पथ ब्राह्मण ६/१/१ में
पहले असत् (अव्यक्त) था। वह ऋषि और प्राणरूप था। सात प्राणों से प्रजापति की उत्पत्ति हुई । प्रजापति के मन में यह विकल्प उठा-'मैं एक से अधिक होऊ।' उन्होंने तपस्या की। तपस्या में थक जाने के कारण उन्होंने पहले ब्रह्मा को उत्पन्न किया। उसने पानी को उत्पन्न किया। उससे अंडा पैदा हुआ। प्रजापति ने उसे छूआ। उससे पृथ्वी आदि अस्तित्व में आए। २. इसी ब्राह्मण ग्रंथ के ११/१/६/१ में इस प्रकार का वर्णन है
पहले केवल पानी था। पानी के मन में उत्पन्न करने की बात उठी। पानी तपस्या करने गया। एक अंडा जन्मा जो एक वर्ष तक पानी पर तैरता रहा। एक वर्ष बाद पुरुष, प्रजापति का जन्म हुआ। उसने अंडे को तोड़ा। उसने अपने श्वास से देवताओं को जन्म दिया । फिर अग्नि, इन्द्र, सोम आदि पैदा हुए। ३. तैतरीय ब्राह्मण II २/९/१:
पहले कुछ नहीं था। न स्वर्ग था। न पृथ्वी थी। न आकाश था । उस असत् ने 'होने' की बात से मन को पैदा किया। वही सृष्टि । (इदं वा अग्रे नैव किंचनासीत् । न द्यौरासीत् । न पृथिवी । न चान्तरिक्षम् । तदसदेव सन् मनो अकुरुत स्यामिति ।)
उपनिषदों में सृष्टि-निर्माण की विभिन्न कल्पनाएं हैं१. बृहदारण्यक उपनिषद् I ४/३, ४,७:
पहले एक ही आत्मा पुरुष के रूप में था। उसे अकेले में आनन्द नहीं आया। उसमें एक से दो होने की भावना जागी। उसने अपनी आत्मा को दो भागों में बांटा। एक भाग स्त्री और दूसरा भाग पुरुष बना। दोनों पति-पत्नी के रूप में रहे। उससे सारी मानव-सृष्टि का अस्तित्व आया। फिर प्राणी जगत् बना । फिर नाम-रूप में आत्मा का प्रवेश हुआ। २. छान्दोग्य उपनिषद् ६/२३-४; ६/३/२-३ :
पहले केवल सत् था। एक से अनेक होने की चाह जगी। उसने तेज उत्पन्न किया। तेज से पानी उत्पन्न हुआ। पानी से पृथ्वी उत्पन्न हुई । दिव्य शक्ति ने तीनों तेज, पानी और पृथ्वी में प्रवेश कर उन्हें नाम-रूप दिया। ३ ऐतरेय उपनिषद् III ३:
पहले केवल आत्मा था। कुछ भी सचेतन नहीं। उसने सोचा-मैं सृष्टि की रचना करूं। पहले अंभस् को उत्पन्न किया। उसके बाद मरीचि-आकाश, मृत्यु और पानी को उत्पन्न किया।.........फिर विश्व का भर्ता आदि-आदि । ४. तैतरीय उपनिषद् ॥ ६ :
वात्मा था। उसने सोचा-अकेला हूं, बहुत होऊ। तपस्या कर विश्व की सृष्टि की। सर्जन के पश्चात् उसमें प्रवेश कर दिया।
पहले केवल असत् था, फिर सत् उत्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में पहले अव्यक्त था, फिर व्यक्त हुआ। ब्रह्मा स्वयं जगत् के स्रष्टा हैं और सजित हैं। ५. श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/२-३
रुद्र सृष्टि का स्रष्टा है। ईश्वर 'मायी' है। उसमें असीम शक्ति है। वह माया के द्वारा विश्व की सृष्टि करता है। माया इश्वरीय शक्ति है। १.वी प्रिन्सिपल उपनिषदाज, भूमिका पृ० ८२-८३ डा० राधाकृष्णन ।
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