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Atmānusāsana
आत्मानुशासन
उत्पाद्य मोहमदविह्वलमेव विश्वं वेधाः स्वयं गतघृणष्ठकवद्यथेष्टम् । संसारभीकरमहागहनान्तराले हन्ता निवारयितुमत्र हि कः समर्थः ॥७७॥
अर्थ - कर्मरूप ब्रह्मा समस्त विश्व को ही मोहरूप मदिरा से मूर्छित करके तत्पश्चात् स्वयं ही ठग (चोर-डाकू) समान निर्दय बनकर इच्छानुसार संसाररूप भयानक महावन के मध्य में उसका घात करता है। उससे रक्षा करने के लिये भला यहाँ दूसरा कौन समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं है।
Brahmā (the karma), like a bandit, first makes the worldly beings unconscious by the wine of delusion (moha) and then kills them, as he pleases, in midst of this frightful and dense forest of worldly existence. Can anyone else come to the rescue of worldly beings?
कदा कथं कुतः कस्मिन्नित्यतर्व्यः खलोऽन्तकः । प्राप्नोत्येव किमित्याध्वं यतध्वं श्रेयसे बुधाः ॥७८॥
अर्थ - जिस काल के विषय में कब वह आता है, कैसे आता है, कहाँ से आता है और कहाँ पर जाता है। इस प्रकार का विचार नहीं किया जा सकता है वह दुष्ट काल प्राप्त तो होता ही है। फिर हे विद्वानों! आप निश्चिन्त क्यों बैठे हैं? अपने कल्याण के लिये प्रयत्न कीजिये। अभिप्राय
१ पाठान्तर - मदविभ्रममेव
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