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Verses 147, 148
EXPLANATORY NOTE
Ācārya Samantabhadra's Ratnakarandaka-śrāvakācāra:
न सम्यक्त्वसमं किञ्चित्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥३४॥
प्राणियों के तीनों कालों में और तीनों लोकों में भी सम्यग्दर्शन के समान कल्याण-रूप, और मिथ्यादर्शन के समान अकल्याण-रूप दूसरा कोई नहीं है।
For the living beings there is nothing in the three worlds and the three times that brings about more propitiousness than right faith; there is nothing that brings about more unpropitiousness than wrong faith.
साधारणौ सकलजन्तुषु वृद्धिनाशौ जन्मान्तरार्जितशुभाशुभकर्मयोगात् । धीमान् स यः सुगतिसाधनवृद्धिनाशः तद्व्यत्ययाद्विगतधीरपरोऽभ्यधायि ॥१४८॥
अर्थ - पूर्व जन्म में संचित किये गये पुण्य और पाप कर्म के उदय से जो आयु, शरीर एवं धन-सम्पत्ति आदि की वृद्धि और उनका नाश होता है वे दोनों (वृद्धि-नाश) तो समस्त प्राणियों में ही समान रूप से पाये जाते हैं। परन्तु जो सुगति अर्थात् मोक्ष को सिद्ध करने वाले वृद्धि एवं नाश को अपनाता है वह बुद्धिमान् तथा दूसरा इनकी विपरीतता से - दुर्गति के साधनभूत वृद्धि-नाश को अपनाने से - निर्बुद्ध (मूर्ख) कहा जाता है।
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