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Ātmānuśāsana
अहितविहितप्रीतिः प्रीतं कलत्रमपि स्वयं सकृदपकृतं श्रुत्वा सद्यो जहाति जनोऽप्ययम् । स्वहितनिरतः साक्षाद्दोषं समीक्ष्य भवे भवे विषयविषवद्ग्रासाभ्यासं कथं कुरुते बुधः ॥ १९२॥
अर्थ अहितकारक विषयों में अनुराग करने वाला अज्ञानी मनुष्य भी
यदि एक बार भी दुराचरण को सुनता है तो वह अत्यधिक प्यारी स्त्री को भी शीघ्र छोड़ देता है। फिर हे भव्य ! विद्वान एवं आत्महित में लीन पुरुष प्रत्यक्ष में अनेक भवों में विषयों के दोषों को देखता हुआ भी उन विषयों-- -रूप विषमिश्रित ग्रास का कैसे बार- बार सेवन करता है?
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आत्मानुशासन
Even an ignorant man, himself fond of harmful sensepleasures, leaves, without delay, her beloved wife upon hearing her misconduct. O worthy soul! The man who is wise and engrossed in soul-advancement has seen directly the harmful effects of sense-pleasures, in various births. Then, how does he swallow, over and over again, the poisoned food of sense-pleasures?
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आत्मन्नात्मविलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनचरितैरात्मीकृतैरात्मनः । आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥१९३॥
अर्थ - हे आत्मन्! तू आत्मस्वरूप को नष्ट करने वाले अपने आचारों के द्वारा चिरकाल से दुरात्मा अर्थात् बहिरात्मा रहा है, अब तू आत्मा का
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