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Ātmānusāsana
आत्मानुशासन
धर्मो वसेन्मनसि यावदलं स तावद्धन्ता न हन्तुरपि पश्य गतेऽथ तस्मिन् । दृष्टा परस्परहतिर्जनकात्मजानां रक्षा ततोऽस्य जगतः खलु धर्म एव ॥२६॥
अर्थ - देखो, जब तक वह धर्म मन में अतिशय निवास करता है तब तक प्राणी अपने मारने वाले का भी घात नहीं करता है। और जब वह धर्म मन से निकल जाता है तब पिता और पुत्र का भी परस्पर में घात देखा जाता है। इसलिए इस विश्व की रक्षा उस धर्म के रहने पर ही हो सकती है।
See, so long as dharma fills the mind through and through, the man does not kill even his slayer. But when the mind is without dharma, the father and the son are seen killing each other. Therefore, this world is safe only in presence of dharma.
न सुखानुभवात् पापं पापं तद्धेतुघातकारम्भात् । नाजीर्णं मिष्टान्नान्ननु तन्मात्राद्यतिक्रमणात् ॥२७॥
अर्थ - पाप सुख के अनुभव से नहीं होता है, किन्तु वह उपर्युक्त धर्म के हेतुभूत अहिंसा आदि को नष्ट करने वाले प्राणिवधादि के आरम्भ से होता है। ठीक ही है- अजीर्ण कुछ मिष्टान्न के खाने से नहीं होता है, किन्तु वह निश्चय से उसके प्रमाण के अतिक्रमण से ही होता है।
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