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कः स्वादो विषयेष्वसौ कटुविषप्रख्येष्वलं दुःखिना यानन्वेष्टुमिव त्वयाऽशुचिकृतं येनाभिमानामृतम् । आज्ञातं करणैर्मनः प्रणिधिभिः पित्तज्वराविष्टवत् कष्टं रागरसैः सुधीस्त्वमपि सन् व्यत्यासितास्वादनः ॥३८॥
Verses 38, 39
अर्थ कडुए विष के सदृश संताप उत्पन्न करने वाले उन विषयों में वह कौन सा स्वाद (आनन्द) है कि जिसके निमित्त से उक्त विषयों को खोजने के लिये दु:खी होकर तूने अपने स्वाभिमान (आत्मगौरव) रूप अमृत को मलिन कर डाला है? अरे, मुझे निश्चय हो चुका है कि तू विद्वान् होकर भी पित्तज्वर से पीड़ित मनुष्य की तरह मन की दूती के समान होकर विषयों में आनन्द मानने वाली इन्द्रियों के द्वारा विपरीत-स्वाद वाला कर दिया गया है।
What taste is there in the bitter poison of sense-pleasures in whose search you have distressed yourself and defiled the nectar of your self-esteem ? Alas! It is clear that, though knowledgeable but as if suffering from the bilious-fever, your senses, the messengers of the mind chasing sense-pleasures, have perverted your taste.
अनिवृत्तेर्जगत्सर्वं मुखादवशिनष्टि यत् । तत्तस्याशक्तितो भोक्तुं वितनोर्भानुसोमवत् ॥३९॥
अर्थ
तृष्णा की निवृत्ति से रहित अर्थात् अधिक तृष्णा से युक्त होकर भी तेरे मुख से जो सब जगत् अवशिष्ट बचा है वह तेरी भोगने की
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