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Ātmānusāsana
आत्मानुशासन
यस्मिन्नस्ति स भूभृतो धृतमहावंशा प्रदेशः परः प्रज्ञापारमिता धृतोन्नतिधनाः मूर्धा ध्रियन्ते श्रियै । भूयास्तस्य भुजङ्गदुर्गमतमो मार्गो निराशस्ततो व्यक्तं वस्तुमयुक्तमार्यमहतां सर्वार्थसाक्षात्कृतः ॥१६॥
अर्थ - जो पर्वत बड़े बड़े बाँस के वृक्षों को धारण करते हैं, जिनका अन्त बुद्धि से ही जाना जा सकता है, तथा जो उँचाई-रूप धन को धारण करने वाले हैं; ऐसे वे पर्वत जिस प्रदेश (निधानस्थान) में शोभा के निमित्त स्थित हैं वह उत्कृष्ट प्रदेश है। उसका लंबा मार्ग सॉं से अत्यन्त दुर्गम और दिशाओं से रहित अर्थात् दिग्भ्रम को उत्पन्न करने वाला है। इसलिये हे आर्य! उसके विषय में महापुरुषों के लिए स्पष्ट बतलाना अयोग्य है। वह सर्वार्य नाम के द्वितीय मंत्री के द्वारा प्रत्यक्ष में देखा गया है। प्रकृत श्लोक का यह एक अर्थ उदाहरण स्वरूप है। दूसरा मुख्य अर्थ उसका इस प्रकार है- प्रदेश शब्द का अर्थ यहाँ धर्म है, क्योंकि 'प्रदिश्यते परस्मै प्रतिपाद्यते इति प्रदेशः' अर्थात् दूसरों के लिये जिसका उपदेश किया जाता है वह प्रदेश (धर्म) है, ऐसी उसकी निरुक्ति है। जिस धर्म के होने पर इक्ष्वाकु आदि उत्तम वंश को धारण करने वाले (कुलीन) बुद्धि के पारगामी (अतिशय विद्वान्) तथा गुणों से उन्नत होकर धन के धारक ऐसे राजा लोग अन्य जनों के द्वारा लक्ष्मी प्राप्ति के निमित्त शिर से धारण किये जाते हैं वह धर्म उत्कृष्ट है। उस धर्म का मार्ग (उपाय) दान-संयमादि के भेद से अनेक प्रकार का है जो आशा (विषयवांछा) से रहित होता हुआ भुजंगो - कामीजनों - के लिये दुर्लभ है। इस कारण महापुरुषों के लिये उसका स्पष्टतया व्याख्यान करना अशक्य है। वह धर्म सर्वार्य अर्थात् सबों से पूजने योग्य सर्वज्ञ के द्वारा प्रत्यक्ष में देखा गया है।
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