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Ātmānusāsana
आत्मानुशासन
श्रियं त्यजन् जडः शोकं विस्मयं सात्त्विकः स ताम् । करोति तत्त्वविच्चित्रं न शोकं न च विस्मयम् ॥१०४॥
अर्थ - मूर्ख पुरुष लक्ष्मी को छोड़ता हुआ शोक करता है, तथा पुरुषार्थी मनुष्य उस लक्ष्मी को छोड़ता हुआ विशेष अभिमान करता है, परन्तु तत्त्व का जानकार उसके परित्याग में न तो शोक करता है और न विशिष्ट अभिमान ही करता है।
The fool gets to grief in leaving wealth. The enterprising gets to pride in leaving wealth. However, the one who knows the nature of substances, neither gets to grief nor to pride in leaving wealth.
विमृश्योच्चैर्गर्भात् प्रभृति मृतिपर्यन्तमखिलं मुधाप्येतत्क्लेशाशुचिभयनिकाराद्यबहुलम् । बुधैस्त्याज्यं त्यागाद्यदि भवति मुक्तिश्च जडधीः
स कस्त्यक्तुं नालं खलजनसमायोगसदृशम् ॥१०५॥ अर्थ – गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त यह जो समस्त शरीर-सम्बन्धित आचरण है वह व्यर्थ में प्रचुर क्लेश, अपवित्रता, भय और तिरस्कार आदि से परिपूर्ण है, ऐसा जान कर विद्वानों को उसका परित्याग करना चाहिये। उसके त्याग से यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर वह कौन-सा मूर्ख है जो दुष्ट जन की संगति के समान उसे छोड़ने के लिये समर्थ न हो? अर्थात् विवेकी प्राणी उसे छोड़ते ही हैं।
१ पाठान्तर - निकाराघ
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