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Verses 2, 3
दुःखाद्विभेषि नितरामभिवाञ्छसि सुखमतोऽहमप्यात्मन् । दुःखापहारि सुखकरमनुशास्मि तवानुमतमेव ॥२॥
अर्थ - हे आत्मन्! तू दुःख से अत्यंत डरता है और सुख की इच्छा करता है, इसलिये मैं भी तेरे लिये अभीष्ट उसी तत्त्व का प्रतिपादन करता हूँ जो कि तेरे दु:ख को नष्ट करके सुख को करने वाला है।
O soul! As you are extremely scared of misery and long for happiness, therefore, I will expound that cherished reality which results in your happiness after destroying misery.
यद्यपि कदाचिदस्मिन् विपाकमधुरं तदात्वकटु किञ्चित् । त्वं तस्मान्मा भैषीर्यथातुरो भेषजादुग्रात् ॥३॥
अर्थ - यद्यपि इस (आत्मानुशासन) में प्रतिपादन किया जाने वाला कुछ सम्यग्दर्शनादि का उपदेश कदाचित् सुनने में अथवा आचरण के समय में थोड़ा सा कटु (दु:खदायक) प्रतीत हो सकता है, तो भी वह परिणाम में मधुर (हितकारक) ही होगा। इसलिये हे आत्मन्! जिस प्रकार रोगी तीक्ष्ण (कड़वी) औषधि से नहीं डरता है उसी प्रकार तू भी उससे डरना नहीं।
Although what is expounded here may occasionally appear to be a bit bitter, still it will result in favourable outcome. Just as the sick person does not get upset by the bitter pill, you also don't get frightened.