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Verse 195
आदौ तनोर्जननमत्र हतेन्द्रियाणि काङ्क्षन्ति तानि विषयान् विषयाश्च मान । हानिप्रयासभयपापकुयोनिदाः स्युर्मूलं ततस्तनुरनर्थपरम्पराणाम् ॥१९५॥
अर्थ - प्रारम्भ में शरीर उत्पन्न होता है, इस शरीर में दुष्ट इन्द्रियाँ होती हैं, वे अपने विषयों को चाहती हैं; और वे विषय मानहानि (अपमान), परिश्रम, भय, पाप एवं दुर्गति को देने वाले हैं। इस प्रकार से समस्त अनर्थों की परम्परा का मूल कारण वह शरीर ही है।
First the body is formed. It has evil senses which seek their respective pleasures; these sense-pleasures cause you disrepute, toil, fear, and wicked after-life. This way, conventionally, the cause of all misfortune is the body only.
EXPLANATORY NOTE Ācārya Pūjyapāda’s Samādhitańtram: मूलं संसारदुःखस्य देह एवात्मधीस्ततः । त्यक्त्वनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्यापृतेन्द्रियः ॥१५॥
इस जड़ शरीर में आत्मबुद्धि का होना ही संसार के दु:खों का कारण है। इसलिए शरीर में आत्मत्व की मिथ्या कल्पना को छोड़कर बाह्य विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति को रोकता हुआ अन्तरंग में अर्थात् आत्मा में ही प्रवेश करे।
Mistaking the inanimate body for the soul is the cause of worldly suffering. Therefore, leaving aside the notion that the
पाठान्तर - मानं (अथवा) मानः
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