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प्रियामनुभवत्स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ह्लादते मनो ननु नपुंसकं त्विति न शब्दतश्चार्थतः सुधीः कथमनेन सन्नुभयथा पुमान् जीयते ॥१३७॥
Verses 137, 138
अर्थ - जो मन प्रिया का अनुभव करते हुए केवल अधीर होता है उसे भोग नहीं सकता है तथा जो दूसरे विषयी जनों को - इन्द्रियों को उसका भोग करते हुए देखकर भले प्रकार आनन्दित होता है, वह मन तो शब्द से और अर्थ से भी निश्चयतः नपुंसक है। फिर इस नपुंसक मन के द्वारा जो सुधी (उत्तम बुद्धि का स्वामी) शब्द और अर्थ दोनों ही प्रकार से पुरुष है वह कैसे जीता जाता है? अर्थात् नहीं जीता जाना चाहिये था।
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The mind can only get impatient for its beloved; it cannot enjoy her. Further, it takes delight in seeing others – the senses (indriya) - enjoying her. The mind is certainly neuter, in grammar and in meaning. How does the mind win over the intelligent man who is masculine, in grammar and in meaning?
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राज्यं सौजन्ययुक्तं श्रुतवदुरुतपः पूज्यमत्रापि यस्मात् त्यक्त्वा राज्यं तपस्यन् न लघुरतिलघुः स्यात्तपः प्रो राज्यम् । राज्यात्तस्मात्प्रपूज्यं तप इति मनसालोच्य धीमानुदग्रं कुर्यादार्यः समग्रं प्रभवभयहरं सत्तपः पापभीरुः ॥१३८॥
अर्थ - सुजनता (न्याय - नीति) से सहित राज्य और शास्त्रज्ञान से सहित
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