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Verses 54, 55
अर्थ - हे बार-बार जन्म को धारण करने वाले प्राणी! तू उत्पन्न हुआ है; वात-पित्तादि दोषों, रस-रुधिरादि सात धातुओं एवं मल-मूत्रादि से सहित शरीर का धारक है; क्रोधादि कषायों से सहित है; आधि (मानसिक पीड़ा) और व्याधि (शारीरिक पीड़ा) से पीड़ित है, दुश्चरित्र है, अपने आपको धोखा देने वाला है, मृत्यु के द्वारा फैलाये गये मुख के मध्य में स्थित अर्थात् मरणोन्मुख है; तथा ज़रा (बुढ़ापा) का ग्रास बनने वाला है। फिर हे अज्ञानी प्राणी! यह समझ में नहीं आता कि तू उन्मत्त होकर अपने ही हित का शत्रु (घातक) होता हुआ उन अहितकारक विषयों की अभिलाषा क्यों करता है?
O wandering soul! You have taken birth; your body is full of imperfections and home to impurities like blood, bones, faeces and urine; you have passions like anger; you are subject to mental- and physical-suffering; your conduct is lowly; you deceive yourself; you are trapped in the wide-open mouth of death; you are ready to be swallowed by old-age. O ignorant soul! Then why, like a lunatic and enemy of own good, you desire these harmful sense-pleasures? It is beyond comprehension.
उग्रग्रीष्मकठोरधर्मकिरणस्फूर्जद्गभस्तिप्रभैः संतप्तः सकलेन्द्रियैरयमहो संवृद्धतृष्णो जनः । अप्राप्याभिमतं विवेकविमुखः पापप्रयासाकुलस्तोयोपान्तदुरन्तकर्दमगतक्षीणोक्षवत् क्लिश्यते ॥५५॥
अर्थ - तीक्ष्ण ग्रीष्म काल के कठोर सूर्य की दैदीप्यमान किरणों की प्रभा के समान संताप को उत्पन्न करने वाली समस्त इन्द्रियों से संतप्त
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