________________
Ātmānuśāsana
आत्मानुशासन
भले प्रकार प्रसिद्ध है - इसे सब ही जानते हैं। इसलिये जो भव्य प्राणी सुख की अभिलाषा करता है उसे पाप को छोड़कर निरन्तर धर्म का आचरण करना चाहिये।
It is well-known that demerit (pāpa) begets suffering and
merit (dharma, punya) begets happiness. Therefore, the potential (bhavya) soul seeking happiness must refrain from demerit and follow incessantly the conduct that leads to merit (dharma).
सर्वः प्रेप्सति सत्सुखाप्तिमचिरात् सा सर्वकर्मक्षयात् सवृत्तात् स च तच्च बोधनियतं सोऽप्यागमात् स श्रुतेः । सा चाप्तात् स च सर्वदोषरहितो रागादयस्तेऽप्यतः तं युक्त्या सुविचार्य सर्वसुखदं सन्तः श्रयन्तु श्रियै ॥९॥
अर्थ - सब प्राणी शीघ्र ही यथार्थ सुख को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, उस सुख की प्राप्ति समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर होती है, कर्मों का क्षय भी सम्यक्चारित्र के निमित्त से होता है, वह सम्यक्चारित्र भी सम्यग्ज्ञान के आधीन है, वह सम्यग्ज्ञान भी आगम से प्राप्त होता है, वह आगम भी द्वादशांग-रूप श्रुत के सुनने से होता है, वह द्वादशांग श्रुत भी आप्त से आविर्भूत होता है, आप्त भी वही हो सकता है जो समस्त दोषों से रहित है, तथा वे दोष भी रागादिस्वरूप हैं। इसलिये सुख के मूल कारणभूत आप्त का (देव का) युक्तिपूर्वक (परीक्षापूर्वक) विचार करके सज्जन मनुष्य बाह्य एवं अभ्यन्तर लक्ष्मी को प्राप्त करने के लिये सम्पूर्ण सुख देने वाले उसी आप्त का आश्रय करें।
10