Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 176
________________ Ātmānusāsana आत्मानुशासन के (श्रावकों के) द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये कुछ थोड़े-से आहार को ग्रहण करने की इच्छा करता है। वह भी इस महात्मा के लिये अत्यधिक लज्जा का कारण होता है। फिर आश्चर्य है कि वह महात्मा अन्य परिग्रह-रूप दुष्ट पिशाचों को कैसे ग्रहण कर सकता है? नहीं करता है। In order to keep his body stable, the ascetic, rich in austerities (tapa), thinks of accepting a little food, offered with devotion by others, at a particular time and as per the method prescribed in the Scripture. This too causes great embarrassment to this great-soul (mahātmā). It is then a wonder if such a great-soul accepts other demonlike possessions. दातारो गृहचारिणः किल धनं देयं तदत्राशनं गृह्णन्तः स्वशरीरतोऽपि विरताः सर्वोपकारेच्छया । लज्जैषैव मनस्विनां ननु पुनः कृत्वा कथं तत्फलं रागद्वेषवशीभवन्ति तदिदं चक्रेश्वरत्वं कलेः ॥१५९॥ अर्थ - दाता तो गृहस्थ है और वह देय धन (देने योग्य धन) यहाँ पात्र के लिये भक्तिपूर्वक दिया जाने वाला भोजन है। सबके उपकार की इच्छा से जो इस आहाररूप धन को ग्रहण करने वाले साधु हैं वे अपने शरीर से भी विरत (नि:स्पृह) होते हैं। यह आहार ग्रहण की इच्छा भी उन स्वाभिमानियों के लिये लज्जा का ही कारण होती है। फिर भला उस आहार को निमित्त बना करके वे (साधु और दाता) राग-द्वेष के वशीभूत कैसे होते हैं? वह इस पञ्चम काल का ही दुष्प्रभाव है। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 128

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