________________ 28 अभिज्ञान-शाकुन्तलम् [प्रथमो प्रकृत्या यद्वक्रं, तदपि समरेखं नयनयो नं मे दूरे किंचित्क्षणमपि, न पार्श्वे, रथजवात् // 9 // 'आलोकौ दर्शनोद्दयोतौ' इत्यमरः। सूक्ष्म = तनुतरम् / 'दृश्यते' इति शेषः / [वस्तुत-'आलोके' इति लोकधातोर्लटि रूपम् / यत्सूक्ष्ममालोके = अहं सूक्ष्म वस्तु पश्यामीत्यर्थः]। सहसा = द्रागेव, तस्मिन्नेव क्षणे, तत् = तद्वस्तु, नयनयोः = नेत्रयोः, विपुलतां = विस्तीर्णतां, व्रजति = धत्ते / अत्र 'रथजवादिति वक्ष्यमाणो हेतुरासञ्जनीयः। यत् = यद्वस्तु च, अर्द्ध विच्छिन्नं = त्रुटितं, वृक्षपङक्तिभूतलादिकमालोके, तत् कृतसन्धानमिव = परस्परं मिलितमिव, नयनयोर्भवति = जायते / एतदपि रथजवादेव / तीव्रवेगबाष्पयानादियायिनां विदितमेवैतत् / प्रकृत्या = स्वभावेन, यत् = वस्तु, वक्रं = कुटिलं, तदपि--नयनयोः = चक्षुषोः, समा रेखा यस्य तत्-समरेख = सरलं / रेखा = आभोगः / 'रेखा स्यादल्पके, छद्मन्याभागोलेखयोरपी' ति हैमः / मे = मम, रथजवात् क्षणमपि दूरे न किञ्चित् ,. पार्श्वेऽपि = निकटेऽपि, मम न किञ्चित् / रथवेगाद् दूरतरमपि वस्तु निकटे, निकटस्थमपि च वस्तु दूरे-भवतीत्यतितरां रथवेगोऽत्र वर्णितः। अत्र ‘यदा-यदेति, 'वति-वते'ति, 'नयनयो' रितिरीत्या च्छेकानुप्रासादयोऽनुसन्धेयाः // 9 // से बढ़ा हुआ है / क्योंकि-वृक्ष आदि जो वस्तु पहिले छोटी दिखाई देती हैं, वे ही सहसा ( तुरत ) बड़ी हो जाती हैं, अर्थात् तुरन्त ही सामने आ जाती हैं। और जो वृक्षपक्ति आदि वस्तु बीच में खण्डित भी है, वे भी रथ के वेग से मिली हुई सी दिखाई देती हैं / और जो स्वभावतः टेढ़ी-मेढ़ी वस्तु है, वह भी आखों को सीधी ही दिखाई पड़ती है। अधिक क्या कहूँ-इस रथ के वेग के कारण कोई भी वस्तु मेरे से दूर नहीं है, और न कोई वस्तु मेरे पास ही ठहरती है। अर्थात् इस रथ का इतना वेग है, कि जो वस्तु दूर भी है, वही क्षण भर में मेरे पास दिखाई देती है, और जो वस्तु मेरे पास है, वह भी क्षणभर में बहुत दूर चली जाती है // 9 //