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Verses 255, 256
The future birth of those great men who, through right meditation, eject from their hearts severe delusion (moha), accumulated and grown since beginningless time, becomes sublime.
एकैश्वर्यमिहैकतामभिमतावाप्ति शरीरच्युतिं दुःखं दुःकृतिनिष्कृतिं सुखमलं संसारसौख्योज्झनम् । सर्वत्यागमहोत्सवव्यतिकरं प्राणव्ययं पश्यतां किं तद्यन्न सुखाय तेन सुखिनः सत्यं सदा साधवः ॥२५६॥
अर्थ - जो साधुजन संसार में एकाकीपन को - अकेले रहने को - साम्राज्य के समान सुखप्रद समझते हैं, शरीर के नाश को इच्छित वस्तु की प्राप्ति के समान आनन्ददायक मानते हैं, दुष्ट कर्मों की निर्जरा को - उससे प्राप्त होने वाले क्षणिक विषयसुख को - दुःख-रूप ही जानते हैं, सांसारिक सुख के परित्याग को अत्यधिक सुखकारक समझते हैं, तथा जो प्राणों के नाश को सब कुछ देकर किये जाने वाले महोत्सव के समान आनन्ददायक मानते हैं, उन साधु पुरुषों के लिये ऐसी कौन सी वस्तु है जो सुखकर न प्रतीत होती हो? अर्थात् रागद्वेष से रहित हो जाने के कारण उन्हें सब ही अनुकूल व प्रतिकूल सामग्री सुखकर ही प्रतीत होती है। इसी कारण सचमुच में वे साधु ही निरन्तर सुखी हैं।
The ascetics for whom seclusion is as blissful as living in their kingdom; destruction of the body is the attainment of the desired object; sense-pleasures obtained as a result of dissociation of karmas are misery and, therefore, absence of sense-pleasures is extreme happiness; and
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