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Verses 142, 143
विकाशयन्ति भव्यस्य मनोमुकुलमंशवः । रवेरिवारविन्दस्य कठोराश्च गुरूक्तयः ॥१४२॥
अर्थ - कठोर भी गुरु के वचन भव्य जीव के मन को इस प्रकार से प्रफुल्लित (आनन्दित) करते हैं जिस प्रकार कि सूर्य की कठोर (सन्तापजनक) भी किरणें कमल की कली को प्रफुल्लित करती हैं।
Even harsh words of the preceptor blossom the heart of the worthy disciple just as even the intense rays of the sun blossom the lotus-bud.
लोकद्वयहितं वक्तुं श्रोतुं च सुलभाः पुरा । दुर्लभाः कर्तुमद्यत्वे वक्तुं श्रोतुं च दुर्लभाः ॥१४३॥
अर्थ - पूर्व काल में जिस धर्म के आचरण से इस लोक और परलोक दोनों ही लोकों में हित होता है उस धर्म का व्याख्यान करने के लिये तथा उसे सुनने के लिये भी बहुत से जन सरलता से उपलब्ध होते थे, परन्तु तदनुकूल आचरण करने के लिये उस समय भी बहुत जन दुर्लभ ही थे। किन्तु वर्तमान में तो उक्त धर्म का व्याख्यान करने के लिये और सुनने के लिये भी मनुष्य दुर्लभ हैं, फिर उसका आचरण करने वाले तो दूर ही रहे।
In earlier days, the expounders of the ways of the dharma – beneficial for this life as well as for the future – and the listeners were easily found; those who adopted the prescribed conduct were available but scant. But
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