________________
Atmānuśāsana
अपिहितमहाघोरद्वारं न किं नरकापदामुपकृतवतो भूयः किं ते न चेदमपाकरोत् । कुशलविलयज्वालाजाले कलत्रकलेवरे कथमिव भवानत्र प्रीतः पृथग्जनदुर्लभे ॥८०॥
अर्थ - जिस स्त्री के शरीर को अज्ञानी जन दुर्लभ मानते हैं उस स्त्री के शरीर में हे भव्य! तू किसलिये अनुरक्त हो रहा है? वह स्त्री का शरीर पुण्य (सुख) को भस्मीभूत करने के लिये अग्नि की ज्वालाओं के समूह के समान होकर नरक की आपत्तियों को प्राप्त करने के लिये खुले हुए महाभयानक द्वार के समान है। तथा जिस स्त्री - शरीर को तूने वस्त्राभरणादि से अलंकृत कर बार-बार उपकृत किया है उसने क्या तेरा प्रतिकूल आचरण करके अपकार नहीं किया है? अर्थात् अवश्य ही किया है। अतएव ऐसे कृतघ्न स्त्री के शरीर में अनुराग करना उचित नहीं है।
68
आत्मानुशासन
O worthy soul! Why do you get attracted to the femalebody that only the ignorant consider difficult to get? The female-body is like the cluster of flames that burns down all your merit (happiness), and a dreadful door that leads to miseries of the infernal regions. And, has not the same female-body you have bestowed favours on repeatedly wronged you by its adverse conduct?
............