Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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सूयगडो १
अध्ययन १: टिप्पण८०-८१ ५०. मग को भांति अज्ञानी (मिगे)
जैसे मुग पाश के प्रति जाता हुआ प्रचुर तृण और जल वाले स्थान से तथा स्वतन्त्रता से घूमने फिरने तथा वन में रहने के सुख से रहित होकर मृत्यु के मुंह में जा गिरता है, वैसे ही ये नियतिवादी भी अकर्माश होने की स्थिति से भ्रष्ट हो जाते हैं।'
८१. श्लोक २८-४०
नियतिवादी क्रियावाद ओर अक्रियावाद दोनों में विश्वास नहीं करते । उनका दर्शन यह है-कुछ लोग क्रिया का प्रतिपादन करते हैं और कुछ अक्रिया का प्रतिपादन करते हैं । ये दोनों समान हैं। 'मैं करता हूं'-यह मानने वाला भी कुछ नहीं करता और 'मैं नहीं करता हूं-यह मानने वाला भी कुछ नहीं करता। सब कुछ नियति करती है। यह सारा चराचर जगत् नियति के अधीन है। अज्ञानी पुरुष कारण को मानकर इस प्रकार जानता है। मैं दु:खी हो रहा हूं, शोक कर रहा हूं, खिन्न हो रहा हूं, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, परितप्त हो रहा हूं, यह सब मैंने किया है। दूसरा पुरुष जो दुःखी हो रहा है, शोक कर रहा है, खिन्न हो रहा है, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा है, पीड़ित हो रहा है, परितप्त हो रहा है, यह सब उसने किया है। इस प्रकार वह अज्ञानी पुरुष कारण को मानकर स्वयं के दुःख को स्वकृत और पर के दुःख को परकृत मानता है।
मेधावी पुरुष कारण को मानकर इस प्रकार जानता है । मैं दुःखी हो रहा हूं, शोक कर रहा हूं, खिन्न हो रहा हूं, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा हूं, पीड़ित हो रहा हूं, परितप्त हो रहा हूं। यह सब मेरे द्वारा कृत नहीं है । दूसरा पुरुष जो दुःखी हो रहा है, शोक कर रहा है, खिन्न हो रहा है, शारीरिक बल से क्षीण हो रहा है, पीड़ित हो रहा है, परितप्त हो रहा है। यह सब उसके द्वारा कृत नहीं है। इस प्रकार वह मेधावी पुरुष कारण (नियति) को मानकर स्वयं के और पर के दुःख को नियतिकृत मानता है।
मैं (नियतिवादी) कहता हूं-पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में जो त्रस और स्थावर प्राणी हैं वे सब नियति के कारण ही शरीरात्मक संघात, विविध पर्यायों (बाल्य, कौमार आदि अवस्थाओं), विवेक (शरीर से पृथक् भाव) और विधान (विधि विपाक) को प्राप्त होते हैं । इस प्रकार वे सब सांगतिक (नियति जनित) हैं इस उत्प्रेक्षा से ।
वे ऐसा नहीं जानते, जैसे-क्रिया, अक्रिया, सुकृत, दुष्कृत, कल्याण, पाप, साधु, असाधु, सिद्धि, असिद्धि, नरक, स्वर्ग हैं । इस प्रकार वे नाना प्रकार के कर्म-समारंभों के द्वारा भोग के लिए नाना प्रकार के कामभोगों का समारंभ करते हैं। (सूयगडो २।११४२-४५)
भगवती (शतक १५) में नियतिवादी गोशालक के सिद्धान्तों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
भगवान महावीर सद्दालपुत्त के कुंभकारोपण में विहार कर रहे थे। उस समय सद्दालपुत्त घड़ों को धूप में सुखा रहा था। भगवान महावीर ने पूछा-'सद्दालपुत्त ! ये घड़े कैसे किये जाते हैं ?' सद्दालपुत्त ने कहा-'भंते ! पहले मिट्टी लाते हैं, फिर उसमें जल मिलाकर रोंदते हैं, फिर उसमें राख मिलाते हैं, फिर मिट्टी का पिंड बना उसे चाक पर चढ़ाते हैं। इस प्रकार ये घड़े तैयार किये जाते हैं। भगवान महावीर ने कहा-'सद्दालपुत्त ! ये घड़े उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम से किए जाते हैं ? या अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम से किए जाते हैं ?' सद्दालपुत्त ने कहा-'भंते ! ये सब अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपुरुषकार और अपराक्रम से किए जाते हैं। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य पुरुषकार और पराक्रम का कोई अर्थ नहीं हैं। सब भाव नियत हैं।
सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने नियतवादियों के एक तर्क का उल्लेख किया है। नियतिवादी मानते हैं कि अकृत का फल नहीं होता। मनुष्य जो फलभोग करता है उसके पीछे कर्तृत्व अवश्य है, किन्तु वह कर्तृत्व मनुष्य का नहीं है। यदि मनुष्य का कर्तृत्व हो, वह क्रिया करने में स्वतन्त्र हो तो वह सब कुछ मन चाहा करेगा। उसे जो इष्ट नहीं है, वह फिर क्यों करेगा ? किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। मनुष्य बहुत सारे अनीप्सित कार्य भी करता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सब कुछ नियति करती है।
१. चणि, पृष्ठ ३४ : यथा मृगः पाशं प्रति अभिसर्पन् प्रचुरतृणोदकगोचरात् स्वैरप्रचाराद् वनसुखाद् भ्रष्टः मृत्युमुखमेति एवं ते वि
णियतिवादिणो। २. उवासगदसाओ ७१६-२४ ॥ ३. चूणि, पृ. ३२३ : न चाकृतं फलमस्तीत्यतः णियती करोति, जति पुरिसो करेज्ज तेन सर्वमोप्सितं कुर्यात्, न चेदमस्तीति ततो नियती करेइ, नियतिः कारिका ।
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