Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 266
________________ Atmānuśāsana आत्मानुशासन इसीलिये जहाँ अन्य वादियों ने (बौद्धों ने) आत्मा के निर्वाण को शून्य के समान कल्पित किया है वहीं जैनों ने उस निर्वाण को राग-द्वेषादिरूप शुभाशुभ भावों से शून्य सिद्ध किया है। The soul – the possessor-of-quality (guņavān) – is inseparable from the quality (guna). Hence, destruction of the quality (guņa) would mean destruction of the possessor-of-quality (gunavān). While the doctrines of the others have imagined liberation (of the soul) as absolute non-existence (śünya), the Jaina Doctrine has expounded liberation as absolute absence of auspicious (śubha) and inauspicious (aśubha) dispositions due to attachment (rāga) and aversion (dvesa) in the soul. अजातोऽनश्वरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता सुखी बुधः । देहमात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोर्ध्वमचलः प्रभुः ॥२६६॥ अर्थ - आत्मा द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा जन्म से और मरण से भी रहित होकर अनादिनिधन है। वह शुद्ध स्वभाव की अपेक्षा अमूर्त होकर रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श से रहित है। वह व्यवहार की अपेक्षा शुभ व अशुभ कर्मों का कर्ता तथा निश्चय से अपने चेतन भावों का ही कर्ता है। इसी प्रकार व्यवहार से पूर्वकृत कर्म के फलभूत सुख व दु:ख का भोक्ता तथा निश्चय से वह अनन्त सुख का भोक्ता है। वह स्वभाव से सुखी और ज्ञानमय होकर व्यवहार से प्राप्त हुए हीनाधिक शरीर के प्रमाण तथा निश्चय से वह असंख्यात-प्रदेशी लोक के प्रमाण है। वह जब कर्ममल से रहित होता है तब स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करके तीनों लोकों का प्रभु होता हुआ सिद्धशिला पर स्थिर हो जाता है। . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . 218

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