Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 190
________________ Ātmānuśāsana आत्मानुशासन को, और दोनों ही अवस्थाओं में सुवर्ण की स्थिति होने से शोक और हर्ष से रहित माध्यस्थ्य-भाव को प्राप्त होता है। और यह सब सहेतुक होता है। (बिना हेतु के उन घटार्थी, मुकुटार्थी तथा सुवर्णार्थी के शोकादि की स्थिति नहीं बनती है।) (When a diadem is produced out of a gold jar -) The one desirous of the gold jar gets to grief on its destruction; the one desirous of the gold diadem gets to happiness on its origination; and the one desirous of gold remains indifferent, as gold remains integral to both - the jar as well as the diadem. This also establishes the fact that different characters of existence (origination, destruction and permanence) are the causes of different responses. न स्थास्नु न क्षणविनाशि न बोधमात्रं नाभावमप्रतिहतप्रतिभासरोधात् । तत्त्वं प्रतिक्षणभवत्तदतत्स्वरूपमाद्यन्तहीनमखिलं च तथा यथैकम् ॥१७३॥ अर्थ जीव-अजीव आदि कोई भी वस्तु न सर्वथा स्थिर रहने वाली (नित्य) है न क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली (अनित्य) है, न ज्ञानमात्र है और न अभावस्वरूप ही है; क्योंकि ऐसा निर्बाध ( निरन्तर, अविरुद्धरूप से) प्रतिभास नहीं होता है। जैसा कि निर्बाध प्रतिभास होता है, तदनुसार वह वस्तु प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले तदतत् स्वरूप अर्थात् नित्य-अनित्यादि स्वरूप से संयुक्त व अनादिनिधन है। जिस प्रकार एक तत्त्व नित्यानित्य, एक-अनेक एवं भेदाभेद स्वरूप वाला है उसी प्रकार समस्त तत्त्वों का भी स्वरूप समझना चाहिये। 142 - १ पाठान्तर - यथा तथैकं ...........

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