________________
Verses 64, 65, 66
अर्थ - हे भव्य प्राणी! तू नेत्रादि इन्द्रियोंरूप स्वामी से अथवा नेत्रादि इन्द्रियों के स्वामीरूप मन से प्रेरित दास के समान होकर संक्लेशयुक्त होता हुआ रूपादिरूप समस्त विषयों को प्राप्त करने के लिये हीनाचरणों के द्वारा क्यों पापों को अत्यधिक बढ़ाता है और खेदखिन्न होता है ? तू उन इन्द्रियों को ही अपना दास बनाकर संक्लेश-रहित हुआ उन रूपादि समस्त विषयों को छोड़ दे और जितेन्द्रिय होकर अपनी आत्मा को प्रसन्न कर। इससे तू सदाचरणों के द्वारा पाप- धूल से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त करता हुआ समीचीन सुख का अनुभव कर सकता है।
O worthy being! As the meek slave of your senses, like the eye, or the mind that rules over your senses, why do you chase anxiously the sense-pleasures, like the beautyobjects, and get involved in lowly conduct which only adds to your sins? Take control of your senses and, getting rid of anxiousness, ignore totally those sensepleasures. Make your soul happy by mastering the senses. Adopt such right conduct and you will wash off your sins. On being liberated, you will enjoy excellent bliss.
१
अर्थिनो धनमप्राप्य धनिनोऽप्यवितृप्तितः । कष्टं सर्वेऽपि सीदन्ति परमेकः सुखी' सुखी ॥ ६५ ॥
परायत्तात् सुखाद् दुःखं स्वायत्तं केवलं वरम् । अन्यथा सुखिनामानः कथमासंस्तपस्विनः ॥६६॥
पाठान्तर
-
मुनिः
.........
57