Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १: टिप्पण ८२
बौद्ध साहित्य में नियतिवाद के सिद्धान्त का निरूपण इस प्रकार मिलता है -'प्राणियों के संक्लेश का कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है । बिना किसी हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी संक्लेश पाते हैं। प्राणियों की विशुद्धि का कोई हेतु नहीं है, कोई प्रत्यय नहीं है। बिना किसी हेतु और प्रत्यय के ही प्राणी विशुद्ध होते हैं। आत्मशक्ति नहीं है, परशक्ति नहीं है, पुरुषकार नहीं है, बल नहीं है, वीर्य नहीं है, पुरुष-सामर्थ्य नहीं है, पुरुष-पराक्रम नहीं है । सभी सत्व, प्रागी, भूत और जीव अवश, अबल, अवीर्य हैं । वे नियति के वश में हैं । वे छह अभिजातियों में सुख-दुख का अनुभव करते हैं।
___ चौदह सौ हजार प्रमुख योनियां हैं । साठ सौ भी हैं, पांच सौ भी हैं। पांच सौ कर्म, पांच कर्म, तीन कर्म, एक कर्म, आधा कर्म है । बासठ प्रतिपद (मार्ग), बासठ अन्त कल्प, छह अभिजातियां, आठ पुरुषभूमियां, उनचास सौ आजीवक, उनचास सौ परिव्राजक, उनचास सौ नागावास, बीस सौ इन्द्रियां, तीस सौ नरक, छत्तोस रजोधातु, सात संजी-गर्भ, सात असंगी-गर्भ, सात निगंठी-गर्भ, सात देव, सात मनुष्य, सात पिशाच, सात स्वर, सात सौ सात पवुट, सात सौ सात प्रपात, सात सौ सात स्वप्न तथा अस्सी लाख छोटे-बड़े कल्प हैं । इन्हें मूर्ख और पण्डित पुरुष जानकर इनका अनुगमन कर दुःखों का अन्त कर सकते हैं। वहां यह नहीं है कि इस शील से, इस व्रत से अथवा तप से या ब्रह्मचर्य से आरिपक्व कर्म को परिपक्व करूंगा, परिपक्व कर्म को भोगकर उसका अंत करूंगा। इस पर्यन्तकृत संसार में सुख और दुःख द्रोण (नाप) से नपे हुए हैं। घटना-बढ़ना नहीं होता । उत्कर्ष और अपकर्ष नहीं होता। जैसे सूत की गोली फैकने पर खुलती हुई गिर पड़ती है वैसे ही मूर्ख और पण्डित दौड़कर, आवागमन में पड़कर, दुःख का अन्त करेंगे।"
श्लोक ४१: ८२.श्लोक ४१:
अज्ञानवादी दार्शनिकों के विचारों का निरूपण प्रस्तुत आगम के १२१२,३ में मिलता है। उस समय अज्ञानवाद की विभिन्न शाखाएं थीं। उनमें संजयवेलट्ठिपुत के अज्ञानवाद या संशयवाद का भी समावेश होता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने अज्ञानवाद की प्रतिपादन-पद्धति के सात और प्रकारान्तर से चार भागों का उल्लेख किया है
१. जीव सत् है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? २. जीव असत् है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ३. जीव सत्-असत् है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ४. जीव अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ५. जीव सत् और अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ६. जीव असत् और अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ?
७. जीव सत्, असत् और अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? प्रकारान्तर से चार भंग
१. पदार्थ की उत्पत्ति सत् से होती है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? २. पदार्थ की उत्पत्ति असत् से होती है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ३. पदार्थ की उत्पत्ति सत्-असत् से होती है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ? ४. पदार्थ की उत्पत्ति अवचनीय है, यह कौन जानता है और इसे जानने से क्या प्रयोजन ?
अज्ञानवादी आत्मा, परलोक आदि सभी विषयों को जिज्ञासा का समाधान इसी पद्धति से करते थे।' १. दीघनिकाय ११२॥४॥१६॥ २. चणि पष्ठ २०६,२०७ : इमे दिट्ठिविधाणा-सन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? असन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण
जातेण? सदसन् जीवः को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? अवचनीयो जीव को वेत्ति ? किं वा तेण णातेण? पक, एवं सदवचनीयः असदवचनीयः, सदसदवचनीय ....सती भावोत्पत्तिः को वेत्ति ? किं वा ताए णाताए ? असती भावोत्पत्ति को वेत्ति ? किं वा ताए जाताए ? सबसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति? कि वा ताए णाताए ? अवचनीया भावोत्पत्ति: को वेत्ति? किवा ताए णाताए ? .........."
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