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प्रत्याख्यान इंगित मरण, पादोपगमन-मरण-इन तीन पण्डित मरणों की
विधि का स्पष्ट वर्णन किया गया। (9) उपधान श्रत नामक नौवें अध्ययन के चार उद्देशक हैं. जिनमें सर्वज्ञ
भगवान महावीर स्वामी के देव दूष्य वस्त्र का, स्थानों का, परिषदों का तथा उनके आचार ध्यान एवं तप आदि का विशद वर्णन है।
आचाराङ्गनाम इस जिनागम सूत्र में मूलत: 18,000 गाथाएँ थीं किन्तु सम्प्रति 2,500 गाथाएँ ही प्राप्त होती हैं। शेष विच्छिन हो चुकी हैं।
दीक्षोपरान्त जब मैंने स्वनामधन्य साहित्य सम्राट आचार्य श्रीमद्लावण्य सूरीश्वर जी म. सा. की निश्रा में शास्त्रीय अध्ययन प्रारम्भ किया तब पूज्याचार्य जी के मुखारबिन्द से आचाराङ्ग की विशद महिमा का श्रवण करने का मुझे सौभाग्य सम्प्राप्त हुआ। साहित्य सम्राट की वाणी का जादू मेरे अन्तस्तल में तत्त्वज्ञान की अनुपम किरणें प्रवाहित करने लगा। मेरी बुद्धि को पूज्य गुरुदेव के तारक चरणों में ज्ञान विज्ञान की विशद चर्चाओं के श्रवण से अनन्त आयाम मिला। मेरी मनीषा निखरती गई। मुझे साधु जीवन एवं मानव जीवन की सार्थकता का सच्चा बोध मिला।
आचाराङ्ग सूत्र पर कुछ लिखने की भावना पहले से ही मेरे मानस में थी। सच तो यह है कि संस्कृत गद्य में इसका आशय स्पष्ट करने की भावना अध्ययन काल में थी किन्तु सम्प्रति हिन्दी भाषा के समुचित विकास को ध्यान में रखकर तथा विषय को सरलता से व्यक्त करने का मुनिजनों का आग्रह मानकर मैंने हिन्दी पद्यानुवाद के माध्यम से अपनी प्राक्कालीन भावना को पूर्ण करने का प्रयास किया है। मेरा यह प्रयत्न, जन-जन के मन में आगम-रहस्य का सरल काव्यात्मक रीति से संचार करने में कितना सार्थक सफल सिद्ध होगा? यह तो ज्ञानीजन ही जान सकते हैं। मैंने तो "स्वान्तः सुखाय जन हिताय" यह पद्यात्मक रचना की है।
पद्यमय भावानुवाद करते समय मैंने सावधानी बरतने का पूर्ण प्रयास किया है किन्तु फिर भी छद्मस्थ होने के कारण यदि कहीं लेशमात्र भी जिनागम विरुद्ध लेखन हुआ हो तो तदर्थ "मिच्छामि दुक्कडम्"।
जिनागमोपासक -आचार्य विजयसुशील सूरि