Book Title: Acharang Sutra Part 01
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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" णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स"
L
श्रीमद् गणधरवर सुधर्म स्वामिद्दब्ध
श्री आचारांग सूत्रम्
(प्रथम श्रुतस्कंध)
(मूलपाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ और विवेचन सहित )
सत्यपरिण्णा णामं पढमं अज्झयणं
शस्त्र परिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन
प्रस्तावना
जिस प्रकार ब्राह्मण संस्कृति का आधार वेद है, बौद्ध संस्कृति का आधार त्रिपिटिक है और ईसाइयों का आधार बाईबल है उसी तरह जैन संस्कृति का आधार गणिपिटक अर्थात् बारह अंग सूत्र हैं। नन्दी सूत्र में श्रुतज्ञान के जो चौदह भेद बताये गये हैं उनमें तेरहवां अंगप्रविष्ट है। श्रुतज्ञान के मुख्य दो भेद बताये गये हैं - अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य । आचाराङ्ग आदि बारह सूत्र अंग प्रविष्ट है। इसके अतिरिक्त सभी सूत्र अंग बाह्य गिने जाते हैं। जिस प्रकार पुरुष के शरीर में दो पैर, दो जंघाएं, दो उरु, दो गात्रार्द्ध (पसवाड़े), दो भुजाएं, एक गरदन और एक सिर, ये बारह अङ्ग हैं, उसी प्रकार श्रुत रूपी पुरुष के १२ अङ्ग हैं। तीर्थंकर भगवान् के उपदेशानुसार जिन शास्त्रों को गणधर महाराज स्वयं रचते हैं, वे अङ्ग कहे जाते हैं। गणधरों के अतिरिक्त दूसरे पूर्वधर आचार्यों द्वारा रचे गये शास्त्र अंगबाह्य कहे जाते हैं। अंग प्रविष्ट के बारह भेद हैं -
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