Book Title: Aatmanushasan
Author(s): Vijay K Jain
Publisher: Vikalp Printers

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Page 146
________________ Atmānusāsana आत्मानुशासन क्षणार्धमपि देहेन साहचर्यं सहेत कः । यदि प्रकोष्ठमादाय न स्याद् बोधो निरोधकः ॥११७॥ अर्थ – यदि ज्ञान पौंचा (कोहनी से नीचे व हथेली से ऊपर का भाग) को ग्रहण करके (पकड़ करके) रोकने वाला न होता तो कौन सा । विवेकी जीव इस शरीर के साथ आधे क्षण के लिये भी रहना सहन करता? अर्थात् नहीं करता। Which discriminating man (jiva) would have wanted to live, even for half a moment, with this body if knowledge (jñāna), holding his wrist, had not prevented him (from getting rid of it)? समस्तं साम्राज्यं तृणमिव परित्यज्य भगवान् तपस्यन् निर्माणः क्षुधित इव दीनः परगृहान् । किलाटद्भिक्षार्थी स्वयमलभमानोऽपि सुचिरं न सोढव्यं किं वा परमिह परैः कार्यवशतः ॥११८॥ अर्थ – जिन ऋषभ देव ने समस्त राज्य-वैभव को तृण के समान तुच्छ समझकर छोड़ दिया था और तपश्चरण को स्वीकार किया था वे भी निरभिमान होकर भूखे-दरिद्र के समान भिक्षा के निमित्त स्वयं दूसरों के घरों पर घूमे। फिर भी उन्हें विधिवत् आहार नहीं प्राप्त हुआ। इस प्रकार उन्हें चिरकाल (छह मास) घूमना पड़ा। फिर भला अन्य साधारण जनों या महापुरुषों को अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिये यहाँ क्या (परीषह आदि) नहीं सहन करना चाहिये? अर्थात् उसकी सिद्धि के लिये उन्हें सब कुछ सहन करना ही चाहिये। Even Lord Rşabha Deva, after renouncing, like worthless ........................ 98

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