Book Title: Tulsi Prajna 1996 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJÑA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal अनुसंधान त्रैमासिकी Ueation International पूर्णाङ्क - ९७ प्रमुख आकर्षण • आर्ष प्राकृत : स्वरूप एवं विश्लेषण • प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग • आदि शाब्दिक और पारम्परीय प्राकृत • सोलंकी - राजवंश का यायावरी इतिहास • मानव और देवताओं का कालमान Vidyas in the Vasudevahimdi ० • Buddnists' view of universal Love and Tolerance नाण विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं - ३४१३०६ Vishva-bharati Institute, Ladnun-341306 For Private & Perserial Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा : अनुसंधान त्रैमासिको Tulsi Prajña-Research Quarterly पूर्णाङ्क-९७ परामर्शक प्रो. बी. बी. रायनाड़े सदस्यगण प्रो. राय अश्विनीकुमार प्रो. आर. के. ओझा डॉ. जे. आर. भट्टाचार्य डॉ. बच्छराज दूगड़ सारमाया जैन विश्व-भारती संस्थान (मान्य विश्व विद्यालय) लाडनूं ३४१३०६ (राज.) भारत Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Vishva-Bharati Institute Research Journal Vol. XXII April-June, 1996 No. 1 संपादक परमेश्वर सोलंकी Articles for Publication must accompany with notes and references, separate from the main body. The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the INSTITUTE agree with them. Editorial enquiries may be addressed to : The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladnun-341 306 (INDIA), © Copyright of Articles, etc. published in this journal is reserved, Annual Subs. Rs. 60/- Rs. 20/- Life Membership Rs. 600/ Published by Dr. Parmeshwar Solanki for Jain Vishva-bharati Institute, Deemed University, Ladnun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladnun--341 306. Published on 23.8.1996 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका / Contents १. सपादकीय ( ' शौरसेनी' कहने का आग्रह क्यों ? ) २. आर्ष भाषा: स्वरूप एवं विश्लेषण आचार्य महाप्रज्ञ ३. वैदिक क्रियापद : एक विवेचन सुबोध कुमार नन्द ४. आख्यात एवं धातु का दार्शनिक स्वरूप श्रीमती सरस्वती सिंह ५. 'अविमारकम्' में प्रयुक्त प्राकृत- अव्ययपद कमलेशकुमार छः चोकसी ६. णमोकार महामंत्र : सांगीतिक चिन्तन जयचन्द्र शर्मा ७. प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग प्रबोध वे. पण्डित ८. मृच्छकटिक कालीन भारतीय संस्कृति कुमारी बब्बी ९. भवभूति की दृष्टि में परिवार का स्वरूप मधुरिमा मिश्र १०. बौद्ध दर्शन में स्मृति प्रस्थानों का महत्त्व संजय कुमार ११. आदि शाब्दिक और पारंपरीय प्राकृत परमेश्वर सोलंकी कालक्रम और इतिहास १२. सोलंकी - राजवंश का यायावरी इतिहास राव गणपतिसिंह १३. मानव और देवताओं का कालमान मुनि श्रीचंद 'कमल' १४. विक्रम संवत्सर में न्यूनाधिक मास स्व० मुनि हड़मानमलजी, सरदारशह 1 1 1 1 1 1 1 1 1 I १ – १४ १५-२० २१-२८ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (iv) २९-३२ ३३-३८ १-१६ १५. झाबरा (पोकरण) की देवलियां परमेश्वर सोलंकी १६. ओं सृष्टि संवत् प्रोफेसर प्रतापसिंह प्रकीर्णकम् | १७. दशवकालिक नियुक्ति समणी कुसुमप्रज्ञा English Section 1. Science Education and Spirituality Deepika Kothari 2. Vidyas in the Vasudevahimdi Rani Majamdar 3. Buddists' view on Universal love and Tolerance ___Narendra K. Dash 4. Some Unique features of the Jaina School of astronomy S. S. Lisbk 5. Development of studies in Prakrit Grammer and Linguistics Bhagcbandra Jain 'Bhaskar 1-6 7-14 15-22 23-24 25-39 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय 'शौरसेनी' कहने का आग्रह क्यों ? पिछले दिनों दिल्ली से प्रकाशित 'प्राकृत विद्या' (७.४ अंक) में उद्घोषणा की गई है कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के 'तिपिटक' आदि हों, श्वेताम्बरों के 'आचारांग सूत्र', 'दशवैकालिक सूत्र' आदि हों अथवा दिगम्बरों के 'षट्खण्डागम-सूत्र', 'समयसार' आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे।" "शौरसेनी-प्राकृत ही प्राचीनकाल में सामान्यतः 'प्राकृत'-संज्ञा से व्यवहृत होती थी। न केवल नाट्यशास्त्र अपितु प्राचीन आगम-साहित्य की भाषा भी शौरसेनी प्राकृत ही थी।" इस उद्घोणा के लिए कोई आधार अथवा प्रमाण आदि प्रस्तुत नहीं किए गए। मार्कण्डेय के 'प्राकृत-सर्वस्व' से कुछ सूत्रों को कतिपय निदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया है कि लोक भाषाओं पर शौरसेनी का प्रभाव रहा है किन्तु कवीन्द्र मार्कण्डेय साधारणतया (ईसवी सन् में १४९०-१५६५) सोहलवीं सदी के माने जाते हैं। उनके द्वारा दी गई व्याकरण की व्यवस्थाएं आगम और पिटक ग्रंथों के लिखे जाने के बहत अधिक बाद के भाषा-प्रयोगों के लिए ही मान्य हो सकती हैं। खण्ड २२, अंक ४ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं मार्कण्डेय भाषा, विभाषा, अपभ्रंश, पैशाची के १६ भेदों का परिचय देते हैं और महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्य, आवन्ती और मागधी-पांच भाषाएं मानते हैं तथा शौरसेनी को महाराष्ट्री और संस्कृत की अनुगामी कहते हैं। ऐसी स्थिति में उपर्युक्त उद्घोषणा का कतिपय निदर्शन युक्ति संगत नहीं लगता। २. भाषा-शास्त्रियों ने प्राकृत भाषाओं में लेखन को भगवान् महावीर एवं बुद्ध के समय से शुरू माना है । भगवान् बुद्ध के वचन को उनके निर्वाण बाद २५० वर्षों के भीतर ही लिपिबद्ध कर लिया गया और सम्राट अशोक ने भी अपनी धम्मलिपियों (शिलालेखों) के माध्यम से बहुत कुछ संग्रह कर दिया। भगवान् महावीर की वाणी, इस दृष्टि से कुछ अंतराल में लिपिबद्ध हुई । साधारणतया उसे महावीर-निर्वाण बाद ९८० वर्ष बीतने पर लिपिबद्ध किए जाने की सूचना है और शिलालेख आदि पर भी उसका संरक्षण प्रायः नहीं मिलता। एतद् विषयक एक अध्ययन का सारांश इसी अंक में प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग शीर्षक से अनुमुद्रित है। ३. जैसे किसी देश अथवा समाज में शुद्ध प्रजा जैसा कुछ भी नहीं होता; वैसे ही शुद्ध भाषा जैसा भी कुछ नहीं हो सकता। भाषा का विकास समाज में ही होता है। चंद व्यक्ति, कुछ लोगों के लिए कुछ लिखें तो उस लेखन की भाषा भी कुंठित हो जाती है। वस्तुतः भाषा को नियमों में जकड़ कर रखना बहुत कठिन है क्योंकि भाषा की ध्वनियां निरन्तर बदलती रहती हैं। बुद्ध और महावीर की भाषा का उद्गम एक है और उनकी भाषा में बहुत अधिक समानता भी रही होगी किन्तु पालि और अर्द्धमागधी में बहुत फर्क हो गया। मूल एक जैसा होने पर भी दोनों के विकास की परिस्थिति अलग-अलग थी। उनमें समता-विषमता के लिए दो नमूने देखिएधम्मपद (७०) उत्तराध्ययनसूत्र (९.४४) मासे मासे कुसग्गेन मासे मासे तु जो बालो __ बालो भुजेत्थ भोजनं । कुसग्गेण तु भुंजए । न सो संखत धम्मानं न सो सुक्खाव धमस्स ___ कलं अग्धति सोलसि ।। कलं अग्घइ सोलकिं ॥ थेरगाथा (७८६) उत्तराध्ययनसूत्र (४.३) चोरो यथा सन्धिमुखे गहीतो तेने जहा सन्धिमुहे गहीए सकम्मुन हज्जति पापधम्मो । सकम्मुना किच्चइ पावकारी। एवं पजा पेच्चा परम्हि लोके एवं पया पेच्चा इहं च लोए सकम्मुना हज्जति पापधम्मो ॥ कंडाण कम्माण मोक्ख अत्थि ॥ ऐसे अनेकों संदर्भ मिल सकते हैं। श्वेताम्बर-दिगम्बर जैनागमों में भी शोध करने पर ऐसे समता-विषमता वाले संदर्भ-स्थल मिल जायेंगे। तुलसी प्रज्ञा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुतः बुद्धवचन श्रीलंका में जाकर लिपिबद्ध हुए और महावीर-वाणी गुजरातकाठियावाड़ अथवा दक्षिण में जाकर संरक्षित हुई। इसीलिये बौद्धों ने अपने पिटक को पालि भाषा में निबद्ध बताया है और श्वेतांबर जैनागमों में उनकी भाषा को अर्द्धमागधी भाषा (१८ भाषाओं की मिली-जुली भाषा-निशीथ चूर्णि) कहा गया है । जबकि भगवान महावीर वैशाली में जन्में और मगध की प्रचलित भाषा में उन्होंने उपदेश किया। जैनागमों की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में और दूसरी वाचना मथुरा में हुई। इसलिए यदि केवल संज्ञापद (नाममात्र) को रखना ही आग्रह का कारण है तो मथुरा की भाषा कहने में किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए क्योंकि दक्षिण भारत में भी उत्तरी मथुरा की तरह दक्षिणी मथुरा (मदुरा) है और शेष गिरिराव जैसे विद्वान् के शब्दों में-'मेरे पास तमिल साहित्य में और लोक बोली में इस बात के अनेक प्रमाण हैं; कि जिस प्रकार की प्राकृत में आचार्य कुंदकुंद ने अपने ग्रन्थ निवद्ध किए हैं, वह केवल समझी ही नहीं जाती थी बल्कि आन्ध्र और कलिंग प्रदेशों में जन सामान्य के द्वारा बोली भी जाती थी'---(दी एज आफ कुंद कुंद)-ऐसे संदर्भ भी मौजूद हैं। -परमेश्वर सोलंकी खण्ड २२, अंक १ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा संगोष्ठी लाडनूं । यहां सम्पन्न प्राकृत संगोष्ठी में इस कथन का तीव्र प्रतिवाद हुआ कि मथुरा से महाराष्ट्र तक एक ही प्राकृत भाषा बोली जाती थी और उस प्राचीन शौरसेनी से ही महाराष्ट्री प्राकृत का निर्माण हुआ। विद्वानों ने आगम और पिटकों के उद्धरणों से यह आम राय प्रकट की है कि भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध की एक ही भाषा थी तथा बुद्ध वचन और महावीर वाणी में विषमताएं कम, समानताएं अधिक हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने कहा कि पाली और प्राकृत समानार्थवाची शब्द है । पाली का मूल अर्थ ग्रामीण अथवा पल्लियों की भाषा है। जैन आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी रही है । अर्द्धमागधी में केवल शौरसेनी ही नहीं, अठारह देशी भाषागत विशेषताएं उपलब्ध हैं। आरम्भ में भगवती सूत्र के अनुवाद कार्य में लगे डॉ० नथमल टाटिया ने दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित इस कथन का खण्डन किया कि महावीर वाणी शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवकालिक में अर्द्धमागधी भाषा का उस्कृष्ट रूप है । डॉ० टाटिया ने यह भी स्वीकार किया कि बुद्ध वचन की भाषा सीलोन में लिपिबद्ध होते समय वहीं की जनभाषा से प्रभावित हो गई, इसीलिए उसे प्राकृत न कहकर पालि भाषा कहा गया है। इस सम्बन्ध में समवायांग का उद्धरण देते हुए परमेश्वर सोलंकी ने विचार व्यक्त किया कि प्राकृत भाषा मूल भाषा है और यह चराचर सब प्राणियों की भाषा है। उसे संस्कार करके वैदिक और लौकिक संस्कृत भाषाएं बना दी गई है। उन्होंने समवायांग के उद्धरण के साथ यजुर्वेद की यजूंषि को उद्धृत करते हुए स्पष्ट किया कि बेद जिस कल्याणी वाणी को सबके द्वारा विचार व्यक्त करने का माध्यम कहता है वही वाणी भगवान महावीर बोलते थे जो सब चराचर प्राणियों की भाषा बन जाती थी। इसलिए वही मूल प्राकृत भाषा है । डॉ० राय अश्विनी कुमार ने कहा किवेदों में वैदिक भाषा के अनेक रूप मिलते हैं वे उनके जन भाषा होने के परिचायक हैं। यास्क और पाणिनि ने उस वैदिक भाषा को नियमों में जकड़ दिया तो भगवान महावीर और बुद्ध के समय पुनः जन भाषा का प्रचार बढ़ा। डॉ० जगतराम भट्टाचार्य ने कहा कि भारत में द्रविड भाषाओं के अलावा सब भाषाएं एक ही परिवार की हैं। उनके स्थानीय भेद अनेक हैं और उन्हें एक दूसरे पर आश्रित कहना गलत है। __ संगोष्ठी में डॉ० टाटिया से सवाल- जवाब हुए। मुनि सुखलालने प्राचीन शौरसेनी का स्वरूप जानना चाहा और मुनि धनंजयकुमार ने 'प्राकृत भाषा' में छपे उनके वक्तव्य को पढ़कर उस संबंध में डॉ० टाटिया से स्पष्टीकरण मांगा जिसके प्रत्युत्तर में डॉ० टाटिया ने प्राकृत भाषा में छपे वक्तव्य से असहमति प्रकट की और कहा कि मेरा वक्तव्य वही है जो मैंने यहां दिया है। डॉ० टाटिया ने कहा कि हमें मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, पालि और महाराष्ट्री का एक साथ अध्ययन करना होगा। अन्त में संगोष्ठी का समाहार करते हुए संयोजक ने विषय के महत्त्व को उजागर किया और उस पर राष्ट्रीय चितन के लिए एक कार्यशाला की आवश्यकता बताई । उन्होंने कहा कि प्राकृत भाषा के के संबंध में डॉ. होर्नले और कॉवेल में जो मतभेद हैं, डॉ० वूलनर, लेसन, याकोबी और क्रिस्टेन ने जो नतीजे निकाले हैं तथा नितिडोलची, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी आदि के अध्ययन से जो भ्रम उठ खड़े हुए हैं उन सब पर गंभीर चिंतन-मनन की अपेक्षा है। --(प्रेस विज्ञप्ति) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषाओं का अध्ययन आर्ष प्राकृत : स्वरूप एवं विश्लेषण o आचार्य महाप्रज्ञ आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत, व्याकरण में आर्ष-विधियों को वैकल्पिक बताया है। इस नियम के अनुसार उन्होंने आगम-सूत्रों के उन स्थलों का निर्देश किया है, जो उनकी दृष्टि में व्याकरण-सिद्ध नहीं थे । उदाहरणरूप में कुछ प्रयोग प्रस्तुत हैं 'पच्छेकम्म', 'असहेज्ज'—ये दोनों आर्ष-प्रयोग हैं। इनमें जो ‘एकार' है, वह व्याकरण-सिद्ध नहीं है। 'आउंटणं'-इस प्रयोग में जो 'चकार' को 'टकार' वर्णादेश है, वह व्याकरणसिद्ध नहीं है। 'अहक्खाय', 'अहाजायं--प्राकृत व्याकरण के अनुसार आदि के 'यकार' को 'जकार' वर्णादेश होता है। किन्तु आर्ष-प्रयोग में 'य' का लोप भी हो जाता है। ये दोनों प्रयोग उसके उदाहरण हैं।' 'दुवालसंगे'-प्राकृत व्याकरण के अनुसार इस प्रयोग में 'लकार' वर्णादेश प्राप्त नहीं हैं, किन्तु आर्ष में ऐसा प्रयोग मिलता है। 'इक्खू, खीरं,' सारिक्खं--ये आर्ष-प्रयोग हैं। प्राकृत व्याकरण के अनुसार, अक्ष्यादि गण के संयुक्त 'क्ष' को 'छकार' आदेश होता है। जैसे—उच्छू, छीरं, सारिच्छं। प्राकृत भाषा में सामान्यतः 'क्ष' को 'ख' कार आदेश होता है।" आर्ष-प्रयोगों में प्रायः वही मिलता है। आर्ष-प्रयोग में 'थ्य' को चकार आदेश होता है। जबकि प्राकृत व्याकरण से उसे 'छकार' आदेश दिया गया है । प्राकृत व्याकरण में "श्मशान' का 'मसाण' रूप बनता है। आर्ष-प्रयोग में इसके दो रूप मिलते हैं-सीआण, सुसाण ।' प्राकृत में 'स्रोत' शब्द का 'सोत्तं' रूप बनता है किन्तु आर्ष में 'पडिसोओ' "विस्सोअसिआ' ---रूप भी मिलते हैं।" ____ आर्ष-प्रयोग में संयुक्त वर्ण के अन्त्य व्यंजन से पूर्व 'अकार' होता है। तथा 'उकार' भी होता है ।१२ आर्ष-प्रयोग में 'किरिया' पद का 'किया' रूप भी मिलता है ।११ आर्ष-प्रयोग में द्रह शब्द का 'हरए' रूप मिलता है।" खंड २२, अंक १ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कट्ट'--यह आर्ष-प्रयोग है ।१५ . निपात प्रकरण में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि आर्ष प्रकरण में जो प्रयोग उपलब्ध है, वे सब अविरुद्ध हैं।" __ आर्ष-प्रयोगानुसार सप्तमी के स्थान में तृतीया तथा प्रथमा के स्थान में द्वितीया विभक्ति भी होती है। आर्ष-प्रयोग में संस्कृत-सिद्ध रूपों के प्रतिरूप भी मिलते हैं। शौरसेनी में 'णं' ननु के अर्थ में निपात है, किन्तु आर्ष-प्रयोगों में वह वाक्यालंकार में भी प्रयुक्त होता है।८ आगम सूत्रों के व्याख्याकार व्याकरण से सिद्ध न होने वाले आर्ष-प्रयोगों को अलाक्षणिक और सामयिक कहते हैं। 'वत्थगंध-मलंकारं' (दसवेआलियं २।२) इस पद में 'मलंकार' का 'म' अलाक्षणिक है । हरिभद्रसूरी ने लिखा है-अनुस्वर अलाक्षणिक है । मुख-सुखोच्चारण के लिए इसका प्रयोग किया गया गया है। प्राकृत व्याकरण में सुखोच्चारण और श्रुतिसुख-दोनों को महत्त्व दिया गया है। प्राकृत व्याकरण में पकार के लुक् का विधान है" और पकार को वकार वर्णादेश भी होता है।" इन दोनों की प्राप्ति होने पर क्या करना चाहिए, इस जिज्ञासा के उत्तर में आचार्य हेमचंद्र ने लिखा है --जिससे श्रुतिसुख उत्पन्न हो, वही करना चाहिए । २ दंतसोहणमाइस्स' (उत्त० १९।२७)-इस पद में भी सकार अलाक्षणिक माना जाता है। किन्तु इन सबके पीछे सुखोच्चारण तथा छंदोबद्धता का दृष्टिकोण है। 'वत्थगंधालंकारं' तथा 'दंतसोहणाइस्स'-इन प्रयोगों में उच्चारण की मृदुता भी नष्ट होती है और छंदोभंग भी हो जाता है। हरिभद्र सूरी ने 'गोचर' शब्द को सामायिक (समय या आगमसिद्ध) बतलाया है । प्राकृत व्याकरण के नियमानुसार 'गोचार' होना चाहिए था ।" आगमिक प्रयोगों में विभक्तिरहित पद भी मिलते हैं। 'गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू (दस० ९।३।११) --- यहां 'गुण' शब्द द्वितीया विभक्ति का बहुवचन है। पर यहां इसकी विभक्ति का निर्देश नहीं है। 'इंगालधूमकारण'-- इस पद में विभक्ति नहीं है। आचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार के विभक्ति लोप का हेतु आर्ष-प्रयोग बतलाया है।" आर्ष या सामयिक प्रयोग के प्रतिपादन का हेतु काल का अन्तराल है। आगम सूत्रों के कुछ प्रयोग व्याकरणसिद्ध नहीं है, इस धारणा के पीछे दो हेतु थे १. प्राकृत व्याकरणकारों के समय जो व्याकरण उपलब्ध थे या उन्हें जो नियम ज्ञात थे, उनसे वे प्रयोग सिद्ध नहीं होते थे। २. प्राकृत व्याकरणकार प्राकृत की प्रकृति संस्कृत मानकर चले । आगमसूत्रों में बहुत सारे देशी भाषा के प्रयोग हैं, जिनका संस्कृत से कोई संबंध नहीं है। इन धारणाओं से उन्होंने उन प्रयोगों को अलाक्षणिक, आर्ष या सामयिक कहा । यदि हम काल के अन्तराल पर ध्यान दें तो कुछ नए तथ्य उद्घाटित होंगे। निशीथ भाष्य में आगमसूत्रों को 'पुराण' कहा गया है। उनका विषय भगवान् महावीर के तुलसी प्रशा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा प्रतिपादित है और उनका संकलन गणधरों द्वारा कृत है, इसलिए वे पुराण-- प्राचीन है । उनको भाषा 'प्राकृत अर्द्धमागधी' है और उसमें अठारह देशी भाषाओं का संमिश्रण है। अनेक वैयाकरण आर्ष और देश्य भाषाओं का व्याकरण के नियमों से नियंत्रित नहीं मानते । डॉ. पिशल ने इस विषय पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी की है "भारतीय वैयाकरण पुराने जैन-सूत्रों की भाषा को आर्षम अर्थात ऋषियों की भाषा" का नाम देते हैं । हेमचन्द्र ने १, ३ में बताया है कि उसके व्याकरण के सब नियम आर्ष-भाषा में लागू नहीं होते, क्योंकि आर्षभाषा में इसके बहुत से अपवाद हैं और वह २, १७४ में बताता है कि ऊपर लिखे नियम और अपवाद आर्ष-भाषा में लागू नहीं होते; उसमें मनमाने नियम काम में लाये जाते हैं । त्रिविक्रम अपने व्याकरण में आर्ष और देश्य भाषाओं को व्याकरण के बाहर ही रखता है; क्योंकि इनकी उत्पत्ति स्वतंत्र है जो जनता में रूढ़ि बन गई थी (रूढ़त्वात्)। इसका अर्थ यह है कि आर्षभाषा की प्रकृति या मूल संस्कृत नहीं है और यह बहुधा अपने स्वतंत्र नियमों का पालन करती है (स्वतन्त्रत्वाच्च भूयसा) । प्रेमचन्द्र तर्कवागीण ने दण्डिन् के काव्यादर्श १,३३ की टीका करते हुए एक उद्धरण दिया है, जिसमें प्राकृत का दो प्रकारों में भेद किया गया है। एक प्रकार की प्राकृत वह बताई गई है, जो आर्ष भाषा से निकली है और दूसरी प्राकृत वह है जो आर्ष के समान है-आर्षोत्थम् आर्षतुल्यम् च द्विविधम् प्राकृतम् विदुः । 'रुद्रट' के काव्यालंकार २,१२ पर टीका करते हुए 'नमिसाधु' ने प्राकृत नाम की व्युत्पत्ति यों बताई है कि प्राकृत भाषा की प्रकृति अर्थात् आधारभूत भाषा वह है जो प्राकृतिक है, और जो सब प्राणियों की बोलचाल की भाषा है तथा जिसे व्याकरण आदि के नियम नियन्त्रित नहीं करते; चूंकि वह प्राकृत से पैदा हुई है अथवा प्राकृतजन की बोली है इसलिए इसे प्राकृत भाषा कहते हैं । अथवा इसका वह भी अर्थ हो सकता है कि प्राकृत प्राक्कृत शब्दों से बनी हो । इसका तात्पर्य हुआ कि वह भाषा जो बहुत पुराने समय से चली आई हो । साथ ही यह भी कहा जाता है कि वह प्राकृत जो आर्ष शास्त्रों में पाई जाती है अर्थात् अर्द्धमागध वह भाषा है, जिसे देवता बोलते हैं-'आरिसवयणे सिद्ध देवाणं अद्धमागहावाणी' । इस लेखक के अनुसार प्राकृत वह भाषा है जिसे स्त्रियां, बच्चे आदि बिना कष्ट के समझ लेते हैं, इसलिए मध्यभाषा सब भाषाओं की जड़ है । बरसाती पानी की तरह प्रारंभ में इसका एक ही रूप था; किन्तु नाना देशों में और नाना जातियों में बोली जाने के कारण (उनके व्याकरण के नियमों में भिन्नता आ जाने के कारण) तथा नियमों में समय-समय पर सुधार चलते रहने से भाषा के रूप में भिन्नता आई । इसका फल यह हुआ कि संस्कृत और अन्य भाषाओं के अपभ्रंश रूप बन गये, जो 'रुद्रट' ने २.१२ में गिनाये हैं। यहां यह बात खंड २२, अंक १ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान देने योग्य है कि 'नमिसाधु' के मतानुसार संस्कृत की आधारभूत भाषा अथवा कहिए कि संस्कृत की व्युत्पत्ति प्राकृत से है। यह बात इस तरह स्पष्ट हो जाती है कि बौद्धों ने जिस प्रकार मागधी को सब भाषाओं के मूल में माना है, उसी प्रकार जैनों ने अर्धमागधी को अथवा वैयाकरणों द्वारा वणित आर्षभाषा को वह मूल भाषा माना है जिससे अन्य बोलियां और भाषाएं निकली हैं। अर्धमागधी में मागधी और शौरसेनी का सम्मिश्रण माना है। डॉ. पिशल के अनुसार आर्ष और मागधी भाषा एक ही है। किन्तु निशीथचूर्णिकार के अनुसार अर्धमागधी में केवल शौरसेनी की ही नहीं किन्तु अठारह देशीभाषागत विशेषताएं उपलब्ध हैं । इसलिए जिसे उत्तरवर्ती वैयाकरणों ने आर्ष कहा है, वह व्याकरण के नियमों से सर्वथा अनियंत्रित भी नहीं है और लौकिक संस्कृति की भांति बहुत नियंत्रित भी नहीं है । आर्ष-प्रयोग प्राचीन व्याकरण से नियंत्रित हैं। उन नियमों की जानकारी वैदिक व्याकरण के नियमों के संदर्भ में की जा सकती है। अनुयोगद्वार के चूर्णिकार ने शब्द-प्राभृत या पूर्वशास्त्रों के अन्तर्गत व्याकरणों का निर्देश किया है । इससे ज्ञात होता है कि आगमसूत्रों की रचना के समय जो व्याकरण थे, उनके आधार पर आगमसूत्रों के प्रयोग किए गए। भाषा का प्रवाह और उसके प्रयोग काल-परिवर्तन के साथ-साथ परिवर्तित होते रहते हैं। पन्द्रह सौ वर्ष बाद बनने वाले व्याकरणों में उन पूर्ववर्ती व्याकरणों के नियमों का अनुवर्तन संभव नहीं होता। इसीलिए प्राचीन प्रयोगों को 'आर्ष' कहने की मनोवृत्ति निर्मित हुई। आगमसूत्रों में प्राचीन व्याकरणों के कुछेक संकेत सौभाग्य से आज भी उपलब्ध हैं । उनके आधार पर हम अलाक्षणिक प्रयोगों को कसौटी पर कस सकते हैं। स्थानांग सूत्र में शुद्धवचन अनुयोग के दस प्रकार बतलाए हैं१. चंकार अनुयोगचंकार शब्द के अनेक अर्थ हैं(क) समाहार-- संहति, एक ही तरह हो जाना । (ख) इतरेतरयोग--मिलित व्यक्तियों या वस्तुओं का संबंध । (ग) समुच्चय- शब्दों या वाक्यों का प्रयोग । (घ) अन्वाचय---मुख्य काम या विषय के साथ में गौण काम का विषय जोड़कर । (ङ) अवधारण----निश्चय । (च) पादपूरण । २. मंकार अनुयोग-इस अनुयोग के द्वारा मकार का विधान किया गया है। यह समस्त और असमस्त पदों में होता है । ___ जेण+एवजेणामेव, तेणा+एव=तेणामेव । प्राकृत व्याकरण के अनुसार इनके 'जेणेव' 'तेणेव' रूप बनते हैं। 'छंदनिरोहेण उवेइ मोक्खं' (उत्त० ४१८)- यहां समस्त पद में अनुस्वार किया गया है । 'अन्नमन्नेण' (उत्त० १३।७) यहां भी मकार विहित है। तुमसी प्रक्षा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. पिकार अनुयोग-'अपि' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे-संभावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय, गर्दा, शिष्यामर्षण, विचार, अलंकार तथा प्रश्न । ‘एवंपि एगे आसासे —यहां अपि का प्रयोग ‘ऐसे भी' और 'अन्यथा भी'--इन दो प्रकारान्तो का समुच्चय करता है । ४. सेयंकार अनुयोग-'से' शब्द के अनेक अर्थ है -अथ, वह, उसका आदि । से भिक्खू'---यहां 'से' का अर्थ 'अथ' है । 'न से चाइत्ति वुच्चइ' --- यहां से का अर्थ वह (वे) है । अथवा 'सेय' शब्द के अनेक अर्थ हैं-श्रेयस्, भविष्यत्काल आदि। सेयं में अहिज्जिउं अज्झयणं-यहां 'सेय' शब्द श्रेयस् के अर्थ में प्रयुक्त है। 'सेयकाले अकम्म यावि भवइ'- यहां 'सेय' भविष्यत् काल का द्योतक है । डॉ० पिशल ने 'सकार' की विशद मीमांसा की है । देखें-प्राकृत भाषाओं का व्याकरण पृ० ६२२-२५)। ५. सायंकार अनुयोग -- सायं शब्द के अनेक अर्थ हैं- सत्य, सद्भाव, प्रश्न आदि। ६. एकत्व अनुयोग-बहुवचन के स्थान पर एक वचन का प्रयोग । 'एस मग्गुत्ति पन्नत्तो' (उत्त० २८।२)---यहां 'मग्ग' शब्द एकवचन का प्रयोग है, जबकि यहां बहुवचन होना चाहिए था। ७. पृथक्त्व अनुयोग - जैसे ---धम्मत्थिकाये, धम्मत्थिकायदेसे, धम्मत्थिकायपदेसा यहां 'धम्मत्थिकायपदेसा'-इनमें दो के लिए बहुवचन नहीं है किन्तु धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का असंख्यत्व बतलाने के लिए है। ८. संयूथ अनुयोग --'सम्मत्तदंसणसुद्ध'-इस समस्त पद का विग्रह अनेक । प्रकार से किया जा सकता है; जैसे (क) सम्यगदर्शन के द्वारा शुद्ध (तृतीया) (ख) सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध (चतुर्थी) (ग) , के लिए शुद्ध (पंचमी) ९. संक्रामित अनुयोग-इसके अनुसार विभक्ति और वचन का संक्रमण होता है। विभक्ति संक्रमण ० इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं (दस० ४१२) यहां सप्तमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है । ० बीएसु हरिएसु (दस० ५।११५७) यहां तृतीया के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है। ० भोगेसु (दस० ८।३४) यहां पंचमी के अर्थ में सप्तमी विभक्ति है । ० अदीणमणसो (उत्त० २।३) यहां प्रथमा के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है । ० कडाणं कम्माणं (उत्त० १३।१०) यहां पंचमी के अर्थ में षष्ठी विभक्ति है। बंर २२ अंक ४ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम संक्रमण • मन्ने (दस० ६।१८) ___ यहां बहुवचन के स्थान पर एक वचन है। ० से दसंगेऽभिजायई (उत्त० ३.१९) यहां बहुवचन के स्थान पर एकवचन है। • उच्चार समिईसु (उत्त० १२।२) __ यहां एकवचन के स्थान पर बहुवचन है ।२९ । १०. भिन्न अनुयोग-जैसे-'तिविह तिविहेणं' यह संग्रह-वाक्य है। इसमें (१) मणेणं वायाए कायेणं तथा (२) न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि-इन दो खंडो का संग्रह किया गया है। द्वितीय खंड- न करेमि आदि तीन वाक्यों में 'तिविहं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खंड ---..'मणेण' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है। यहां 'न करेमि' आदि बाद में हैं और 'मणेणं' आदि पहले । यह क्रम भेद है । कालभेद..... 'सक्के देविदे देवराया वंदति नमसति'- यहां अतीत के अर्थ में वर्तमान की क्रिया का प्रयोग है। अनुयोगद्वार में आठ विभक्तियां बतलाई गई हैं। उनमें आठवीं का नाम आमंत्रणी है। वृत्तिकार ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है - इस आठवीं विभक्ति का आधार प्राचीन वैयाकरण है। आधुनिक वैयाकरण इसे प्रथमा विभक्ति ही मानते हैं । अनुयोगद्वार के चूणिकार ने इसी के लिए शब्दप्राभृत और पूर्व के अन्तर्गत व्याकरण का निर्देश किया है। आर्ष-प्राकृत का वैदिक व्याकरण से साम्य पाया जाता है ।२ प्रमाणित होता है कि उसके नियम प्राचीन व्याकरणों से संबद्ध है अनुयोगद्वार में लिंगानुशासन के नियम भी मिलते हैंपुंलिग-राया, गिरि, सिहरी, विण्हू, दुमो। स्त्रीलिंग- माला, सिरी, लच्छी, जंबू, बहू । नपुंसकलिंग--धन्नं, अत्थिं, पील, महुं : प्रज्ञापना में लिंग-विषयक निर्देश अनुयोगद्वार से अधिक विशद मिलते हैं पुंलिंग-मणुस्से, महिसे, आसे, हत्थी, सीहे, बाघे, वगे, दीविए, अच्छे, तरच्छे, परस्सरे, सियाले, विराले, सुणए, कोलमुणए, कोक्कतिए, ससए, चित्तए, चिल्ललए।" स्त्रीलिंग-मणुस्सी, महिसी, बलवा, हस्थिणिया, सीही, वग्घी, वगी दीविया, अच्छी, तरच्छी, परस्सरा, सियाली, विराली, सुणिया, कोलसुणिया, कोक्कतिया, ससिया, चितिया, चिल्ललिया । ५ नपुंसकलिंग-कम, कसोयं, परिमंडलं, सेलं, थमं, जालं, थालं, तारं, रूवं, अच्छिं, पव्वं, कुंड, पउमं, दुद्धं, दहि, णवणीयं, आसणं, हयणं, भवणं, विमाणं, छत्तं, चामर, भिंगारं, अंगणं, निरंगणं आभरणं, रयणं । 'पुढवी' यह स्त्रीलिंग है । 'आउ' यह पुल्लिग है । 'धणं' यह नपुंसकलिंग है।" प्राकृत में लिंग का विधान इतना नियंत्रित नहीं है जितना संस्कृत में हैं । 'आउ' तुमसी प्रज्ञा Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संस्कृत रूप 'अप्' होता है । संस्कृत में यह स्त्रीलिंग वाची शब्द है और प्राकृत में पुल्लिगवाची । प्राकृत का प्रसिद्ध सूत्र है--लिंगमतन्त्रम् ।' प्रज्ञापना में सोलह प्रकार के वचनों में एकवचन द्विवचन और बहुवचन-इन तीनों का निर्देश है ।" यह निर्देश संस्कृत-व्याकरणानुसारी प्रतीत होता है। प्राकृत व्याकरण के संदर्भ में एक वचन और बहुवचन--ये दो ही निर्देश मिलते हैं—मणुस्से, महिसे --यह एकवचन है। मणुस्सा महिसा--- यह बहुवचन है। इस प्रसंग में द्विवचन का उल्लेख नहीं है । द्विवचन को बहुवचन का आदेश' इसलिए करना पड़ा कि उन्होंने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति मान लिया। किन्तु जो आचार्य जनभाषा को प्राकृत की प्रकृति मानते हैं, उनके सामने द्विवचन को बहुवचन का आदेश करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । वर्णमाला प्राकृत भाषा के साथ ब्राह्मी लिपि का घनिष्ठ संबंध रहा है। समवाय सूत्र में उसकी वर्णमाला के ४६ अक्षर बतलाए गए हैं। उनका स्पष्टीकरण वहां प्राप्त नहीं है । वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने संभावित रूप से छियालीस मातृकाक्षरों को जानकारी इस प्रकार दी है"--- ऋ ऋ ल ल-इनका वर्जन कर शेष १२ स्वर । क से म तक व्यंजन (५४५)=२५ अन्तस्थ-य र ल व -४ ऊष्म-श ष स ह ० आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार प्राकृत वर्णमाला के अक्षर ३८ होते हैं । उनके अनुसार प्राकृत में ऋ, ऋ, ल, ल, ऐ, ओ, अ:-ये स्वर तथा ङ, , श, ष,--व्यंजन नहीं होते।" स्ववर्य संयुक्त ङ और न को मान्य किया है। ऐ और ओ को भी मतान्तर के रूप में मान्य किया है ।" मागधी में दन्त्य सकार के स्थान पर तालव्य शकार होता है। इस प्रकार पांच वर्षों के बढ़ जाने पर वर्णमाला के अक्षर ४३ हो जाते हैं । तीन वर्गों के प्रयोग आधुनिक प्राकृतों में नहीं मिलते। पालि व्याकरण में ४१ अक्षर निर्दिष्ट हैं ----अ आ इ ई उ ऊ ए ओ । क ख ग घ ड़ । च छ ज झ ञ । ट ठ ड ढ ण त थ द ध न । प फ ब भ म । य र ल व । स ष ह ल । आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण में ङ और इन दोनों वर्णों को वर्जित माना है, किन्तु पालि व्याकरण में ये दोनों मान्य हैं । सत्यवचन के साथ व्याकरण का संबंध माना गया है। सत्यभाषी को नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित, समास, सन्धि, पद, हेतु, यौगिक, उणादि, क्रिया बर,२२, अंक १ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधान, धातु, स्वर, विभक्ति और वर्ण का बोध होना चाहिए । सत्यवचन इनके बोध से युक्त होता है। इस प्रतिपादन से ज्ञात होता है कि व्याकरण-बोध की अनिवार्यता प्राचीनकाल से मानी गई है। दशवकालिक के आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद इन तीनों शब्दों का अर्थ चूर्णि और टीकाकार तक व्याकरण से संबंधित था। अगस्त्यसिंह स्थविर ने आचारधर और प्रज्ञप्तिधर का अर्थ भाषा के विनयोंनियमों को धारण करने वाला किया है ।" जिनदास महत्तर के अनुसार 'आचारधर' शब्दों के लिंग को जानता है ।५२ टीकाकार ने भी यही अर्थ किया है। प्रज्ञप्तिधर का अर्थ लिंग का विशेष जानकार और दृष्टिवाद के अध्येता का अर्थ प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्णाधिकार, काल, कारक आदि व्याकरण के अंगों को जानने वाला किया है।" ___ उक्त उद्धरण आर्षप्राकृत के प्राचीन व्याकरण की ओर इंगित करते हैं । आर्षप्राकृत के वर्णादेश और शब्द भी आधुनिक प्राकृत व्याकरण से भिन्न है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार दकार को तकार आदेश होता है-मदन=मतन, सदन-सतन, प्रदेश-प्रतेश । किन्तु आर्षप्राकृत में अनेक स्वरों तथा व्यंजनों के स्थान में तकार आदेश मिलता है ... एरावण --- तेरावण (सूत्र कृतांग ११६।२१) मुसावायं. नुसावातं (सूत्र कृतांग ११९।१०) साहुकं ---- साहुतं (सूत्र कृतांग ॥१॥३३) विसएसणं-विसतेसणं (सूत्र कृतांग १।११।२८) ओरभिए--तोरभिए (सूत्र कृतांग २।२।१९) काय .. कात (सूत्र कृतांग २।२।४) समए- समते (सूत्र कृतांग २।२।१६) रुईणं-रुतीणं (सूत्र कृतांग २।२।१८) द्वित्वादेश आर्ष-प्रयोगों में कुछ द्वित्वादेश ऐसे हैं, जो प्राकृत व्याकरणों से सिद्ध नहीं होते---सच्चित्त सचित्त, अच्चित्त-अचित्त, सगडब्भि-स्वकृतभिद्, तहक्कार=तथाकार,कायग्गिरा=कायगिरा, पुरिसक्कार-पुरुषकार, अणुब्वस=अनुवश,अल्लीण= आलीन । ह्रस्वादेश प्राकृत व्याकरण के अनुसार संयुक्त वर्ण से पूर्व दीर्घ वर्ण ह्रस्व हो जाता है। किन्तु आर्ष प्राकृत में यह नियम लागू नहीं होता । प्राचीन आदर्शों में कुछ रूप आज भी सुरक्षित हैं, जिनमें संयुक्त वर्ण से पूर्व उपलब्ध है ओग्गह उग्गह-अवग्रह पोग्गल पुग्गल-पुद्गल तुलसी प्रज्ञा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्क→इक्क+एक एत्तो-→इत्तो+इतः आगम सूत्रों की मूलभाषा अर्धमागधी रही है। देवद्धिगणी ने आगमों का नया संस्करण वल्लभी में किया था। महाराष्ट्र में जैन श्रमणों का विहार होने लगा। उस स्थिति में आगमसूत्रों की अर्धमागधी भाषा महाराष्ट्री से प्रभावित हो गई। आचार्य हेमचन्द्र का विहार-स्थल भी मुख्यतः गुजरात था । वह महाराष्ट्र का समीपवर्ती प्रदेश है । उन्होंने महाराष्ट्री के प्रचलित प्रयोगों को अपने प्राकृत व्याकरण में प्रमुख स्थान दिया। अर्धमागधी के उन प्राचीन रूपों, जो उस समय तक आगमों में सुरक्षित थे, को आर्ष प्रयोग के रूप में उल्लिखित किया। मूलतः प्राचीन आगम-सूत्रों (आयारो, सूयगड, उत्तरज्झयणाणि आदि) की भाषा महाराष्ट्रीय नहीं थी, किन्तु उत्तरकालीन आगमों तथा उनके व्याख्याग्रंथों की भाषा महाराष्ट्री हो गई। सभी जैन आगमों की भाषा न अर्धमागधी है और न महाराष्ट्री और आर्ष प्राकृत का अध्ययन करते समय यह तथ्य विस्मृत नहीं होना चाहिए । संदर्भ १. हेमशब्दानुशासन, ८।११३ : आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते । २. हेमशब्दानुशासन, ८।११७९ : आष अन्यत्रापि । पच्छेकम्मं । असहेज्ज देवासुरी । ३. हेमशब्दानुशाशन, ८।१।१७७ : आर्षे अन्यदपि दृश्यते । आकुञ्चनं आउण्टणं । अत्र चस्य टत्वम् । ४. हेमशब्दानुशासन, ८।१।२४५ : आर्षे लोपोपि । यथाख्यातम्-अहक्खायं । यथाजा तम् ---अहाजायं ॥ ५. हेमशब्दानुशासन, ८।११२५४ : आर्षे दुवालसंगे इत्याद्यपि । ६. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१७ : आर्षे इक्खू, खीरं, सारिक्खमित्यापि दृश्यन्ते । ७. हेमशब्दानुशासन, ८।२।३ : क्ष, खः क्वचित्तु छझो। ८. हेमशब्दानुशासन, ८।२।२१ : आर्षे तथ्ये चोपि-- तच्च । ९. हेमशब्दानुशासन, ८।२।९६ : आर्षे श्मशानशब्दस्य सीआणं सुसाणमित्यपि भवति । १०. हेमशब्दानुशासन, ८।२।९८ : आर्षे पडिसोओ निस्सोअसिआ । ११. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१०१ : आर्षे सूक्ष्मेऽपि, सुहमं । १२. हेमशब्दानुशासन, ८।२।११३ : आर्षे सूक्ष्मम्, सुहमं । १३. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१०४ : किरिआ, आर्षे तु हयं नाणं कियाहीणं । १४. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१२० : आर्षे हरए महपुण्डरिए । १५. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१४६ : कट्ट इति तु आर्षे । १६. हेमशब्दानुशासन, ८।२।१७४ : आर्षे तु यथादर्शनं सर्वमविरुद्धम् । १७. (क) हेमशब्दानुशासन, ८।३।१३७ : आर्षे तृतीयापि दृश्यते । "प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते । (ख) हेमशब्दानुशासन, ८।३।१६२ : आर्षे देविन्दो इणमब्बवी इत्यादी सिद्धावस्था श्रयणात् हास्तन्या: प्रयोगः । खन्न २२, मंक १ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. हेमशब्दानुशासन, ८।४।२८३ : आर्षे वाक्यालंकारेपि दृश्यते । १९. दशवकालिक, हारिभद्रीया वृत्ति, पत्र ८६ अनुस्वारोऽलाक्षणिकः। मुखसुखोच्चार णार्थः । २०. हेमशब्दानुशासन, ८।१।१७७ : क-ग-च-ज-त-द प-य-वां प्रायो लुक् । २१. हेमशब्दानुशासन, ८।१।२३१ : पोवः । २२. हेमशब्दानुशासन, ८.११२३१ : वृत्ति-एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपविकारयोर्यस्मिन् कृते भूतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः ।। २३. दशवकालिक, हारिभद्रीया, वृत्ति पत्र १९ : सामयिकत्वात् गोरिव चरणं गोचरः अन्यथा गोचारः। २४. पिण्डनियुक्ति, गाथा १, वृत्ति-सूत्रे च विभक्तिलोप आर्षत्वात् । २५. निशीथभाष्य, गाथा ३६१८ : पोराण मद्धमागहभासाणिययं हवति सुत्तं ॥ चूर्णि-तित्थयरभासितो जस्सऽत्थोगंधो य गणधरणिबद्धो तं पोराणं । अहवा-पाययबद्धं पोराणं, मगहऽद्धविसयभासणिबद्धं अद्धमगहं।। भधवा-अट्ठारसदेसीभाखाणियतं अद्धमागधं भवति सुत्तं । २६. डा० पिशल-प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ० २५,२६ ।। २७. अनुयोगद्वार चूणि पृ० ४७ : वित्थरो सिं सद्दपाहुडातो णायव्वो पुव्वणिग्गतेसु वा ____ वागरणादिसु। २८. ठाणं, १०।९६ २९. विशेष विवरण के लिए देखें (१) दशवकालिक : एक समीक्षात्मक अध्ययन, व्याकरण-विमर्श । (२) उत्तराध्ययन : एक समीक्षात्मक अध्ययन, व्याकरण-विमर्श । ३०. अनुयोगद्वार, मलयधारीया वृत्ति पत्र १२३ : वृद्धवैयाकरण दर्शनेन चेयष्टमी गण्यते, एदंयुपीनानां त्वसौ प्रथमवेति मन्तव्यमिति । ३१. देखें - डा० पिशल, प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृ. ८,९ टिप्पण । ३२. अणुओगद्दाराई, सूत्र २६४ । ३३. पण्णवणा पद ११ । ३४. पण्णवणा पद ११, सूत्र २१ । ३५. पण्णवणा पद ११, सूत्र २३ । ३६. पण्णवणा पद ११, सूत्र २४ । ३७. पण्णवणा पद ११, सूत्र २६ । ३८. पण्णवणा १११८६ । ३९. पण्णवणा १११२१ । ४०. पण्णवणा १०२२ । ४१. हेमशब्दानुशासन, ८।३।१३० : द्विवचनस्य, बहुवचनम । ४२. हेमशब्दानुशासन, ८।१।१ : प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत्र आगतं वा प्राकृतम् । ४३. वृहत्कल्प भाष्य ११२, मलयगिरि वृत्ति-प्रकृती भवं प्राकृतं स्वभावसिद्धमित्यर्थः । तुमसी प्रमा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. समवाय , ४६२ ४५. समवायांगवृत्ति, पत्र ६५ ४६. हेमशब्दानुशासन, ८१११ ४७. हेमशब्दानुशासन, ८८१ : ङनो स्ववर्यसंयुक्तो भवत एव । एदौतौ च केषांचित् कैतवम् कैअवं, सौन्दर्यम्, सौअरिसं, कौरवाः । ४८. हेमशब्दानुशासन, ८.४१२८८ मागध्यां रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासख्यं लकारस्तालव्यशकारश्च भवति ।। ४९. कच्चायन व्याकरणं १।१०२ : अक्खरापादयो एकचत्तालीसं । ५०. पण्हायागरणाई ७।१४ : नामक्खाय-निवाओवसग्ग-तद्धिय-समास-संधि-पद-हेर जोणिय-उणानि-किरियाविहाण-धातु-सर-विभत्तिवण्णजुत्तं । ५१. दशवकालिक ८।४९, अगस्त्यसिंह स्थविर चूणि : वयणनियमणमायारो । “आयार धरो भासेज्जा तेसु विणीतभासाविणओ, विसेसेण पन्नत्तिधरो' "एतं वयणलिंगवण्ण_ विवज्जासे ण अवधसे। ५२. दशवकालिक ८।४९, जिनदासमहत्तर चूणि, पृ० २८९-आयारधरो इत्थीपुरिसण्ण पुंसलिंगाणि जाणइ । ५३. दशवकालिक, हारिभद्रीय टीका पत्र २३६ : आचारधरः स्त्रीलिंगादीनि जानाति, प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवं भूतम् । तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपा गमवर्णविकारकालकारकादिवेदिनम् ।। ५४. हेमशब्दानुशासन, ८।४।३८४ तदोस्तः । ५५. हेमशब्दानुशासन, ८.१८४ : ह्रस्वः संयोगे । खण्ड २२, मंक १ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक क्रियापद : एक विवेचन सुबोध कुमार नन्द संस्कृत भाषा की प्रमुख दो धाराओं-वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में एक मौलिकता होते हुए भी दोनों के शन्दगठन, वाक्यसंयोजन आदि में भन्तर दिखाई पड़ता है। यह अन्तर साधारणतः परम्परागत शाकल, आत्रेय, शाकटायन, यास्क, पाणिनि, पतञ्जलि आदि भारतीय विद्वानों की विचारधारा तथा बिनो, ओलउमवर्ग, ह्वाकरनगेल, ग्रासमैन, मैकडोनल, रनु, टोफमैन् प्रभृति ऊनविंश शताब्दी के प्रारम्भ में प्रचलित पश्चिमों की नई दृष्टि के कारण ही अधिक स्पष्ट हुआ है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मुख्यतः कृ धातु से निष्पन्न पदों पर तुलनात्मक चर्चा होगी। क्रिया, किसी भी भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंग होती है। क्रिया भाषा की धुरी है। इसके बिना वाक्य अधूरा तो रहता ही है उसके साथ-साथ पाठकों के लिए वाक्यार्थ बोध भी दुलह हो जाता है। क्रियापद या आख्यातपद में मुख्यत: भाव की प्रधानता रहती है : भावप्रधानमाख्यातम् (नि. १.१)। संस्कृत-साहित्य में क्रिया की भूमिका सर्वदैव गुरुत्वपूर्ण है । क्योंकि संस्कृत में अधिकांश शब्द किसी न किसी प्रकार क्रिया के साथ जुड़े हुए हैं। क्रिया या क्रियापद केवल वाक्य संरचना का मुख्य आधार नहीं होते हैं अपितु यदि वैदिक और लौकिक संस्कृत का सूक्ष्मतया अध्ययन किया जाए तो देशभेद से भाषा का अन्तर या भाषा-विकास में इनका गुरुत्व उपलब्ध किया जा सकता है। आचार्य पतञ्जलि शव् (१.७२५ प) गती धातु के प्रयोग पर कहते हैं "शवति गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति । विकारएनमार्या भाषन्ते शव इति ॥" अर्थात् शिव धातु कम्बोज देश में गति के अर्थ में प्रयोग होता है किन्तु आर्य लोग इसका विकार मृतशरीर (शव) के अर्थ में' व्यवहार करते हैं। महाभाष्यकार का यह कथन यास्क (नि. २.२) वचन का पुनर्विश्लेषण मात्र है। वी.ए. स्मिथ एवं चालर्स इलियट के अनुसार प्राचीन कम्बोज देश तिब्बत या हिन्दुकुश प्रदेश के अन्तर्गत में था और वहां की भाषा ईरानी थी। गोयर्सन पतञ्जलि के कथन के आधार पर कम्बोज देश को उत्तर-पश्चिम भारत का एक जनपद मानते हैं। तदनुसार ये लोग जनजाति थे और ये संस्कृत-ईरानी मिश्र एक भाषा का व्यवहार करते थे अथवा बण्ड २२, अंक १ १३ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनकी बोलियों में इन्दो-आर्यान् तथा ईरानी भाषा का प्रभाव था। उनका मानना है कि 'शवति' वास्तव में एक संस्कृत क्रियापद नहीं बल्कि यह एक ईरानीय भाषा का क्रियापद है : Savati does not occur in sanskrit, but it is a good Eranian word. There is the old persian Siyav-i and the Avesta v Sav. Savaite to go if persian Sudam, Skt. cyav. In their words Kambajos. a barbairous tribe of North-western India cither Spoke Sanskrit with an infusion of Eranian words to which. They gave Indian inblexions, or else spoke a language partly Indo-Aryan and partlyEranian' (The language of the Kambojas). देशभेद के कारण उपर्युक्त धातु जिस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रदेश में पृथक्-पृथक् रूप में प्रयुक्त होता था वैसे ही सम्भवतः इस निबन्ध में विचार्य कृ का असामञ्जस्य रूप देश और काल के कारण ही अलग प्रतीत होता है। २. वैदिक संस्कृत में कू से निष्पन्न कृणु/कुरु अंग की स्थिति धातुपाठ के अनुसार स्वादि और तनादि गण में कृ धातु पढ़ा गया है । स्वादिगणीय कृ (५.१२५३.३) हिंसा तथा तनादिगणीय कृ (डुकृत्र ८.१४७२.३) करना अर्थ में प्रयोग होते हैं। वेद में स्वादिगणीय कृ का जितने वार प्रयोग हुआ है। तदनुरूप तनादिगणीय कृ का नहीं हुआ है। ऋग्वेद में कृणु अंग से बने क्रियापदों का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है । इस वेद के दशम मण्डल में कुरु/करो अंग से बने कुर्म ऋ १०.५१.७ और कुरु ऋ १०.३२.९, ३३.४ दो पद पाए जाते हैं। लेकिन अथर्ववेद (अ. वे.) में इसकी संख्या में वृद्धि हुई है। ____ मैकडोनल के अनुसार अ. वे. में कृणु से बने रूप कुरु/करो से बने क्रियापदों की अपेक्षा छः गुना अधिक है : "But the froms made from Kong are still six times as common in the A.V. as those from karo, kuru, which are the only seems used in Brahmana."" वास्तव में अ.वे. (शौनक, पप्पलाद) में कृणु से बने रूप कुरु/करो से बने रूपों की अपेक्षा दसगुना अधिक, मैंने इस वेद के पैप्पलाद (प) और शौनक (शौ) शाखा में कृणु अङ्ग से बने लगभग ७७५ (पं. ४००, शौ. ३७५) से कुछ अधिक रूप देखे हैं और कुरु/करो अङ्ग से लगभग ७५ पद पाये जाते हैं। जिनका अनुपात दस है। इस प्रकार ब्राह्मण और भारण्यक में स्वादि । कृ (कुरु/करो) धातु का प्रयोग ब्राह्मण और आरण्यक में अपेक्षाकृत अधिक हो गया है एवं उपनिषदों में इसका व्यवहार और भी घट गया है परन्तु कृ (कुरु/करो) धातु का प्रयोग ब्राह्मण और आरण्यक में अधिक हो गया है। स्वादि अङ्ग से बने हुए क्रियापद ब्राह्मण, आरण्यक में लगभग २० बार प्रयुक्त हुए हैं जबकि करो/कुरु अङ्ग से बने रूपों की संख्या १२५० से अधिक है । उपनिषदों में कृणु अङ्ग से बने पदों की संख्या मात्र आठ है और कुरु/करो १२५ से अधिक होते हैं। तुलसी प्रमा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस धातु के समान ऐसे अनेक पद/क्रिया होंगे जिनका प्रयोग या तो लौकिक संस्कृत में अथवा वैदिक संस्कृत में हुआ है और यही भाषा की गतिशीलता है । ३. 1 क के पद निर्वचन में प्राच्य-पाश्चात्यों में मतान्तर ऋग्वेद में कृ धातु का प्रयोग बहुवार उपलब्ध होता है । इस धातु के पदों के साधन में उभय प्राच्य-पाश्चात्य विद्वानों में अनेक मतान्तर लक्ष्य किये गये हैं। उदाहरणार्थ इसके कुछ पदों का निर्वचन करने से पहले यह ध्यान देना उचित होगा कि वैदिक भाषा में उपलब्ध क्रियापदों का साधन के लिये भारतीय वैयाकरणों ने लङदि दस लकार स्वीकार किये हैं जिनमें लट्, लिट्, लङ, लुङ्, लुट्, लङ, लट् सातकालवाचक लकार होते हैं और शेष इच्छा, प्रार्थना आदि अर्थ में प्रयुक्त किये जाते हैं। पाश्चात्य वैयाकरण भारतीय विचारों का पूर्ण अनुसरण न कर समस्त दस लकारों को कालवाचक (Tenses) और क्रियाप्रकार वाचक (Moods) के भेद के दो कोटियों में रखते हैं। वे भारतीय वैयाकरणों के सात कालवाचक लकारों के साथ-साथ अतिलिट् (Pluperfect) नामक एक कालवाची लकार भी मानते हैं तथा भारतीय इच्छा, प्रार्थना, विधि आदि अर्थबोधक लकारों को क्रियाप्रकार वाचक के रूप में गिनने के साथ-साथ विधिमूलक (Injunctive, भारतीय अडागम रहित लङ्, लुङ) नामक एक अधिक क्रियाप्रकार भी स्वीकार करते हैं। आधुनिक विद्वानों ने धातुओं के पश्चात् विकरण लगने से जो अङ्ग बनते हैं उन अङ्गों को चार वर्गों में विभक्त किया है और चार कालवाचक लकारों के अङ्गों के आधार पर कालवाचक लकारों को लङ् वर्ग (Present system), लिड वर्ग (Perfect system), लुङ वर्ग (Aorist system) तथा लुङ, (Future system) इन चार वर्ग में विभाजित किए हैं। उनके अनुसार प्रत्येक वर्ग के अंग से केवल कालवाचक क्रियापद नहीं बनते हैं अपितु लेट, लोट् विधिलिङ आदि क्रियाप्रकार रूपों के साथ-साथ शतलादि शब्द भी बनते हैं । अब VF धातु के कुछ पदों के निर्वचन पर दोनों प्रकार के विद्वानों के विचारों को निम्न प्रकार में देखा जा सकता है:३. (क) कृणवन्ते वना न कृणवन्त ऊर्धा (यज्ञों को वृक्षों के समान उठाओ) ऋ १.८८.३ में प्रयुक्त इस पद को सायण कृवि (१.५९८ ५) हिंसाकरणयोश्च (द्र. इस धातु पर मन्तव्य आगे द्रष्टव्य) का लट् लकार का रूप मानते हैं : "लटि व्यत्ययेन आत्मने पदम् । धिन्विकृण्व्योरच पा. ३.१.८० इति उ प्रत्ययः। पुनरपि व्यत्ययेन अन्तादेशः। छन्दस्युभयथा इति आर्धधातुकत्वेन डस्य अङित्वात् गुणे अवादेशः" परस्मैपदी कृिवि (१.५९८ प) धातु को व्यत्ययो बहुलम् से आत्मनेपद मानने से कृवि+लट्, कृ नुम्+व+म-इदितो नुम्धातोः पा. ७.१.५८ कृण्व+झरषाभ्यां णो नः समाने पदे पा. ८.४.१ कृण्व+अन्त-झोऽन्त पा. ७.१.३ अवस्था में कृित् धातु भ्वादिगणीय हेतु 'शप्' विकरण पा. ३.१.६८ प्राप्त था, पर धिन्वि""पा. ३.१.८० से अपवाद के रूप में 'उ' कार तथा वकार को अकार आदेश कृण अउ+अन्त, छन्दस्युभयथा पा. ३.४.११७ से आर्धधातुक संज्ञा, अतोलोपः पा ७.४.४८ सूत्र से प्रकार का लोप (कृण+उ+अन्त) सार्वधातुकार्धधातुकयोः पा. बड २२, अंक Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकार का रूप मानते ७.३.८४ से गुण कृणो+अन्त तथा अवादेश पा. ६.१.७८ कर इसका निर्वचन होता है । सायण कृणवः ऋ १.५४.५ (√ कृवि लेटि सिपि अड़ागमः । ), कृणवते ऋ ४.२.८ (√ कृवि लेटि धिन्विकृ| लेटोsडाटी इत्यड़ागमः ) कृणवसे ॠ ६. १६.१७, कृणवावहै ऋ १०.९५.१ और कृणवत् अ. वे. ३.१.१ (√ कृवि अस्मात् लिङथें लेटि अड़ागमः धिन्वि'' इति 'उ' प्रत्ययः । तत् सन्नियोगेन अकारोन्तादेशः । तस्य स्थानिवद् भावात् लघूपध्यगुणाभावः) प्रभृति पदों को / कृवि धातु के लेट् हैं । जबकि आलोच्य पद इस धातु के लट् लकार का रूप होता है । किन्तु अ.वे. भाष्यकार इस धातु के 'कृणवत्' पद को लिङर्थक लेट बतलाते हैं । यहां लक्षणीय है कि नागेश ने (पा. ८.१.३० ) महाभाष्य के उद्योत टीका में इसे केवल लेट् का रूप कहा है । महाभाष्य में इसको लेकर पाठान्तर पाया जाता है यथा निर्णयसागर प्रेस के संस्करण में 'कृणात्' पाठ है जबकि रोहतक (१९६१) संस्करण में 'कृणवन्' पाठ मिलता है। तदनुसार प्रदीप टोका में भी दोनों संस्करणों में क्रमशः कृणात् और 'कृणवत्' पाठ मिलता है । मैकडोनल (१९१०,४१७) ५ प्रमृति आधुनिक विद्वान् उपर्युक्त सभी पदों को स्वादिगण के वर्तमानकालिक लेट् लकार के रूप में गिनते हैं । इनमें कृणवन्ते को छोड़ कर अन्यत्र लकार ग्रहण में मर्तक्य तो है पर धातुग्रहण में उभय प्राच्य-पाश्चात्यों ने पृथक - मतों का पोषण किया है । भारतीय वैयाकरण इन सभी पदों को / कृवि हिंसाकरणयोश्च से साधन करते हैं raft आधुनिक वेदविदों ने स्वादि / कृ करना से इनका स्वरूप दिखाने का सार्थक प्रयास किया है | अर्थंगत कारण से दोनों का विचार प्रायः समान है । रूप-रचनार्थं भारतीयों के कृवि और पाश्चात्यों के √ कृ करना में से / कृ का ग्रहण कर उपर्युक्त सभी पदों का गठन सरलरूप में हो सकता है । उदाहरणार्थ 'कृणवः' का निर्वचन देखा जा सकता है यथा अतः √ कृ + लेट्, कृ + सिप्स, कृ + श्नुतु + सि स् = इतश्चः पा. ३.४.९७ कृ+नु+अट्+अ+ स् ( पा. ३. ४९४ ) इसी अवस्था में पूर्ववत् णत्व गुण, अवादेश तथा सकार को रुत्व विसर्ग कर कृणवः होता है दोनों में जो अन्तर है वह कृणवः, कृणवन्त के साधन से स्पष्ट हो जाता है । √ कृ कृणवः आदि का गठन सीधे रूप से हो जाने के कारण / कृ धातु का करना अधिक तर्क संगत होगा । कृणवन्ते पद को सायण ने लट् लकार का रूप माना है । परन्तु कुणवते, कृणवत् आदि प्रथमान्त पद लेटलकार में बनता है । इसलिए कुणवन्ते भी लेट का एक रूप हो सकता है । ग्रहण यह लक्षणीय है कि संहिता पाठ में 'कृणवन्त' और पदपाठ में गुणवन्ते ( सन्धि नियम हेतु) मिलता है । पाश्चात्य विद्वान् संहिता पाठ ग्रहण कर इसका निर्वचन करते हैं जबकि सायणादि भाष्यकार पदपाठ के अनुसार इसका समाधान किए हैं। यही ग्रहणीय है । ऊपर में दर्शाए गए सभी पदों को स्वादि के लङ्ङ्घर्ग के लेट के रूप में ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि स्वादि तथा तनादि में अन्तर साधारणतया लङादि तुलसी प्रशा १६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार लिवर्ग वर्तमानकालिक (Present system) क्रियापदों के गाठनिक स्वरूप में दिखाई पड़ता है । परन्तु भारतीय लिट् एवं लुङ्लकार अथवा आधुनिक विचार के या लुङ्वर्ग में दोनों गणों के पदों में अन्तर दिखलाना सम्भव नहीं है क्योंकि इन दोनों में शवादि विकरण का अन्तर नहीं पड़ता है। इसीलिए ऋग्वेद या उत्तरकालीन संहिताओं में / कृका लिङ्वर्गीय पदों के निर्णय में उभय विद्वानों ने एक ही विचार व्यक्त किया है पर लुङ्वर्गीय पदों के विषय में दोनों की विचारधारा अलग लगती है यथा ३. (ख) अकर्त - अकर्तचतुरः पुनः ॠ १.२०.६ इत्यादिनाच्लेर्लुक् । कृ+लुङ्, कृ+झ । (ऋभुयों ने चार चमस बना दिए ) सायणाचार्य ने व्यत्यय से 'झ' के स्थान पर 'त' आदेश करके इसका समाधान करते हुए कहा : "कृञो लुङि झस्य व्यत्ययेन तादेशः । मन्त्रेधसः छन्दस्युभयथा" इति तङि आर्धधातुकत्वात् ङित्वाभावेन गुणः ।' त = व्यत्यय से सुप्तिङ . ( म.भा.) से झ के स्थान में त प्रत्यय लुङि (पा. ३.१.४३), कृ + त = मन्त्रेप्यसङ्खर पा. २.४.८०, लङ' (पा. ६.४.७१ ) से अडागम 'छन्दस्युभयथा' पा. ३.४.११७ से ङित्व अभाव मानकर (द्र. ब्लि आर्धधातुक प्रत्यय होते हैं और तिङ अपित् होने के कारण धातु के ङित्व का अभाव माना गया है) विधान कर अकर्त रूप बनाया कृ : चिल + तच्लि अट्अ कृ + तलुङ स्वर को गुण प्राप्त नहीं होता है । अतः यहां धातु के स्वर को सार्वधातु पा. ७.३.८४ से गुण जाता है । मैकडोनल (१९१०, ४९९), ह्विट्नी (१८८५ पृ २१) यद्यपि सायण समान लुङ - लकार (धातु-लुङ, के साधारण प्रकार Root Aorist Indicative) का रूप मानते हैं तथापि पद ( परस्मैपद, आत्मनेपद ) विभाजन में पृथक् मतों का पोषण करते है । सायण ने आत्मनेपद प्रथम पुरुष बहुवचन के स्थान में व्यत्यय से एक वचन ( प्रथम पुरुष ) मानकर 'छन्दस्युभयथा' के आधार पर गुणादि विधान किया है। आधुनिक विद्वान् इसे परस्मैपद के मध्यम पुरुष बहुवचन का रूप मानते हैं । उनके अनुसार कृ+थ अवस्था में तस्थस्थ''''पा. ३.४.१०१ से थ के स्थान में 'त' आदेश कर पूर्ववत् धातु के स्वर को गुण विधान कर परस्मैपदी रूप की कल्पना हो सकती है। वस्तुत यहां लकार या धातु को लेकर दोनों पण्डितों में मतान्तर नहीं है बल्कि धातुस्वर ( इ उ ऋ ) के गुण विधान को लेकर मतान्तर दिखाई पड़ता है। क्योंकि पाणिनि सूत्र के आधार पर √ कृ ऋकार का गुण विधान नहीं किया जा सकता है। लुङ, में लकार विकरण के रूप में 'चिन' आता है जो कि शप् का अपवादक होता है और च्लि परे रहने के कारण √ कृ के ॠ का गुण नहीं होता है । तदर्थ सायण ने छन्दस्यु (पा. ७.३.७४ से ) / कृ के ऋकार का गुण विधान अ. नियमित रूप है जिसे हिट्नी भी स्वीकार करता है। इसी प्रकार अकर्म ऋ ३.१४.७ का गठन भी अनियमित ( Irregular) रूप से होता है । पर यह ध्यातव्य है कि सायण इसका निर्वचन लङ, लकार में करने का प्रयास करते हैं । पा. ३.४.११७ का प्रयोग कर किया है । वास्तव में यह एक खण्ड २२, अंक १ १७ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. (ग) करत्-"स नो विश्वहा सुक्रतुरादित्यः सुपथा करत्" (वे श्रेष्ठ बुद्धि वाले वरुण हमको सदा सुन्दर मार्ग दें). ___--ऋ १.२५.११ "करोतेलेंटि व्यत्ययेन शप् । शयो लुकि । लेटोऽडाटो इति अड़ागमः इतश्च लोपः ""इति इकार लोपः । यद्वा छान्दसे लुङि कृमृदूहिभ्यः पा. ३.१.५९ इति च्लेः अङ । ऋदृशोऽङि गुणः पा. ७.४.१६ इति गुण: । बहुलं छन्दस्यमाङ योगेऽपि" इति अड़भावः ऋ १.२५.१२ । __ "डुकृन करणे। लडि व्यत्ययेन शप् । यद्वा लेटि अडागमः इतश्च लोपः इति इकार लोपः । यद्वा लुडि "कृमृ...' इति च्लेः अङ्गादेशः । ऋदृशोऽङ्गिगुणः इति गुणः ऋ १.४३.२ उपर्युक्त सायण भाष्य के अनुसार 'करत्' का निर्वचन लेट, लङ् अथवा लुङ् इन तीन लकारों में किया जा सकता है। +लेट→सिप्, कृ+शप्+ति व्यत्यय हेतु 'उ' के स्थान पर शप् । कृ+ति =बहुलं छन्दसि पा. २ ४.७३ से शप् का लोप । कृ+अट्-अ+तिम्लेटोऽडाटो पा. ३.४.९४, क+अ+ति सार्वधातु पा. ३.७.८४, करत्-इतश्च लोपःपा . ३.४.९७ से ति के इकार का लोप होकर करत बनता है। लङ लकार मानने से पूर्ववत् शप, इकार लोप, गुण तथा “बहुलं छन्दस्य ... पा. ६.४.७५" से अडागम का अभाव होकर यह पद बनता है। लुङ् में कृ+लुङ, कृ+ति, कृ+च्लि+ति=पा. ३.१.४३ से चिल। कृ+अङ्-- अ+ति= कृमृदृरुहि""पा. ३.१ ५९ से अङ् कर+अ+ति=ऋदृशोऽङिगुणः पा. ७.४.१६ से धातु के स्वर को गुण, इतश्च पा. ३.४.१०० से इकार का लोप तथा पूर्ववत् अडागम का अभाव कर यह बनता है। मैकडोनल (१९१०, ५०२), हिट्नी (१८७९, पृ ८३, A,B) आदि इस पद को धातु-लुङ् (Root-Aorest) के लेट् लकार का रूप मानते हैं। सायण ने ऊपर उद्धृत दो भाष्यों में इस पद के हेतु तीन अलग-अलग लकार माने है। किन्तु पाश्चात्य वैयाकरणों ने इस पद को द्विलकारीय शैली में दर्शाने का प्रयास किया है। लेट अथवा लङ् लकार के पदों के निर्वचन के समय में सायण ने व्यत्यय से 'शप्' का आगम और अडागम का निषेध कर इसकी प्रक्रिया को दर्शाया है। उनका यह निर्णय कृ→कर करना ही है। मेरे विचार से यहां व्यत्यय ग्रहण आवश्यक नहीं है । क्योंकि पाणिनि के अनुसार लुडः लकार में चिल के स्थान में अडादेश (पा. ३.१.५९) होता है। अङ् हेतु धातु के स्वर (इ उ ऋ) को (पा. ७.४.१६) गुण होकर इसका निर्वचन सम्भव है। पाणिनीय सिद्धान्त के अनुसार अगर इसका विचार किया जाए तो यह भ-लुङ् (a-Aorist) का साधारण रूप होता है । परन्तु यहां यह द्रष्टव्य है कि आधुनिक वैयाकरणों के अनुसार धातु के स्वर का गुण विधान नहीं होता है । क्योंकि अ-लुङ का चरित्र साधारणतया तुदादि लङ के समान होता है (मैक. १९१६, १८ तुलसी प्रज्ञा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ पंक्ति) । प्रस्तुत पद में गुण विधान होने से इसे धातु-लुङ, के लेट् (RootAorist, subjunctive ) में स्वीकार करना उचित होगा । पाणिनि सूत्र के आधार पर अङ (चल) परे केवल ऋवर्णान्त तथा √दृश् धातु का ही गुण होता है जिसे आधुनिक विद्वान् भी मानते हैं । मैकडोनल (१९१०, ५०७ A) के अनुसार अ. वे. में प्रयुक्त अकरत्, अगमत् केवल अ-लुङ का उदाहरण होते हैं । तदनुसार ये सभी परिवर्तित होकर ( धातु लुङ अङ - लुङ) बनते हैं । वस्तुतः मैकडोनल का यह विचार पूर्णतया पाणिनि सिद्धान्त का अनुरूप है । रचना गत दृष्टि से इसे अ-लुङ के विधिमूलक ( Injunctive ) का रूप भी कहा जा सकता है । वि. मू. में साधारणतः अडागम का अभाव रहता है । यद्यपि इस पद को धातु-लुङ के लेट् अथवा अ-लुङ के वि.मू. में निर्वचन किया जा सकता है तथापि इसमें ज्यादातर लेट् का भाव रहता है । लेट् (धातु-लुङ, लेट्) से बने कुछ पद इस प्रकार है आत्मनेपद में परस्मैपद में करति, करसि, करतः, करथः, करन्ति, करन्, कराणि, कराम । करते, करसे, करामहे, इन सबका विवेचन सायण ने व्यत्यय से ' शप्' विकरण लगाकर किया है। सायण ने 'करताम् ' प्रभृति लोट् लकारान्त पद को पूर्व के समान / कृ धातु में ' शप्' विकरण लगाकर भ्वादि की तरह करने का प्रयास किया हैं । लेट् और लोट् के इन पदों के विषय में प्रायः सभी विद्वान् एक सिद्धान्त में उपनित नहीं हो पाए हैं क्योंकि मैकडोनल (१९१०, ५०९, ५१२) जब इन पदों को धातुलुङ (Root-Aorist ) के लेट् तथा अ-लुङ के लोट् का रूप कहते हैं तभी ह्विट्नी (१८८५ पृ ११ ) के अनुसार ये धातु-लुङ के साधारण प्रकार के रूप होते हैं । ग्रेसमैन ( ३३७) तथा आवेरी ( करताम् २४४ ) इन सबको लङवर्गीय रूप कहते हैं । ग्रेसमैन, आवेरी का विचार भारतीयों के समान है पर हम इनको धातु-लुङ, (Root - Aorist ) का रूप कह सकते हैं । ३. (घ) करवावः / करवाव उत्तमस्य ( पा. ३.४.९८ ) दीक्षित ने सिद्धान्तकौमुदी (सि. को ) में पाणिनीय से सूत्र व्याख्यान के समय इसे उदाहरण के रूप में दर्शाया है । लेट् लकार में वस्, मस के सकार का लोप इस सूत्र के द्वारा विकल्प से होता है । कृ + उ + वस्तनादिकृञ भ्य उ: (पा. ३.१.७९) से 'उ' विकरण, कृ + उ + आ + आ + वस् ( पा. ३.३.९४ ) अवस्था में सार्वधातु (पा. ७.३.८४ ) से गुण रपरत्व ( पा. १.१.५१ ) करु + आ + वस् में विकरण का गुण तथा अवादेश (पा. ६.४.७८ ) कर करवास रहता है । तत् पश्चात् स उत्तमस्य ( पा. ३.४९८ ) से विकल्प से 'स्' का लोपः होकर करवाव / करवावः रूप बनता है । तनादिगणीय / कृ धातु के परस्मैपद का यह रूप वैदिक साहित्य के किस ग्रन्थ में प्रयुक्त हुआ है यह कहना अब तक सम्भव नहीं हो पाया है (द्र सि. को कार ने काशिका से इसको उद्धृत किया है ) । तदर्थं पाश्चात्य वैयाकरणों ने इस पर कुछ विचार नहीं किया है। कृ धातु के करवाणि (छा. ३.६.३.३ ) और करवावहै, वं. श्री. ८,१९.१२ ... खण्ड २२, अंक १ १९ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा जै. उ. १.१६.१ में पाया जाता है। भारतीय विचार के अनुसार ये दोनों लोट् लकार के हैं । इन विद्वानों के द्वारा स्वीकृत लोट् के उत्तम पुरुष के पदों को आधुनिक वैयाकरण लेट् के उत्तम पुरुष में गिनते हैं। तदर्थ उनके अनुसार ये पद लेट का रूप होते हैं। यहां करवाणि और करवाव है पद के लकार के आधार पर करवाव को भारतीय लोट् का रूप और पाश्चात्य विचारों के आधार पर इन तीनों पदों को लङवर्गीय लेट् (Presenr subjunctive) का रूप कहा जा सकता है । ४. कृ धातु का गण विवेचन उपर्युक्त कतिपय पद साधन से यह देखा जाता है कि लकार ग्रहण में उभय पूर्व और पश्चिम विद्वानों में विशेष मतान्तर नहीं है, पर धातु ग्रहण में असमता दिखाई पड़ती है। __धातुपाठ में कृत्र हिंसायाम् (५.१२५३.३) स्वादि गण के लिए और डिक्रन करणे (८.१४७२.३) तनादिगण के लिए पढ़ा गया है। इन दोनों के अलावा भ्वादिगण में कृविहिंसाकरणयोश्च (१.५९८.४) धातु भी पाया जाता है जिससे स्वादि के परस्मैपद के समान कृणु अङ्ग बनकर कृणोति, कृणुतः आदि क्रियापद बनते हैं। यहां लक्षणीय है कि स्वादि और तनादिगणीय धातु के साथ भ्वादिगणीय कृवि-कृण्व् धातु गत्यर्थ में भी प्रयुक्त होता है। इस धातु के ग्रहण में भारतीय वैयाकरणों में अनेक मतभेद हैं । धातु तीन होते हुए भी इनके दो प्रकार के क्रियापद बनने से स्वभावतः एक शङ्का होती है कि क्या आचार्य पाणिनि को यह मान्य था ? संभवतः इसका स्पष्ट समाधान आज तक नहीं हो पाया है। पाणिनीय धातुपाठ में कृवि, कृ (कृज डुकृञ्) को भ्वादि, स्वादि और तनादि में दर्शाया गया है। पर आधुनिक धातुपाठ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से पूर्णतया प्रामाणिक नहीं लगता है। क्योंकि धातुपाठ में पहले धातुओं का केवल सूची था और बाद में इसमें धातुओं का अर्थ संयुक्त किया गया है । दूसरी बात यह भी है कि पाणिनि परवर्ती भारतीय वैयाकरणों को वस्तुतः ये तीन धातुएं स्वीकरणीय हैं या नहीं, इस पर पृथक-पृथक् मतों का पोषण किया गया है-आचार्य सायण अपने 'माधवीयधातुवृत्ति' में कृवि धातु को भ्वादि के साथ-साथ स्वादिगण में भी मानते हैं। शाकटायन, हेमचन्द्र आदि विद्वान् कृवि धातु को केवल स्वादिगणीय धातु के रूप में स्वीकार करते हैं। कातन्त्र व्याकरण के अनुसार यह हिंसार्थक स्वादिगणीय धातु होता है। यहां यह ध्यातव्य है कि धिन्विकृण्व्योर च (पा. ३.१.७९) सूत्र व्याख्यान पर तत्त्वबोधिनीकार वोपदेव का मत स्वीकार कर कहते हैं कि वोपदेव के अनुसार धिवि और कृवि धातु तनादिगणीय है : 'वोपदेवेन त्वनयोस्तनादित्वं स्वीकृतम् ।' वास्तवतः उन्होंने इन धातुओं को स्वादिगणीय माना है : कृविधिव्योः कृधीश्नौ (सूत्र ७५०) जिस प्रकार कृवि धातु ग्रहण में अनेक प्रकार के मत मिलते है उसी प्रकार तनादिकृभ्यः उ: (पा. ३.१.७०) में पाणिनि ने तनादि धातुओं के साथ कृ (कृन ) धातु के लिए 'उ' विकरण किया है और कृ के पृथक् विवेचन को लेकर पतञ्जलि आदि अनेक व्याख्या देते हैं. काशिकाकार का मानना है कि क का पृथक् ग्रहण केवल नियमरक्षा के लिए किया गया है जिससे तनादिभ्यस्तथासोः (पा. २.४.७९) २० तुलसी प्रज्ञा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातु को तनादि अतः स्वभावतः यह द्वारा वैकल्पिक सिच् लुक् नहीं होता है । सि. को में दीक्षित का कहना है कि / कृ का पृथक् ग्रहण गणकार्य अनियमितता का द्योतक है । पतञ्जलि ने √ कृ के अलग् ग्रहण को स्वीकार नहीं किया है। क्षीरस्वामी जैसे विद्वान् तो डुकृञ के साध भ्वादिगणीय धातु के रूप में मानना उचित समझते है । स्पष्ट हो जाता है कि ये तीनों धातु स्वीकार्य हैं या दो यह निर्णय करना कठिन हो जाता है । सम्भवतः पाणिनि से पहले कृवि धातु स्वादि से भ्वादि को परिवर्तित हो गया था अथवा देशभेद के कारण इनका प्रयोग भी अलग होता था और इसीलिए वैयाकरणों में भिन्न-भिन्न मत देखने को मिलते हैं । अथवा इन धातुओं के पृथक् होने का एक और कारण दर्शाया जा सकता है- स्वादि और तनादि के / कृ धातु के कृदन्त ण्वुल् आदि प्रत्ययों का प्रयोग करने से कारकः कृतः आदि रूप बनते हैं । परन्तु यदि स्वादि कृवि में ण्वुल् आदि प्रत्यय लगते हैं तो कृण्वकः, कृण्वितम् आदि रूप बनते हैं ' और इसी काल्पनिक रूप को स्वीकार कर कृवि को एक पृथक् धातु माना जा सकता है । 1 परन्तु वेद, ब्राह्मण, आरण्यक या उपनिषदों में इसके कृदन्त रूप अनुपलब्ध है । हां अ. वे के "यस्त्वा पत्युः प्रतीरूपो जारो भूत्वा निपद्यते । अरायं कृण्वं पाप्मानं तमितो नाशयामसि ।।" पं. ७.११.७ मन्त्र में 'कृण्वम्' पद का प्रयोग हुआ है । यह वास्तव में एक क्रियापद या कृन्दत शब्द है यह विवेचना करना कठिन है । क्योंकि इसमें पाठभेद देखने को मिलता है यथा-ओडिआ पोथोओं में 'कृण्वम् पाठ और काश्मिरीय पोथी में 'कण्वम्' पाठ है जो कि उणादि क्वन् प्रत्ययान्त है । 'कृण्वम्' का समाधान दो प्रकार से सम्भव है यथा कृकृणु इस अवस्था में शकि णमुल् कमुलौ पा. ३.४.१२ सूत्र द्वारा कमुल् अम् प्रत्यय तथा यण् सन्धि कर 'कृण्वम्' या कृवि कृण्व् +कमुल् अम् प्रत्यय से यह कृदन्त रूप बनाया जा सकता है अथवा / कृवि कृण्य् अवस्था में अ-लुङ, (a-Aorist) उत्तम पुरुष एकवचन में (कृण्व् + च्लि अ + मिम् ) इसका गठन भी हो सकता है । वैदिक साहित्य में अम् (तुमुन् अर्थक) प्रत्ययान्त कृदन्त पदों का प्रयोग अनेक बार मिलता है (यथा समिधम्, आरभम्, आरुहम् इत्यादि) । परन्तु इन पदों का प्रयोग साधारणतया उपसर्गों के साथ होता है । इसीलिए इस विषय पर मैंने पैप्पलाद शाखा के सम्पादक तथा अपने गुरुवर आदरणीय डॉ० दीपक भट्टाचार्य के साथ परामर्श किया है । उन्होंने इसको एक सन्दिग्ध रूप बताया है । आचार्य सायण कृणोति, कृणवत् आदि वेद के अधिकतर क्रियापदों का निर्वचन / कृवि से ही करते हैं । पाश्चात्य विद्वान / कृवि धातु को स्वीकार नहीं करते हैं । उनके अनुसार इवि, हिवि, जिवि, पिवि आदि कुछेक इदन्त धातु हैं जो मूलत स्वादिगण के थे और बाद में भ्वादि को परिवर्तित हो गये हैं (द्र. मैकडोनल १९१०, ०२१ A ) । मेरे विचार से आधुनिक विचार ग्रहणीय है । ५. उपसंहार सायण प्रभृति प्राचीन भारतीय वेद भाष्यकारों ने वैदिक क्रियापदों का निर्वचन खंड २२, अंक १ २१ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' के आधार पर एक लकार शैली में दर्शाया है जबकि आधुनिक विद्वान् द्विलकारीय पद्धति का प्रयोग करके इनका विचार, विवेचन करते हैं अर्थात् सायणादि पण्डितों ने एक पद का समाधान माधारणतया लङादि दस लकारों में से किसी एक लकार में करने का प्रयास किया है। परन्तु आधुनिक विद्वान् एक क्रियापद विवेचन दो लकारों में करते हैं जिसमें एक कालवाचक और दूसरा क्रियाप्रकार वाचक को धोतित करता है। वेदों में प्रयुक्त क्रियापदों का स्वरूप तथा उन पर पाश्चात्य अनुचिन्ता को देखकर इतना कहा जा सकता है कि साधारणतया तीनों वर्ग (Present, Perfect, Aorist system) तथा लुङ वर्ग के साधारण क्रियाप्रकारवाची (Future Indective) के पदों में प्रायतः मतान्तर दिखाई नहीं पड़ता है। परन्तु विचारों में असमता लेट, वि.मू. (पाश्चात्य Injunctive, भारतीय अड़ागम रहित लङ /लुङ) तथा अ-लुङ आदि पदों के साधन में मिलती है। त्रयोदश-चतुर्दश शताब्दी से प्रचलित प्राचीन वेद व्याख्यान और ऊनविंश शताब्दी के आधनिक विचार-विवेचन चाहे यह वेदों का गूढार्थ हो या भाषातात्त्विक विश्लेषण हो उसके विवेचन में अन्तर होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है और इसीलिए सायण जैसे भाष्यकार के भाष्य में वैदिक पदों का अधिकतर समाधान व्यत्यय नियम के आधार से ही हुआ है। फिर भी, वेदों के क्रियापदों का गठनात्मक स्वरूप जानने के लिए आधुनिक विचार पद्धति अधिक ग्रहणीय लगती है। संदर्भ : १. महाभाष्य पस्पशा (निर्णयसागर प्रेस-बाम्वे का पुनः मुद्रण) वाराणसी १९८७, पृ० ७१ 2. Early History of India, V. Smith, 4th.ed. 1957, P. 193 3. The Journal of Roval Asiatic Society. Voll-II 1911. p. 801-2 4. Vedic Grammar, for student, macdonell, 1916, P. 145, Ft No-3 5. Vedic Grammar, macdonell, 1910 ६. इसी विषय पर कर्ल होफमैन का Vedishe namen-Kapva Auf satz zur Indoiranistik, Bond-I wiesbaden, 1975 P. 15 भी द्रष्टव्य है। तथा अन्य ग्रन्थ (द्र. प्रबन्ध में मैकडोनल, हिट्नी आदि नाम के पश्चात् जो संकेत है वह उनके द्वारा रचित ग्रंथों का प्रकाशन काल और पंक्ति/पृष्ठ का द्योतक ७. अथर्ववेद, शौनकीय, सं. विश्वबन्धु १९६०-६४ , पप्पलादीय , सं. डॉ० दीपक भट्टाचार्य, यन्त्रस्थ, एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता ८. ऋग्वेद (सायणभाष्य) सं. सोनटक्के, पूना १९३३-५१ ९. महाभाष्य रोहतक १९६१-६४ १०. मुग्धबोधं व्याकरम्, सं. देवेन्द्र सेनगुप्त, बं० सन् १३२३ साल, पृ. ६८८ २२ तुलसी प्रज्ञा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Sanskrit Gramar. W.D. Whitney 1879 11. The Roots verb-forms and Primery Deriratires of the sanskrit ( languase, W.D. Whitney, 1885 १२. Wo'rterbuch zum Rig. Veda. ग्रेसमैन, एच १८७२ १३. veriz-iuflection in sanskrit,J. Avery. १८७५ १४. वैदिक पदानुक्रमणिका-कोश १९४२ (लाहौर)-१९६३ (होशियारपुर) १५. कृदन्त रूपमाला, एस. रामसुब्ब शास्त्री १९६५-७१ एवं मेरा शोध-प्रबन्ध ऋग्वेदीय क्रियापदों के साधन में प्राच्य --- पाश्चात्य मतों का तुलनात्मक अध्ययन, १९९३ डॉ. सुबोधकुमार नंद प्रिंसिपल, बलदेव संस्कृत महाविद्यालय सूर्य-विहार, पलाई देरकुण्डी चंदोल, केन्द्रपाड़ा-७५४ २०८ खण्ड २२, बंक १ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आख्यात एवं धातु का दार्शनिक स्वरूप श्रीमती सरस्वती सिंह संस्कृत का 'धातु' शब्द अपने आप में व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है । संस्कृत में लगभग दो हजार धातुएं उपलब्ध हैं, जिनकी सहायता से शब्दों का निर्माण होता है तथा उन शब्दों का सम्प्रेषण दूसरी भाषाओं में होता है । पाणिनि के पूर्ववर्ती शाकटायन तथा आचार्य यास्क' ने धातु को सभी तरह के प्रातिपदिक शब्दों का मूल माना है । पाश्चात्य भाषा वैज्ञानिकों में प्लेटो तथा जर्मन विद्वान् प्रो हेस' ने भाषा - उत्पत्ति के सिद्धांतों में धातु - सिद्धान्त को स्वीकार कर ४००-५०० धातुओं से भाषा की उत्पत्ति का निर्देशन किया है । अतः कहा जा सकता है कि संस्कृत की धातुएं अन्य भाषाओं के शब्द भण्डार को भरने में भी सहायक सिद्ध हुई हैं । धातु शब्द 'धातु' शब्द धारणार्थक 'धा' धातु से उणादि सूत्र के बना है । इसका शाब्दिक अर्थ है- 'धारण करना ।' यह शब्द किसे धारण करता है ? इसके उत्तर में आचार्य को धारण करने वाले शब्द को 'धातु' कहा जा सकता है। के मत में धातु को सभी प्रकार के शब्दों के अर्थों को धारण इसी आधार पर कुछ विद्वानों ने 'सर्वं धातुजमाह' सभी शब्द ऐसा घोषित कर दिया । 'धातु' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग गोपथ ब्राह्मण' में देखने को मिलता है । ऋग्वेद - प्रातिशाख्य' में भी एक जगह आख्यात के लक्षण में धातु शब्द का उल्लेख हुआ है । कुछ आचार्यों ने धातु शब्द का सीधे कथन न करके आख्यात शब्द के द्वारा उसका कथन किया है । 'आख्यायते सर्वप्रधानीभूतोऽर्थः अनेन इति आख्यातम् अर्थात् जिससे क्रियारूप मुख्य अर्थ का अभिधान होता है उसे 'आख्यात' कहा जाता है । इस व्युत्पत्ति आख्यात शब्द को धातुपरक माना गया । ऐसा मानने का औचित्य यह है कि क्रियारूप मुख्य अर्थ का अभिधायक धातु ही होता है आख्यात नहीं । आख्यात शब्द का क्रियापद के तात्पर्य में भी प्रयोग मिलता है । आचार्य यास्क ने अपने आख्यातः - लक्षण में 'जिसमें' भाव की प्रधानता होती है उसे आख्यात माना है । इन्होंने व्रजति, पचति आदि सम्पूर्ण पद को आख्यात माना है । इसके बाद महर्षि पाणिनि ने अपने गणसूत्र में क्रियापद में ही आख्यात का प्रयोग किया है न कि धातुमात्र में । यदि आख्यात का अर्थ धातु होता तो गोपथ ब्राह्मण में धातु एवं आख्यात खण्ड २२, अंक १ 'तुन्” प्रत्यय के योग से प्रश्न हो सकता है कि धातु यास्क का कहना है कि 'अर्थों इससे स्पष्ट है कि यास्क करने वाला माना गया । उत्पन्न हुए हैं, धातु से २५ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की एक ही जगह पृथक्-पृथक रूप से जिज्ञासा न की जाती। कुछ मीमांसकों एवं नैयायिकों को छोड़कर प्राय: सभी विद्वानों ने आख्यात शब्द का तिङन्त-पद के रूप में प्रयोग किया है। आख्यात शब्द के क्रियापद-व्रजति, पचति में प्रयुक्त होने से उसके लक्षण में धातु एवं प्रत्यय के अर्थ का उल्लेख होना स्वभाविक ही है। इसी आधार पर धातु के अर्थ का संग्रह होने से उसमें धातु-परिभाषा की भी सम्भावना की जा सकती है। ऋग्वेद प्रातिशाख्य' में आख्यात को क्रिया का वाचक बताया गया है। इसमें क्रिया अर्थ धातु का ही है। ऐसा प्रायः सभी पारवर्ती विद्वानों ने माना है । उवट-भाष्य में एक स्थान पर "बक्ता धातुसहित जिस शब्द के द्वारा क्रिया का अभिधान करता है उसे आख्यात कहा गया है।" जैसे ----'पचति' आदि में पच् धातुसहित तिप् के द्वारा क्रिया कही गयी है । यहां क्रिया या व्यापार का वाचक धातु है। इस प्रकार प्रातिशाख्य-ग्रन्थों के आधार पर धातु उसे कहा जाता है, जो क्रिया का वाचक हो। दार्शनिक स्वरूप आख्यात उस मुलतत्त्व का नाम है जो छह भाव विकारों में परिणत होने पर भी नित्य गतिशील बना रहता है। इन सभी में कुछ न कुछ निरन्तरता विद्यमान रहती है । कोई भावदशा एक निश्चित क्षण, दशा या स्थिति पर लागू नहीं होती।" ये भावदशायें गतिशील होती हैं। इसलिए अस्थिर और परिवर्तनशील भी हैं । अतः भाव द्वारा किसी निश्चित और स्थिर स्थिति का बोध न होकर सत्तामात्र की सामान्य परिवर्तन की स्थिति का बोध होता है, अर्थात् क्षणों या घटना-क्रमों की एक श्रृंखला विशेष ही भाव कहलाती है, पदार्थ विशेष के रूप में कोई द्रव्य या वस्तु नहीं। ' आख्यात-सम्बन्धी यास्काचार्य के मत के विषय में टीकाकार श्री दुर्गाचार्य ने दो प्रकार की व्याख्या की है। प्रथम पक्ष के अनुसार आख्यात या क्रिया द्वारा भाव की उत्पत्ति होती है, अर्थात् यदि क्रिया व्यापार हो तो भाव उसका फल है। आख्यात से दोनों का बोध होता है। परन्तु उसका मुख्य अर्थ फल ही है। द्वितीय पक्ष के अनुसार व्यापार तथा फल दोनों ही भाव के अन्तर्गत हैं। इस पक्ष में फल तथा व्यापार धातु के अर्थ हैं तथा प्रत्ययार्थ इसी विशेषता को प्रकट करता है। अत: आख्यात पद्, धातु और तिङ् का समुदाय है इनमें प्रकृत्यर्थ की प्राधानता तथा प्रत्ययार्थ की विशेषता होती है। यही 'भावप्रधानमाख्यातम्' का तात्पर्य है । अतः आख्यात का मूलतत्त्व भाव एक प्रकार की वह ऋमिक परिवर्तनशील दशा है, जिसके 'जायते' इत्यादि विकार होते हैं । आचार्य वाायणि तथा पतञ्जलि भी इसी मत के समर्थक हैं। पाणिनि की धातु-परिभाषा का समुचित विकास महाभाष्य में दिखाई देता है । पतञ्जलि ने 'भूवादयो धातव.' सूत्र भाष्य के प्रसंग में धातु के स्वरूप पर विचार किया है । पतञ्जलि ने आख्यात या क्रिया के विषय में लिखा है कि, "कारकों की प्रवृत्ति-विशेष ही क्रिया है"।१५ प्रवत्ति-विशेष से उनका तात्पर्य व्यापार-विशेष से है । प्रत्येक प्रवृत्ति एक दूसरे से भिन्न होती है। पतञ्जलि के कथन में प्रयुक्त 'कारकाणाम्' पद में बहुवचन का प्रयोग इस बात का द्योतक है कि सभी कारकों की विशेष प्रवृत्ति तुलसी प्रज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रिया में है, क्योंकि कर्म कर्तरि में अन्य कारक भी अपने व्यापार में स्वतंत्र होने के कारण कर्ता बन जाते हैं। उस समय इनकी प्रवृत्ति-विशेष का बोध क्रिया से होता है। 'स्थाली पचति' इस प्रयोग में स्थाली अपनी अधिकरणता का त्याग कर स्वव्यापार में स्वतंत्र होने के कारण कर्ता है । सम्प्रदान, अपादान कारक को छोड़कर अन्य कारक भी कर्ता बन जाते हैं । उन सभी की प्रवृत्ति-विशेष का बोध आख्यात या क्रिया से होता है । अत: 'कारकाणाम्' पद में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रवृत्ति-विशेष का तात्पर्य कारकों का सामान्य-व्यापार है। प्रत्येक आख्यात या क्रियापद धात्वंश, धातु-सामान्य तथा धातु विशेष का बोधक होता है । 'पचति' पद में पच धातु 'धातु-सामान्य' के रूप में फल और व्यापार का बोधक है तथा धातु विशेष के रूप में विविलत्ति और फूत्कारादि का बोध कराती है। इस प्रकार क्रिया का स्वरूप निश्चित करने पर पतञ्जलि द्वारा कथित आख्यात का आधार निश्चय करना समीचीन होगा। उन्होंने आख्यातार्थ के विषय में लिखा है कि आख्यातार्थ में क्रिया की प्रधानता होती है। इसी प्रसंग में पतञ्जलि ने धातु के स्वरूप एवं उसके दार्शनिक आधार की भी विवेचना की है । 'भूवादयोः धातवः' सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में धातु-लक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है कि "क्रियावचनो धातुः" अर्थात् क्रियावाचक को धातु कहते है, सभी धातुओं में 'करना' अर्थ सामान्य रूप से रहता है जैसे किं करोति ? 'पचति' । किं करिष्यति ? पक्ष्यति । इन प्रयोगों में पच्' और 'कृ' धातु का समानाधिकरण्य है । अतः ‘क्रियावचनो धातुः' कहा जा सकता है परन्तु धातु का यह लक्षण अस्ति, भवति, विद्यते आदि में घटित नहीं होता। इसलिए धातु का अन्य लक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है कि "भाववचनो धातुः" इस लक्षण के आधार पर अस्ति, भवति आदि की समस्या का भी समाधान हो जाता है, क्योंकि ये सभी भाववचन अर्थात् 'होना' अर्थ का बोध कराती हैं। पतञ्जलि के मत में क्रिया तथा भाव ब्यापार-सामान्य के वाचक हैं। दोनों पद समानार्थक होते हुए भी पतञ्जलि ने दो लक्षण इसलिए बनाये हैं, क्योंकि धातुओं से प्रकट होने वाला व्यापार 'सपरिस्पन्द' तथा 'अपरिस्पन्द' दो प्रकार का होता है । 'करोति' से समानधिकरण्य वाली धातुयें शारीरिक चेष्टा से युक्त 'सपरिपन्द' व्यापार की बोधक होती हैं। 'भवति' आदि शारीरिक चेष्टा रहित धातुयें 'अपरिस्पन्द' व्यापार की बोधक हैं । प्रथम लक्षण क्रियावचनो धातुः' सपरिस्पन्द व्यापार सामान्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। द्वितीय लक्षण 'भाववचनो धातुः' अपरिस्पन्द एवं सपरिस्पन्द व्यापार सामान्य, दोनों दृष्टियों से उपयुक्त है । पूर्व प्रसंग में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि धातु फल और व्यापार की बोधक है । पतञ्जलि के मत में क्रिया या आख्यात-अनुमानगम्य, अप्रत्यक्ष तथा अखण्ड है। वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने क्रिया के लक्षण 'कारकाणां प्रवृत्ति' से सभी कारकों के व्यापार को धातु का अर्थ नहीं माना। उन्होंने केवल कर्ता एवं कर्म को ही धातु का अर्थ माना। इसमें कर्ता का व्यापार क्रिया तथा कर्म का व्यापार फल होता है । अतः खण्ड २२, अंक १ २७ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके अनुसार धातु का अर्थ फल तथा व्यापार है। भर्तृहरि ने केवल भाव को ही धात्वर्थ नहीं माना, बल्कि क्रिया को भी धात्वर्थ माना है । उन्होंने सत्ता को सर्वव्यापक बताकर सिद्धान्ततः 'सत्ता' को ही धातु का अर्थ बतलाया। उन्होंने तर्क दिया कि भाव के छः विकारों-उत्पन्न होना, अस्तित्व, परिवर्तन होना, बढ़ना, घटना तथा नष्ट होना-आदि भेदों में अन्ततः सत्ता ही अवशिष्ट रह जाती है । शेष सभी नष्ट हो जाते हैं। अतः सत्ता ही वस्तुतः धातु का अर्थ है। इस प्रकार संक्षिप्त रूप में आख्यात पद की दार्शनिक व्याख्या की जाय तो वह इस प्रकार होगी कि आख्यात-क्रियापद, धातु और तिङ् के संयोग से निष्पन्न रूप है। धातु-क्रियापदों की मूल प्रकृति है। फल व्यापार-धातु के अर्थ और तिङ्-क्रियापदों के प्रत्यय हैं। सन्दर्भ १. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च' । निरुक्त-१.१२.२. २. डॉ भोलानाथ तिवारी, भाषा विज्ञान, पृ० २९. ३. उ० सू० १.६९. ४. धातुर्दधातेरिति । निरुक्त १.२०. ५. गोपथ ब्राह्मण, प्रथम प्रपाठक १.२४. ६. तदाख्यातं येन भावं स धातुः । ऋ० प्रा० १.२.१९. ७. वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी, पृ ४१. ८. भाप्रधानमाख्यातम् । निरु० १.१.१. ९. क्रियावाचकमाख्यातम् । ऋ० प्रा० १२.२५. १०. निरु० १.२.८. ११. निरु० १.२.९ १२. निरु० १.१.९ पर दुर्गाचार्य की टीका। १३. षड् भावविकार भवन्तीति वार्ष्यायणिः-जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्द्धते, __ अपक्षीयते, विनश्यतीति । निरु० १.२.८. १४. महाभाष्य १.३.१. १५. कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया । महाभाष्य १.३.१. १६. क्रियाप्रधानमाख्यातम् भवति । महाभाष्य ५.३.६६. १७. भाववचनो धातुः। महाभाष्य १.३.१ १८. महाभाष्य १.३.१ पर उद्योत टीका। १९. महाभाष्य १.३. १ एवं ‘एका हि क्रिया' महाभाष्य १.२.६४. २०. अतो भावविकारेषु सत्तका व्यवतिष्ठते-वाक्यपदीय क्रि० समु २७. --डॉ० (श्रीमती) सरस्वती, सिंह रिसर्च साइन्टिष्ट 'ए' संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी २८ तुलसी प्रज्ञा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अविमारकम्' में प्रयुक्त प्राकृत-अव्ययपदों में ध्वनिविषयक असंगतियां ल कमलेशकुमार छ. चोकसी त्रिवेन्द्रम् नाटक जब से प्रकाश में आये हैं, तब से एक या दूसरे विवाद में फंसे रहे हैं । पक्ष-विपक्ष और समन्वयात्मक तर्क प्रस्तुत करके उन पर विविध समस्याओं के विषय में विचार होता रहा है । इसी परंपरा में इन नाटकों की प्राकृत भाषा के विषय में भी अनेक संशोधनात्मक कार्य हुए हैं । सन् १९१२ में इन त्रिवेन्द्रम् रूपकों का प्रकाशन हुआ। इसके थोड़े ही समय के बाद डॉ० विल्हम प्रिन्ट्स नामक जर्मन विद्वान् ने भास की प्राकृत भाषा को लेकर एक थीसिस लिखा, जो युनिवर्सिटी ऑफ फ्रेंकफर्ट में प्रस्तुत करने पर सन् १९१९ में स्वीकृत किया गया। परन्तु इसका प्रकाशन सन् १९२१ में हुआ । भास की प्राकृत के विषय में सबसे प्रथम संभवतः यही कार्य था। __ इस थीसिस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि त्रिवेन्द्रम् नाटकों की प्राकृतभाषा बिना कोई मिश्रण के है । पर इस थीसिस का रीव्यू करते हुए प्रो० एस० के० सुकथंकर ने उपर्युक्त थीसिस में प्रस्थापित निष्कर्षों को अस्वीकार्य बताया है।' उधर प्रो० लोन्सी ने सन् १९१८ में तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ऐसा निष्कर्ष निकाला कि ये रूपक अश्वघोष के बाद के तथा कालिदास के पूर्व के हैं। तो प्रो० देवधर ने इन रूपकों का अध्ययन करके यह कहा कि इन रूपकों में आर्ष रूप तथा प्रशिष्ट काल खण्ड के रूप एक साथ प्रयुक्त हुए हैं । और ऐसे द्विविध रूप अन्य दक्षिणात्य रूपकों में भी (जैसे कि - मत्तविलास) दिखाई देते हैं । विदेशी विद्वानों के द्वारा जो संशोधन हुए उनका उतना लाभ नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था। क्योंकि ये संशोधन होने पर भी संशोधन ही रह गये । इन अनुसंधाताओं ने अपने निष्कर्षों का त्रिवेन्द्रम् नाटकों का सम्पादन करके प्रकाशन नहीं किया और दूसरे विद्वानों के द्वारा इनके उत्तरवर्ती संस्करणों में उस संशोधन का उपयोग नहीं हो पाया । इधर स्वदेश में इन त्रिवेन्द्रम् नाटकों की प्राकृतभाषा को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रो० देवधर तथा प्रो० रामजी उपाध्याय ने प्रयत्न किये हैं। परन्तु इन संस्करणों में भी कई असंगतियां आज भी दृष्टिगोचर होती हैं। विशेषतः ध्वनि परिवर्तन के विषय में। यहां हमने मात्र भास कृत 'अविमारकम्' को लेकर उसकी प्राकृत के अव्ययपदों में ध्वनिपरिवर्तन विषयक जो असंगतियां मिलती हैं, बड २२, अंक १ २९ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने का विनम्र प्रयास किया है। छ अङ्कों के 'अविमारकम्' नाटक में प्राकृतभाषा का काफी प्रयोग हुआ है । मात्र चौथे तथा छठे अंक को छोड़कर बाकी के अंकों में तो संस्कृत-प्राकृत दोनों समान रूप से प्रयुक्त हैं । यहां प्रकृतभाषा/प्राकृतभाषाओं में अनेक अव्यय पदों में ध्वनिविषयक असंगतियां बार-बार दिखाई देती हैं । तद्यथा-... (१) जैसा कि पिशल महोदय ने लिखा है कि ध्वनिबल की हीनता के प्रभाव से अव्यय (जो अपने से पहले वर्ण को ध्वनि बलयुक्त कर देते हैं, तथा स्वयं बलहीन रहते हैं) बहुधा आरंभ के स्वर का लोप कर देते हैं। जब ये शब्द उक्त अव्ययरूप में नहीं आते तो प्रारंभिक स्वर बना रहता है। इस नियम के अनुसार अनुस्वार के बाद आने पर अपि' का 'पि' रूप हो जाता है और स्वर के बाद यह रूप 'वि' में परिणत हो जाता । यह नियम सभी प्राकृत भाषाओं में समान रूप से लागू होता है। इसके शिलालेख आदि के विविध स्थानों के उदाहरण भी पिशल महोदय ने दिए हैं। इस नियम के परिप्रेक्ष्य में 'अविमारकम्' पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि वहां यह नियम पूरी तरह से स्वीकृत नहीं हुआ है। उदाहरण के तौर पर प्रथम विदूषक की ही उक्तियां लें, तो---- (क) विदूषक-चन्दिए ! चन्दिए ! कहिं कहिं चन्दिआ। हा बञ्चिदो ह्मि । गण्डभेददासीए सीलं जाणन्तो वि अत्तणो भोअण विस्सम्भेण छलिदो लि। (परिक्रम्य) भोअणं वि अलिअं** चिन्तेमि । (अग्रतो विलोक्य) हन्त एसा धावइ ।""जाव अहं वि धावामि । ०। (अंक-२) . विदूषक की उपर्युक्त एक ही उक्ति में तीन स्थानों पर 'अपि' के आदि स्वर 'अ' का लोप हुआ है और अवशिष्ट 'पि' का 'वि' में परिवर्तन हुआ है। परन्तु प्रचलित नियम के अनुसार 'जाणन्तो' इस स्वरान्त पद के बाद आने वाले 'पि' का 'वि' में ध्वनि-परिवर्तन ठीक है; पर 'भोअणं' तथा 'अहं' इन दो व्यंजनान्त पदों के बाद में भी 'वि' ध्वनि ही प्रयुक्त की गई है, जो उचित नहीं लगती। (ख) अब मागधिका के भिन्न-भिन्न दो संवाद देखें। चौथे अंक के प्रारंभ में, प्रवेशक में निम्न संवाद है१. मागधिका-अहो परिजणस्स पमादो। आसुय्योदरं पि ण किदा पासादरअणा""०॥ २. मागधिका-उम्मत्तिए ! णणु पुप्फ वि वासीअदि । यहां दोनों संवादों में अनुस्वार के बाद एक बार 'पि' ध्वनि है, तो दूसरी बार 'वि' ध्वनि है। (ग) इसी प्रकार विभिन्न पात्रों के संवादों में भी विसंगतिया मिलती हैं। जैसे कि१. विलासिनी-तह एव भट्टिदारिआ भट्टिदार विणा खणमत्तं वि ण रमदि । -अंक-४, प्रवेशक तुलसी प्रज्ञा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. हरिणिका-जेदु भट्टिदारिआ । भट्टिदारिए ! भट्टि भणादि-सम्पदि कीदिसी सीसवदेण त्ति । एवं वि ओसधं लिम्पेहि किल ।। अंक-५ इन दोनों स्थानों में व्यंजन के पश्चात् 'वि' ध्वनि मिलती है। जबकि "पि' होना चाहिए था। यहां हरिणिका के संवाद में जो ‘एदं वि' प्रयोग है, उसकी संस्कृत छाया 'एतदपि' की गई है । अविमारक में इसके अतिरिक्त अन्य तीन स्थानों पर 'एदं पि' ऐसा नियमानुसार प्रयोग ही मिलता है; यह ध्यातव्य है । (२) संस्कृत 'अहमपि' की प्राकृत ध्वनियों में भी विसंगतियां हैं। खुद विदूषक अकेला ही कहीं 'अहं पि' बोलता है और कहीं 'अहं वि'। नीचे दिये गये विदूषक के विभिन्न संवादों से यह स्पष्ट प्रतीत होगा। १. विदूषक-भो ! ण जाणन्ति अवस्थाविसेसं इस्सरपुत्ता णाम । 'अहं पि दाव बाह्मणपरिवादं परिहन्तो बह्मणकुलेसु परिभमिअ पच्छण्णो तत्तहोदो आवासं एव्व गच्छामि ।। --अंक-२, प्रवेशक २. विदूषक --- चन्दिए ! चन्दिए ! कहिं कहिं चन्दिआ । ..."जाव अहं वि धावामि ।'।। --अंक-२, प्रवेशक ३. विदूषक-तुमं दाव आमन्तणविप्पलद्धो विअ बह्मणो अहोरक्तं चिन्तेसि । अहं पि दाव दिअसे णअरं परिभमिअ अलद्धभोआ पाअडगणिआ विअ रत्ति पस्सदो सइदं आअच्छामि ॥ -अंक-२ ४. विदूषक-अहो तत्तहोदो सुगहीदणामहेअस्स सोवीरराअस्स अधण्णदा,...॥ कुमारं वा कुमारस्स सरीरं वा पेक्खिस्सामि दाव सव्वलो परिब्भमिअ ।..॥ ----अंक-४ ५. विदूषक--अच्छरीअं अच्छरी । अहं पि दाव अदिस्सो। मम सरीरं अस्थिवा णत्थि वा । उच्छिठें करिस्सं । थु थु॥ -~-अंक-४ ६. विदूषक-भो ! णिच्चपरिचएण मं परिहससि । अपुवो जणो मम बुद्धि अजाणन्तो अहिअदरं पसंसेदि। अहं पि तं जाणिअ एदस्सि णअरे केण वि विस्सम्भं ण करेमि ।। ---अंक-५ ७. विदूषक-कहं रोदिदं आरद्धा। अलं अदिमत्तं सन्दावेण । अहव अहं वि रोदामि । । --अंक-५ __ उपर्युक्त सात स्थानों में से चार स्थानों पर 'अहं पि' का प्रयोग है और तीन स्थानों पर 'अहं वि' का प्रयोग है । इस प्रकार यहां भी स्पष्ट रूप से विसंगति दिखाई देती है। खण्ड २२, अंक १ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) अविमारक में 'किन्तु खलु' इस संस्कृत का प्राकृत रूप विभिन्न रूप में मिलता है। विभिन्न पात्र विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग करते हैं, इसलिए उन-उन पात्रों की ध्वनिगत विसंगतियों के बारे में कोई आश्चर्य नहीं होता। परन्तु एक ही पात्र अमुक अन्तर पर अलग-अलग प्रकार से उच्चारण करें, तो अवश्य ही आश्चर्य होगा। जैसाकि धात्री के संवादों में हम देख सकते हैं। १. धात्री-किण्णु हु भवे ॥ -अंक-२ २. धात्री-अहो अणवत्था किदन्तस्स, जं राअदारिआ पढम महाराएण सोदीरराएण तं विहणुसेणं उद्दिसिअ वरिदा । किणु खु एवं भविस्सदि । -अंक-६, प्रवेशक ३. धात्री---किण्णु खु भवे ॥ __---अंक-६ धात्री के उपर्युक्त तीन संवादों में प्रथम में 'खलु' का प्राकृत 'हु' तथा अन्य में 'खु' है, जो स्पष्ट रूप से ही अव्ययों की प्राकृत ध्वनियों में विसंगति का सूचक है । दूसरे और तीसरे संवाद में अनुस्वार और परसवर्ण रूप विसंगति भी है; पर उससे उच्चारण में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता, अतः उसकी ओर ध्यान देना उचित नहीं समझते । मात्र धात्री के संवादों में ही नहीं नलिनिका के संवादों में भी इसी प्रकार की विसंगति दिखाई देती हैं । देखिए१. नलिनिका -किंणु खु ईदिसो तादिसेहि गुणविसेसेहि अकुलीणो भवे ॥ -अंक-२ २. नलिनिका -एआइणि भट्टिदारि उज्झिअ कहं गमिस्स । ण हुएत्थ की विजणो। ३. नलिनिका-अज्ज किदसङ्केदा विभ'। किण्णु हु एसा मम मादा वसुमित्ताए सह किं वि चिन्तेदि ।""०॥ -अंक-६ नलिनिका की अन्य अनेक उक्तियों में 'खलु' के लिए 'ख' ध्वनि का प्रयोग हुआ है; पर यहां उपर्युक्त दो स्थानों में 'हु' ध्वनि है । ___सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि 'खु' यह प्राचीन रूप है; जबकि 'हु' यह परवर्ती है। तो प्रश्न यह है कि एक ही पात्र की उक्ति में क्वचित् प्राचीन और क्वचित् परवर्ती पाठ कैसे आ गया ? संभव है यह लिपि-दोष से या संपादकों की असावधानी से ऐसा हुआ होगा। (४) इसी परंपरा में आगे देखें तो विदूषक की उक्तियों में सं. 'यदि' के प्राकृत में 'जइ' तथा 'जदि' दो रूप प्रयुक्त हुए हैं। 'जदि' यह शौरसेनी-मागधी में प्रयुक्त होने वाला रूप है और 'जइ' महाराष्ट्री में। इस दृष्टि से देखें तो एक ही विदूषक का पात्र कभी शोरसेनी और कभी महाराष्ट्री भाषा का प्रयोग करता हुआ आश्चर्य तुलसी प्रशा ३२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारक लगता है । जैसे कि १. विषक- -जइ एवं किदो णिच्चओ संपदि णअरं पविसामो । तहि मम अत्थि मित्तो । तस्स आवासे कालं पडिवाला ॥ २. विदूषक - हा हा कहि कहि तत्तभवं । भो वअस्स ! सावेण साविदो सि, जदि अत्ताणं छादेसि ॥ ३. विदूषक - आम भोदि ! जण्णोपवीदेण ब्रह्मणो चीवरेण रत्तपडो । जदि वत्थं अवणेमि समणओ होमि ॥ ४. विदूषक - जइ भोअणं देसि, तदो गच्छामि अहं । इटं आअन्तुस्स भोअणदाणं ॥ इसी प्रकार स्त्री पात्र धात्री के एक स्थान पर तो एक ही संवाद है जैसे संवाद में भी विसंगति दृष्टिगोचर जिसमें दो भिन्न-भिन्न ध्वनियां अंक-४ १. घात्री — अहो सङ्कदा कय्यस्स । जइ एवं करीअदि, राअऊलं दूसिअं होइ । जदि ण करीअदि, अवस्सं सा विवज्जइ । मए अणेएहि उवाएहि विआरिदं च । ॥ - अंक - २ - अंक - ५ — अंक- ५ होती है । मिलती हैं । जबकि निम्न संवाद में 'जदि' रूप ही मिलता है । २. धात्री - जदि सी सन्देहो णत्थि को अण्णो अदिरितगुणो जामादुओ भवे ॥ " अंक - २ इस प्रकार 'यदि' अव्यय के प्राकृत रूप में भी असंगतियां मिलती है। प्रो. देवधर तथा प्रो. रामजी उपाध्याय के संस्करणों में भी ये पूर्वकथित विसंगति वाले रूप मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने भी संशोधन नहीं किया । ( ५ ) इसी तरह संस्कृत 'च' और 'एव' के प्राकृत रूपों के विषय में भी कुछ स्थानों पर विसंगतियां दिखाई पड़ती हैं। यद्यपि इन दोनों अव्ययों के क्रमशः 'अ' अथवा 'च' और 'एव' अथवा 'एव्व' ऐसे दो विभिन्न रूप मान्य होने से विसंगति-दोष माना नहीं जा सकता, तथापि जब एक ही पात्र एक ही उक्ति में दो भिन्न-भिन्न रूपों का प्रयोग करें, तो वह विसंगति ही मानी जानी चाहिए। यहां मात्र एक ही उदाहरण देखेंगे नलिका - सच्चो खु लोभप्पवादो बहुविग्धाणि सुहाणि ति । एसो बु खण्ड २२, अंक १ लिनिका - भणिदं हि मम मादाए - गच्छ एवं वुत्तन्तं भट्टिदारिआए कहेहि । ... अह असा वि मं पेक्खन्ती सव्वं विस्सत्थं ण भणादि '॥ - अंक - ३ ३३ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टिदारिआ च लज्जाभअमअणेहि अभितालिअमाणा सन्दावेण मुद्धा अवअदचेदण विअ संवत्ता ।। -अंक-४ इतना ही नहीं धात्री के जिस एक ही संवाद में 'जदि' और 'जइ' जैसे रूप हम देख चुके हैं; उस संवाद में ही एक बार 'च' ध्वनि है तो एक बार 'अ'। प्राकृत में अव्यय अनुस्वार के बाद 'च' मिलता है, पर यहां तो शब्दरूप के बाद भी 'च' अव्यय आया है, जो विचित्र सा लगता है। इस प्रकार 'अविमारकम्' में अव्ययों के प्राकृत रूपों में एकरूपता नहीं है। जब त्रिवेन्द्रम् नाटकों को रंगावृत्ति भी कहा जाता है तब यह और भी आश्चर्यकारक बात हो जाती है कि एक ही पात्र थोड़े-थोड़े अन्तर में अलग-अलग रूपों का उच्चारण करें। हमने तो यहां मात्र अव्ययों का ही अध्ययन प्रस्तुत किया है, वैसे अन्य प्रयोगों में भी ऐसी विसंगतियां दिखाई पड़ती हैं । जिन विद्वानों ने त्रिवेन्द्रम् नाटकों की प्राकृत को संशोधित किया है और उसके अनुसार भासनाटकचक्रम् का संपादन किया है उन दो प्रसिद्ध सम्पादकों के सम्पादित अंशों में भी उपर्युक्त विसंगतियां मिल रही हैं। इससे ऐसा लगता है कि उनका परिमार्जन नहीं किया गया, या तो हो सकता है इस ओर सम्पादकों का ध्यान ही नहीं गया हो।" प्रो० उन्नी ने" इन नाटकों की कई अन्य हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की सूचना दी है। उनके पाठों का मिलान करके कोई निष्कर्ष निकालना भविष्य में संभव बनेगा, परन्तु आज उपलब्ध सम्पादनों में संशोधन का उद्घोष होने के बाद भी ये विसंगतियां चल रही हैं तब हमारा निवेदन है कि त्रिवेन्द्रम् नाटकों का जब भी समीक्षित आवृत्ति के रूप में सम्पादन हो, तो इन विसंगतियों को दूर करके सर्वत्र एक समान संगतिवाले रूपों का प्रयोग किया जाना चाहिए। हां, एक ही कृति में पात्र के भेद से प्राकृतभाषा में भेद हो सकते हैं यह अलग बात है। परन्तु एक ही पात्र की एक या अनेक उक्तियों मे भाषा की संगति रहे, यही उपयुक्त लगता है। सन्दर्भ : * अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के ३७वें अधिवेशन में (२६,२७,२८ दिसम्बर १९९४, रोहतक-हरियाणा) प्राकृत एण्ड जैनिज्म विभागान्तर्गत पढ़ा गया लेख । इस लेख के तैयार करने में प्रो० डॉ० के० आर० चन्द्र, अहमदाबाद का मूल्यवान् सहयोग प्राप्त हुआ है; तदर्थ मैं उनका आभारी हूं। ** प्राकृत में यद्यपि 'ल' ध्वनि नहीं है; पुनरपि प्रो. देवधर के पाठ के अनुसार हमने भी ऐसा ही लिखा है। १. द्रष्टव्य : Studies in Bhasa इस लेख में छ8 मुद्दे में 'On the Prakrit of the Dramas' इस शीर्षक के अन्तर्गत उपर्युक्त थीसिस का रीव्यू किया गया है-.. S.K. Suk-thankar Felicitation Volume (Vo. I-II PP 159-169). तुलसी प्रशा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. The Stage of development of the Prakrit in Bhasas dramas and the Bhāsa epoch'. द्रष्टव्य - Z D.M.G., 1918. 3. Plays Ascribed to Bhasa : Their Authenticity and merits by C. R. Devadhar, the Oriental Book Agency, POONE, 1927, (PP 48-54). ४. द्रष्टव्य : भासनाटकचक्रम्, सं.. सी. आर. देवधर; प्रका. - ३ - ओरियन्टल बुक एकेडेमी, पूना; सन् १९३७ तथा भासनाटकचक्रम्, सं. संशोधकश्च – प्रो. रामजी उपाध्याय, प्रका - भारतीय संस्कृति संस्थानम्, वाराणसी, सन् १९८६ ५. द्रष्टव्य : प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, ले. आर. पिशल; अनु. --डॉ. हेमचन्द्र जोशी; प्रका....... - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना सन् १९५८; प्रेरेग्राफ १३५; पृ. २२८ ६. तुलना करें "पदादपर्वा ॥ - हेम प्राकृत व्याकरण १,४१ ७. यदि अनुस्वार के बाद 'वि' ध्वनि रखना हो, तो 'अ' का लोप नहीं करना चाहिए । जैसे कि - ' मुहुत्तं अवि' (सं. मुहूर्तमपि ); 'कालगं अवि' इत्यादि उदाहरण पिशल महोदय ने दिये हैं । - देखें, वहीं, पृ. २२९ तथा हेम प्राकृत व्याकरण में भी 'तं पितमवि । किंपि किमवि ।' इस प्रकार उदाहरण दिये गये हैं । ८. पुस्तक में यह 'हि' पढ़ा जाता है; दिया है । क्या उसी के प्रभाव में यहां 'खु' ९. प्राकृत में जैन परंपरा में 'अ' के स्थान पर प्रायः 'य' श्रुति पाई जाती है । पर जैनेतर परंपरा में 'अ' ध्वनि मिलती है । अत: त्रिवेन्द्रम् नाटकों में जो प्राकृत है, वह 'ख' --- हेम प्राकृत व्याकरण; १/४१ ऐसा प्रो. टी. गणपति शास्त्री ने निर्देश ध्वनि का 'हु' कर दिया है ? जैनेतर परंपरा की है, यह सूचित होता है । १०. यह स्थिति इस हद तक है कि विदूषक ही एक ही उक्ति में 'अन्तअ' और 'अन्तज' ये दो ध्वनि भी सभी संस्करणों में अक्षुण्ण रही है । अर्थात् एक ध्वनि में 'ज' सुरक्षित है और दूसरे में लुप्त है । देखिए- विदूषक - भो ! ण जाणन्ति ....। अविमारओ इसिसावेण कुलपरिब्भं मं अन्तअकुलप्पवासं अत्तणो .....०। सा राअदारिआ सअं अन्तज ति० ॥ खण्ड २२, अंक १ - डॉ० कमलेशकुमार छः चोकसी संस्कृत विभाग, भाषा साहित्य भवन गुजरात यूनिवर्सिटी, अहमदाबाद- ३ ३५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोकार महामंत्र : सांगीतिक चिंतन 0 जयचन्द्र शर्मा शब्द शक्ति अपार है। विद्वानों ने शब्द को ब्रह्म की संज्ञा दी है। प्रत्येक शब्द का प्रभाव, स्वभाव, गुणादि पृथक्-पृथक् है । मंत्र में प्रभावशाली शब्दों का प्रयोग किया जाता है। एक ही शब्द को लयवद्धउच्चारण करने पर वह शब्द मंत्र का रूप धारण कर लेता है। मंत्र की साधना सस्वर गाकर भी करते हैं। वैदिक काल में सामवेद की गीतियों को सस्वर गाया जाता था। जैन-धर्म के अनुयायी ‘णमोकार महामंत्र' की साधना संगीत की मधर स्वर-लहरी के साथ करते हैं। गाने की क्रिया संगीत के अन्तर्गत आती है। मंत्र और संगीत दो पृथक्-पृथक् विधाएं हैं। दोनों की साधना का मूल ध्येय मोक्ष प्राप्ति तथा प्राणी मात्र का कल्याण करना है। शब्द और स्वर दोनों महान् शक्तिशाली हैं। इसीलिए विद्वानों ने शब्द को ब्रह्म एवं स्वर को ईश्वर की संज्ञा दी है। स्वयं राजन्ते इति स्वराः। अर्थात जो बिना किसी की सहायता के उच्चारित और प्रकाशमान होते हैं। उन्हें स्वर कहते हैं । संगीतकला के विद्वानों ने संगीत में काम आने वाली आवाज को स्वर कहा है। स्वर-शक्ति के रहस्य को सही प्रकार से साधना करने वाले साधक ही जानते हैं। स्वरज्ञानरहस्यातु न काचिच्येष्ट देवता। स्वरज्ञानरतोयोगी च योगी परमो मतः ॥ स्वर ज्ञान से बढ़ कर कोई भी इष्टदेव नहीं है, जो योगी (साधक) स्वर ज्ञान में मस्त है, वही परम योगी माना जाता है। स्वर और शब्द दोनों ध्वनि मात्र हैं। ‘णमोकार महामंत्र' को सस्वर गान करने पर मंत्र के शब्दों का संबंध स्वरों से हो जाता है। संगीत संबंधी सप्त स्वर 'महामंत्र' की अन्तरात्मा में स्थित हैं। इस रहस्य को सामान्य व्यक्ति नहीं समझ सकता। 'महामंत्र' एक छन्द है । इस छन्द का गठन ३५ मात्राओं का है । सस्वर गान करने वाले साधक ॐ ध्वनि (शब्द) का प्रयोग करते हैं । इस प्रकार यह छन्द ३६ मात्राओं का बन जाता है । ३६ की संख्या शब्द और संगीतकला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । सप्त-स्वरों का 'महामंत्र' से किस रूप में संबंध स्थापित होता है, इस पर आगे विचार किया जा महामंत्र के माध्यम से सप्त-स्वरोत्पति को स्पष्ट करने के लिए 'मंत्र' के प्रत्येक खण्ड २२, अंक १ ३७ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद (पंक्ति) की मात्राओं का जानना अति आवश्यक है। पद संख्या मंत्र के शब्द मात्राएं प्रथम णमो अरहंताणं ७ (सात) द्वितीय णमो सिद्धाणं ५ (पांच) तृतीय णमो आयरियाणं ७ (सात) चतुर्थ णमो उवज्झायाणं ७ (सात) पंचम णमो लोएसव्वसाहूणं ९ (नौ) योग-३५ उपर्युक्त मंत्र की सस्वर साधना करते समय ॐ (ओम्) शब्द का उच्चारण करते हैं। इससे मंत्र ३६ मात्राओं का छन्द बन जाता है । वैदिक छंदों में ३६ मात्राओं का बहती छन्द है । सांगीतिक दृष्टि से ३६ की संख्या का बहुत महत्व है। प्राचीन तथा आधुनिक संगीत विद्वानों ने सप्त-स्वर स्थापित करने के लिए ३६ की संख्या को आधार माना है । भारतीय संगीतकला के विद्वान पं० श्री निवास ने 'वीणा-वाद्य' पर ३६" इन्च का तार लगाकर स्वर-स्थापना की । राग-रागनियों की संख्या छह-राग और तीस रागानियां कुल ३६ आज भी लोगों के मुख से सुनने को मिलती हैं। __'महासंत्र' के प्रथम, तृतीय एवं चतुर्थ पद जो ॐ की ध्वनि साहित आठ-आठ मात्राओं के हैं, जिनका योग २४ (चौबीस) है; जो नये स्वर का बोध कराता है। 'वीणा' में २४" इन्च की दूरी पर श्री निवास का पंचम स्वर है। वैदिक छन्दों में २४ मात्राओं का गायत्री छन्द है, जो गायत्री-मंत्र के नाम से जाना जाता है। 'महामंत्र' के ॐ रहित पदों पर विचार करते हैं तो उनसे संगीत तत्वों के दर्शन होते हैं। जैसे --संगीत कला में सप्त-स्वर, तीन ग्राम हैं। महामंत्र के प्रथम, तृतीय और चतुर्थ पद की सात-सात मात्राएं सप्त-स्वर, तीन ग्राम की जानकारी कराती है। ये तीन ग्राम संगीत कला में तीन स्वर स्थान (सप्तक) हैं, जो मानव के कायपिण्ड में स्थित हैं। प्रथम नाभि से हृदय तक, द्वितीय स्थान हृदय से कंठ तक और तृतीय स्थान कंठ से मस्तिष्क तक है। महामंत्र में इन तीनों स्थानों का ज्ञान कराने वाली तीन महान् शक्तियां मंत्र के तीनों पदों में विराजमान हैं। मंत्र की साधना करने वाले श्रावक उन्हें नमन करते हैं। उनके नाम हैं-अरहंत, आचार्य और उपाध्याय । ये तीनों महान् शक्तियां साधक को तीनों लोकों में विचरन करने अर्थात् संबंध स्थापित करने की प्रेरणा देती हैं, जहां ३६ राग-रागनियों का साम्राज्य तथा आनन्द ही आनन्द है। 'महामंत्र' के पदों की संख्याओं के माध्यम से सप्त-स्वर, तीन-ग्राम, ३६ रागरागनियों के अतिरिक्त षड़ज (सा) और पंचम (प) स्वर की जानकारी ३६ और २४ संख्याओं के माध्यम से मिली। शेष स्वरों की जानकारी के लिए षड़ज और पंचमस्वर संवादानुसार गणित का सहयोग प्राप्त करना होगा। ___'वीणा' के तार की लम्बाई द्वारा ३६" इन्च पर षड़ज और २४" इन्च पर पंचम स्वर है। यही संख्या महामंत्र के पांचों तथा तीनों पदों की है। मंत्र के प्रथम तुलसी प्रज्ञा Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द (ध्वनि) ॐ से लेकर अन्तिम शब्द (ध्वनि) 'ण' ‘णमोकार महामंत्र' नामक वीणा का ३६" इन्च का तार है, जिसके तृतीय पद का अन्तिम ‘णं' (ध्वनि) है, जो २४ मात्राओं का बोध कराती है, वहां षड़ज (सा) स्वर, स्थित है। उसयुक्त दोनों स्वरों की संख्याएं संवादात्मक है । संवाद का अर्थ है, दो विभिन्न प्रकार की ध्वनियों को एक साथ किसी वाद्य द्वारा प्रकट करने पर कानों को अप्रिय नहीं लगे । षड़ज और पंचम के तारों को एक साथ बजाया जावे तो दोनों की आत्माएं एकाकर होकर स्वर-सौदर्य को उभारते हुए श्रोताओं को आनन्दित करेंगी। स्वर-संवाद दो प्रकार के हैं, एक पंचम भाव और दूसरा मध्यम-भाव स्वर संवाद । सर्व प्रथम पंचम भाव स्वर-संवाद पर विचार करें, क्योंकि मध्यम नामक स्वर की जानकारी अभी तक हमारे सामने नहीं आई है। षड़ज-पंचम भाव में ३६ और २४ संख्याओं को सही बट्टा करने पर जो उत्तर आयेगा वही संख्या सा से प स्वर की दूरी होगी। जैसे-३६-३ अर्थात् सा से प स्वर १, (डेढ गुना) दूरी पर है । कितु तार सप्तक का सा स्वर जो वीणा' में १८” इन्च पर स्थित है, उसकी दूरी ३ नहीं है । उक्त स्वर की दूरी ज्ञात करने के लिए २४ और १८ संख्याओं के माध्यम से जानकारी करनी होगी। जैसे अर्थात १३ की दूरी पर सप्तक का षड़ज स्थित है। यह दूरी 'षड़ज-मध्यम-भाव' का बोध कराती है इस प्रकार हमें षड़ज, पंचम और मध्यम स्वरों की जानकारी प्राप्त होती है। प्रश्न यह है कि १८ की संख्या ‘णमोकार महामंत्र' में कहां है ? इस रहस्य को जानने के लिये महामंत्र को पंच-तन्त्री वीणा के रूप में स्वीकार करना होगा। उक्त वीणा के प्रथम और अन्तिम पदों की संख्या ८+१०=१८ हैं। यही १८ की संख्या 'षड़ज-मध्यम-भाव' को प्रकट करती है। विभिन्न मतानुसार सप्त-स्वर-स्थापना स्वर नाम षड़ज ऋषभ गंधार मध्यम पंचम धैवत निषाद श्रुत्यान्तर ४ ३ २ ४ ४ ३ २ तार की लंबाई ३६" ३२" ३०" २७" २४” २१३ २० कम्पन संख्या २४० २७० ३०० ३२० ३६० ४०५ ४५० कम्पन संख्या के आधार पर अन्य स्वरों का एवं उनकी कम्पन संख्या का बोध 'षड़ज-पंचम-भावानुसार निम्न प्रकर से होगा--. ऋषभ स्वर :-पंचम स्वर की कम्पन संख्या ३६० है । ३ से गुणा करने पर जो ___ संख्या आयेगी वह ऋषभ स्वर की होगी। ३६०४३ = ५४० यह कम्पन संख्या तार सप्तक के ऋषभ स्वर की है। मध्यसप्तक की कम्पन्न सख्या इसकी आधी अर्थात् २७० है। धैवत-स्वर :- ऋषभ स्वर की कम्पन संख्या २७० को ३ से गुणा करने पर धैवत स्वर की कम्पन संख्या का बोध होगा। खंड २२, बंक १ २ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०४३ =४०५ कम्पन्न संख्या का धैवत स्वर है। मध्यम स्वर :-षड़ज स्वर से मध्यम स्वर की दूरी पर है। षड़ज स्वर की कमन संख्या २४० को हु से गुणा करने पर मध्यम स्वर की कम्पन संख्या ज्ञात होगी। २४०x४ -=३२० कम्पन संख्या मध्यम स्वर की है। उपर्युक्त स्वरों की कम्पन संख्याओं का बोध हमें बीणा के तार की लन्बाई और पाश्चात्य संगीत विद्वानों द्वारा निर्धारित कम्पन-संख्याओं के माध्यम से हुआ। गंधार और निषाद-स्वरों की कम्पन संख्याओं को ज्ञात करने के लिए 'महामंत्र' की मात्राओं के माध्यम से प्रकट करने का प्रयास करेंगे। 'महामंत्र' की पांचों पंक्तियों की ॐ सहित कूल ४० मात्राएं हैं । वैदिक-छन्द 'पंक्ति' की मात्राएं भी ४० हैं। 'वीणा' के तार की लम्बाई के २०" इन्च पर निषाद स्वर (मध्य सप्तक) स्थित है। गंधार स्वर :--महामंत्र, वैदिक छन्द और वीणा के तार की लम्बाई के माध्यम से ४० की संख्या का बोध हुआ। इस संख्या के आगे बिन्दु लगाने पर ४०० बनते हैं। षड़ज-पंचम-भावानुसार ४००४३ ६०० आते हैं। यह कम्पन संख्या तार सप्तक के गंधार स्वर की है। इसकी आधी ३०० की सख्या मध्य सप्तक के गंधार स्वर की होगी। इसी स्वर के द्वारा निषाद-स्वर की कंपन संख्या का बोध होगा। निषाद-स्वर :--गंधार स्वर की कम्पन संख्या--३०० के साथ ३ का गुणा करने पर निषाद-स्वर की कम्पन संख्या की जानकारी प्राप्त होगी २०० =४५० कम्पन संख्या का निषाद-स्वर है। इस प्रकार यहां 'महामंत्र' के प्रत्येक वर्ण, मात्रा और पद में अदृश्य रूप में स्थित सप्त-स्वरों को विभिन्न विधाओं के माध्यम से प्रकट कर विषय की पुष्टि करने का प्रयास किया है। हो सकता है संगीतकला के विद्वान् मेरे विचारों से सहमत नहीं हों पर मंत्र की स्वर-शक्ति और शब्द-शक्ति को तो स्वीकार करना ही होगा। क्योंकि 'महामंत्र' सस्वर गाया भी जाता है। गायन में चेतन एवं अचेतन पदार्थों को प्रभावित करने की क्षमता होती है । अतः स्वर-शक्ति ही ईश्वरेच्छा-शक्ति है।। ४० तुलसी प्रशा Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ ग्रंथ१. राग कल्पद्रुम २. संगीत पारिजात ३. संगीत रत्नाकर ४. नाद योग ५. ॐ नाद ब्रह्म (त्रैमासिको) मराठी ६. शिव स्वरोदय ७. अमृत कलश ८. छन्द शास्त्र ९. पञ्चतंत्री वीणा (पाण्डुलिपि) १०. राग तत्वविबोध -(डा० जयचन्द्र शर्मा) निदेशक, श्री संगीत भारती बीकानेर--३३४००१ खंड २२, अंक १ ४१ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत के प्राचीन बोली विभाग प्रो० प्रबोध वे० पंडित [सितम्बर सन् १९५३ में पार्श्वनाथ विद्याश्रम के उपक्रम से कॉलेज ऑव इण्डोलोजी, बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी में डॉ० प्रबोध पंडित, अहमदाबाद ने तीन व्याख्यान दिए थे। उनके दूसरे व्याख्यान में प्राकृत भाषा की प्राचीन बोलियों पर सारभित चर्चा है। डॉ० टी० आर० वी० मूर्ति की अध्यक्षता में हुए इस व्याख्यान को यहां साभार अनुमुद्रण किया जा रहा पहले भाषण में डॉ० प्रबोध पंडित ने कहा था- 'एक ओर से वर्तमानकाल की बोलचाल की नव्य भारतीय भाषाएं और दूसरी ओर से प्राचीनतम भारतीय आर्य भाषा जैसे कि वेद की भाषा, यह दोनों स्वरूपों के बीच को जो भारतीय भाषा इतिहास की अवस्था है ? उसको हम प्राकृत नाम दे सकते हैं।' अथवा 'बुद्ध और महावीर से प्राकृत काल का आरम्भ होता है, और यह काल, साहित्य-स्वरूप में करीब-करीब विद्यापति, ज्ञानेश्वर आदि नव्य भारतीय आर्य भाषा के आदि लेखकों से चार या पांच शताब्दी से पहले खत्म हो जाता है।' - और तीसरे व्याख्यान में उन्होंने प्राकृत का स्वरूप बताया- शौरसेनी वा उसका प्रकृष्ट स्वरूप-विकसित स्वरूप-महाराष्ट्री हमारे समक्ष किसी प्रदेश या समय की व्यवहार भाषा की हैसियत से आती नहीं, हम उसको सिर्फ साहित्यिक-स्वरूप में ही पाते हैं । इस दृष्टि से प्राकृतों का विकास संस्कृत की तरह ही होता है। उत्तरकालीन प्राकृतों में हमारे पास सिर्फ एक ही तरह की प्राकृत भाषा का प्रधानतया साहित्य विद्यमान है।' प्राकृत भाषा के अध्ययन-अनुसंधान को अद्यतन बनाने के लिए यह अनुमुद्रण किया है । आशा है, अधिकारी विद्वान् इस ओर सचेष्ट होंगे। - सम्पादक] प्रधानतया प्राकृत साहित्य के दो मुख्य अंग हैं। बौद्ध साहित्य और जैन साहित्य । दोनों का उद्गम एक ही काल में और एक ही स्थल में होते हुए भी, उनकी विकासधारा अलग-अलग है। पालि साहित्य विपुल है। परम्परा के अनुसार भगवान बुद्ध के उपदेशों की तीन आवृत्तियां उनके निर्वाण के बाद २३६ साल तक हुई। ये तीन आवृत्तियां राजगृह, वैशाली और पाटलीपुत्र की परिषदों में सम्पन्न हुई। इन आवृत्तियों की खंड २२, अंक १ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिकता विवाद का विषय होते हुए भी, इनसे एक बात स्पष्ट है कि बुद्ध के उपदेशों को उनके अनुयाइयों ने दो तीन सदियों में संकलित किये। इस संकलन में मूल के अतिरिक्त भाव और भाषा आ जाने की संभावना तो है, किन्तु उसके साथ यह भी तो मानना पड़ता है कि उपदेश की स्मृति विद्यमान थी, और मूल से ठीक-ठीक निकट ऐसा विश्वसनीय साहित्य संगृहीत हुआ है। इससे यह मानना पड़ेगा कि हमारे पास प्राचीनतम प्राकृत साहित्य के भाषा स्वरूप के अभ्यास के लिए ई० पू० की पांचवीं सदी से लेकर महत्व की सामग्री विद्यमान है। अब, जब हम इस साहित्य को अन्वेषण की दृष्टि से देखते हैं तब उसकी भाषा के बारे में अनेक तरह की शंकायें पैदा होती हैं। परम्परा के अनुसार, बुद्ध के उपदेश भिन्न-भिन्न विहारों में, मठों में, भिक्षुओं की स्मृति में संचित थे। ये भिक्षुगणे भी भिन्न-भिन्न प्रान्त के निवासी थे। परम्परा के अनुसार दूसरी वाचना के समय दूरदूर के प्रदेश के भिक्षु उपस्थित थे। अवन्ति, कोशाम्बी, कन्नौज, सांकाश्य, मथुरा और वहां से आने वाले भिक्षुओं की निजी भाषा भी भिन्न-भिन्न होगी। उत्तर और पश्चिम की बोलियां पूर्व से ठीक-ठीक भिन्न थी। विनय का जो संकलन किया गया, उसमें इन सब भिन्न-भाषी भिक्षुओं का अपना हिस्सा भी होगा, और उसके फलस्वरूप भाषा परिवर्तन भी हुआ होगा। मूल के उपदेश थे कोशल के राजकुमार और मगध के भिक्षु की भाषा में, शिष्ट मागधी में। जब कोई नागरिक दूसरे प्रान्त की बोली बोलता है, तब वह उस प्रान्त की शिष्ट बोली ही बोलेगा, वहां की ग्रामीण बोली से वह परिचित न होगा। दूसरी वाचना के संहनन में अन्यान्य भिक्षुगण जो कि पश्चिम से आये थे, उनका प्रभाव मूल उपदेश की इस शिष्ट मागधी पर पड़ा। उसके बाद यह साहित्य लिपिबद्ध होता है। अशोक के समय में ही यह साहित्य कुछ अंश में लिपिबद्ध हो चुका था यह बात हमको भाव के लेख से मिलती है। किन्तु, अधिकांश बौद्ध साहित्य लिखा गया सिंहलद्वीप में। बौद्ध साहित्य का यह धर्मदूत, उज्जैन में जिसका बचपन बीता, वह राजकुमार महेन्द्र, सम्राट अशोक का पुत्र था। बौद्ध साहित्य के विकास में ये छोटी-छोटी हकीकतें भाषादृष्टि से खूब सूचक हैं। ये हकीकतें सामने रखकर अब निर्णय करना होगा कि बौद्ध धार्मिक साहित्य की पालि भाषा किसी एक भौगोलिक प्रदेश की प्रचलित भाषा हो सकती है ? विद्वानों ने पुन:-पुनः पालि को kunst sprache संस्कृति की 'भाषा' कदाचित् 'मिश्र-भाषा' भी कहा है। संस्कृति की भाषा के मूल में भी हमेशा किसी न किसी प्रदेश की बोली होती है, इसलिए पालि के तल में किस बोली का प्रभाव है इसका विवाद किया जाता है । वस्तुतः प्राचीनतम बौद्ध साहित्य भी, निर्वाण के बाद करीब चार सौ साल के बाद ही लिपिबद्ध होता है, और वह भी अनेक तरह के भिक्षुओं की बोलियों के प्रभाव के बाद । इससे यह मानना स्वाभाविक हो जाता है कि जो पालि साहित्य हमारे समक्ष है वह पूर्व और पश्चिम की भाषाओं के मिश्रण के बाद, धार्मिक शैली में लिखा गया है, स्थल वा काल की स्पष्ट भेद-रेखायें उसमें से मिलनी मुश्किल हैं। प्राकृत साहित्य का दूसारा अंग है जैन आगम साहित्य । महावीर भी पूर्व में पैदा तुलसी प्रज्ञा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उपनगर में उनका हुए, और पूर्व की भाषा में ही उन्होंने धर्मोपदेश किया । वैशाली जन्म और घूमे मगध में। जैन परंपरा के अनुसार महावीर ने अपना उपदेश उनके पट्टशिष्यों को समझाया और वे पट्टशिष्य - गणधर उस उपदेश के संहननकार बनें । वह उपदेश मगध की प्रचलित भाषा में था । बुद्ध भी मगध में घूमे, किन्तु वह परदेसी थे । उनका जन्म था कोसल में और शिक्षा कोसल में पाई थी । महावीर मगध के उत्तर मगध के निवासी थे । यह भेद उनकी भाषा के भेद समझने के लिए स्पष्ट करना आवश्यक है । गणधरों से संगृहीत महावीर वाणी हमको तीन वाचना के बाद ही मिलती है । जैसे बौद्ध परम्परा में तीन वाचनायें हैं, वैसे जैन परम्परा में भो तीन वाचनायें हैं। मुझे तो यह एक अत्यंत विलक्षण अकस्मात् मालूम होता है। दोनों की ऐतिहासिकता भी विवादास्पद है । प्रथम वाचना महावीर निर्वाण के १६० साल के बाद पाटलीपुत्र में होती है । परंपरानुसार वीर निर्वाण के १५० साल के बाद मगध-पाटलीपुत्र में भयानक अकाल पड़ा और भद्रबाहु प्रभृति जैन श्रमणों को वहां से दूर चले जाना पड़ा, आत्मरक्षा के लिए। कुछ श्रमण वहां रहे भी । अकाल के बाद मालूम हुआ, ऐसे आघातों से स्मृतिसंचित उपदेश नष्टप्राय होते जायेंगे, उनको व्यवस्थित करना आवश्यक है। तदनुसार पाटलीपुत्र में जैन श्रमण संघ की परिषद् मिली और आगम साहित्य की व्यवस्था की गई। यह हुआ करीब ई०पू० की चौथी सदी में । इस परिषद के बाद करीब आठ सौ साल तक आगम साहित्य की कोई मरम्मत नहीं होती। दूसरी परिषद मिली मथुरा में, ई० की चौथी सदी में । उसके दो सौ साल के बाद तीसरी परिषद मिलती है । देवगण उसके प्रमुख थे । ई० की छुट्टी शताब्दी की अनेक प्रतियों को मिलाकर आधारभूत पाठ निर्णय करने भिन्न प्रतियों को मिलाकर जब नई प्रति लिखी जाती है, के बजाय अत्यन्त मिश्रित पाठपरंपरा खड़ी होती है । नीलकंठ लिखते हैं- इस आखिरी परिषद के समय का प्रयत्न होता है । भिन्नतब साधारणतया, शुद्ध पाठ जैसे महाभारत के टीकाकार बहून्समाहृत्य विभिन्न देश्यान् कोशान्विनिश्चित्य च पाठमग्यूम् । प्राचां गुरूणामनुसृत्य वाचमारभ्यते भारतभावदीपः ॥ इससे नीलकंठ के पाठ को स्वीकारने में महाभारत के संपादक को खूब सावधानी रखनी पड़ती है । परंपरानुसार, आगम साहित्य में महावीर का उपदेश संचित है और उस साहित्य की भाषा को अर्धमागधी कहते हैं । खुद आगम साहित्य में इस नाम का उल्लेख आता है । जिस काल में इस भाषा में उपदेश दिया गया और जिस काल में उसकी साहित्यिक संघटना हुई इन दोनों के बीच करीब एक हजार साल का अंतर है और यह हकीकत ही भाषाशास्त्री को निराश करने के लिए काफी है । यह सत्य है कि स्मृतिसंचित उपदेश - साहित्य काल के बदलने पर भाषा भी बदलते हैं । बौद्ध साहित्य की वाचनाएं बुद्ध के निर्वाण के बाद पांच सौ साल में पूरी होती है, आगम साहित्य की वाचनाएं महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार साल के बाद पूरी होती हैं । इस दृष्टि से संभव खण्ड २२, अंक १ ४५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि आगम साहित्य की भाषा पिटकों से अर्वाचीन हो । किन्तु, इसमें कुछ तारतम्य भी है । स्थल दृष्टि से जितने आघात पालि साहित्य पर होते हैं उतने आगम साहित्य पर नहीं होते । पिटक लिखे गये सिंहलद्वीप में, उनको ले जाने वाला उज्जैन से प्रभावित, उनकी रचना हुई थी पाटलीपुत्र में। अलबत्त, यह सब होता है अल्पसमय में, बुद्ध के उपदेश की स्मृति भी ताजी होगी उसमें शक नहीं। जब सम्राट अशोक अपने लेख में कहते हैं कि ये धम्मपलियाय 'स्वयं भगवता बुद्धेन भासिते तब उनको न मानने के लिए कोई प्रमाण नहीं । प्रादेशिक बोलियों का उस भाषा पर कुछ प्रभाव होते हुए भी मूल का अर्थ व्यवस्थित रहा होगा। आगम साहित्य में कुछ अलग व्यवस्था है। उसमें बहत सा साहित्य नष्टप्राय हो गया होगा। किन्त जो कछ बच गया उसकी भाषा इतनी मिश्रित नहीं है, जितनी पालि साहित्य की है । आगम साहित्य के प्राचीनतम स्तरों में मगध की भाषा का कुछ खयाल मिलता है और स्पष्टता से भी। इसका कारण यह हो सकता है कि जैन धर्म का प्रसार परिमित था, संघ और विहार इतने विपुल न थे, जितने बौद्धों के और परंपरागत साहित्य की सुरक्षा करने में जैन साधु संघ अधिक जागृत भी था। इन सब कारणों से, सामान्य दृष्टि से पालि से अर्वाचीन होते हुए भी, अर्धमागधी साहित्य स्थल दृष्टि से अधिक आधारभूत बुद्ध और महावीर के काल की भाषापरिस्थिति समझने के लिए धार्मिक साहित्य को छोड़कर यदि हम शिलालेखों के प्राकृतों का निरीक्षण करें तो अधिक आधारभूत सामग्री प्राप्त होती है। हमने देखा कि जो अर्धमागधी आगम साहित्य हमारे समक्ष आता है वह काल-क्रम से ठीक-ठीक परिवर्तित स्वरूप से आता है, यद्यपि पूर्व की बोली के कुछ लक्षण उसमें है। पालि साहित्य में भी प्राचीन तत्त्वों की रक्षा होती है, किन्तु पूर्व की अपेक्षा उसमें मध्यदेश का अधिक प्रभाव है इसलिए इस साहित्य से प्राचीन बोलियों के आधारभूत प्रमाण निकालना मुश्किल हो जाता है। इसमें हमको अधिक सहाय तो सम्राट अशोक के शिलालेख---जो ई० पू० २७०-२५० के अरसे में लिखे गए हैं--से मिलती है। उनके विशाल साम्राज्य की फैली हुई सीमाओं पर खुदवाये गये इन शिलालेखों को सचमुच ही भारत का प्रथम लिंग्वीस्टीक सर्वे का नाम मिला है । अशोक ने ये शिलालेख उनके धर्म को फैलाने के लिए व उनके राज्याधिकारिओं को उनकी दृष्टि समझाने के लिए खुदवाये । यद्यपि ये शिलालेख एक ही शैली में लिखे गये हैं, फिर भी उनकी भाषा मे स्थलानुसार भेद मालूम होता है। दूर उत्तरपूर्व में शाहवाझगढी और मानसेरा में लिखे गए लेख दक्षिण-पश्चिम के गिरनार के लेख से भाषा-दृष्टि से भिन्न हैं। इन शिलालेखों के सभी भाषाभेद यद्यपि समझाना मुश्किल हैं तो भी ये शिलालेख तत्कालीन भाषापरिस्थिति समझने के लिए एक अनोखा साहित्य है । ये लेख लिखे गए ई०पू० के तीसरे शतक में और उनकी भाषा है अशोक की राजभाषा, उनके administration और court की भाषा। राजभाषा हमेशा बोलचाल की भाषा से कुछ प्राचीन (archaic) ढंग की होती है। उससे उसकी शिष्टता निभती है। ई० पू० के तीसरे शतक की राजभाषा, ई० पू० के तुमसी प्रज्ञा Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवें शतक की पूर्वी बोलियों से अधिक भिन्न न होगी ऐसा अनुमान करने में खास बाधा नहीं। इससे अशोक की भाषा का अध्ययन हमको बुद्ध और महावीर की समकालीन भाषा के निकट ले जाता है। भाषादृष्टि से अशोक के लेख चार विभाग में बांट सकते हैं --उत्तर-पश्चिम के लेख, गिरनार का लेख, गंगा जमना से लेकर महानदी तक के लेख और दक्षिण के लेख । जिस प्रदेश की राजभाषा से अशोक की राजभाषा खास तौर से भिन्न न हो अथवा जहां अशोक की राजभाषा आसानी से समझी जा सकती हो वहां अशोक के लेख अपनी निजी पूर्वी बोली में ही लिखे जायं यह स्वाभाविक अनुमान हो सकता है। इस दृष्टि से गंगा जमुना से लेकर महानदी तक के उनके लेख कुछ-कुछ भेद छोड़कर अशोक की राजभाषा में ही लिखे गए हैं। किन्तु जो प्रदेश दूर-दूर के हैं, जहां की भाषा अशोक की राजभाषा से अत्यन्त भिन्न है। वहां के लेख उसी प्रदेश की भाषा से अत्यन्त प्रभावित होते हैं, ताकि वहां के लोग अशोक के अनुशासन को अच्छी तरह से समझ सके। उत्तर-पश्चिम के लेख वहां की बोली के नमूने हैं। गिरनार का शिलालेख सौराष्ट्र की बोली का-- यद्यपि यहां मध्यदेश का काफी प्रभाब मालूम होता है-पुरोगामी है। दक्षिण में परिस्थिति जरा अलग है । दक्षिण की भाषा आर्य भाषा से बिलकुल भिन्न से होने से वहां की भाषा का कोई प्रभाव अशोक की भाषा पर जम नहीं सकता। अधिकांश ये लेख पूर्व की राजभाषा में ही लिखे गए हैं, जो कुछ भेद नजर में आता है वह पश्चिम का असर होने से मालूम होता है। इससे इनकी भाषा का सांची, बैराट और रूपनाथ के लेख से कुछ साम्य मिलता है। अशोक के लेखों में बोली भेद का जो निदर्शन होता है उसको हम पूर्वनिदर्शित साहित्य के विभाजन के साथ मिला सकते हैं। वैदिक साहित्य, साहित्य का प्राकृत और अशोक के लेख, इन तीनों को मिलाकर हम बुद्ध और महावीर के समय की भाषा का खयाल थोड़ा वहुत स्पष्ट कर सकेंगे। अशोक के उत्तर-पश्चिम के लेखों के साथ भारत के बाहर मिले हुए प्राकृत साहित्य का भी सम्बन्ध है। गोश्रृंग की गुफा से फ्रेन्च यात्री धु य द ह्रां को खरोष्ठी लिपि में जो धम्मपद मिला वह प्राकृत धम्मपद के नाम से प्रसिद्ध है। शायद यह उत्तर-पश्चिम में ही लिखा गया होगा ऐसा माना जाता है। उसका काल ई० की दूसरी सदी गिना जाता है। उत्तर-पश्चिम की कुछ विशेषताएं इस धम्मपद में भी पाई जाती हैं और वे अशोक के यहां के लेखों में भी मिलती हैं। ईरानीय बोलियों की कुछ विशिष्टताएं भी इनमें मौजूद हैं जो भौगोलिक दृष्टि से स्वाभाविक ही हैं। उसके बाद, सर ओरेल स्टाइन को चाइनीझ तुर्कस्थान से मिले हुए कुछ खतपत्र भी इसके साथ गिनने चाहिए। ये खतपत्र ई. के तीसरे शतक में लिखे गए हैं। यह साहित्य खोटन-कुस्तान --- की सरहद से, जगह का नाम है निय-प्राचीन नाम चडोतखरोष्ठी लिपि में लिखा हुआ मिलता है । इसको निय प्राकृत के नाम से भी जानते हैं । यह साहित्य राजव्यवहार के लिए लिखा गया है और उसकी भाषा से मालूम होता है कि उसका उद्भव पेशावर के नजदीक ही हुआ होगा। इसकी भाषा का संबंध, एक ओर से घु व्य द ह्रां से और दूसरी ओर से वर्तमान दरद भाषाओं से, खास करके ब्रर २१, अंक १ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोरवाली से और अशोक के उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों से है। गिरनार के लेख की भाषा का संबंध साहित्यिक पालि से है, उसका कारण यही हो सकता है कि साहित्यिक पालि का अधिक संबंध मध्यदेश की भाषा से है और गिरनार के लेख की भाषा पर जो मध्यदेश की भाषा का प्रभाव है वह उनको पालि की ओर खिंचता है । गंगा जमना से लेकर महानदी पर्यन्त के पूर्व के शिलालेखों की भाषा से संबंध है नाटकों की मागधी का । दक्षिण के आलेख आर्येतर भाषा-भाषी प्रजा के बीच में लिखे गए हैं, इसलिए प्रधानतः ये आलेख पूर्व के आलेखों की भाषा से तात्त्विक दृष्टि से भिन्न नहीं और जो कुछ भिन्नता मालूम होती है वह भिन्नता उनको जनों की अर्धमागधी की ओर खिंच जाती है। कुछ अंश से वैराट, सांची और रूपनाथ के लेख भी इनसे साम्य रखते हैं यह बात आगे सूचित की गई है। साहित्यिक प्राकृतों और लेखों के प्राकृत का सम्बन्ध हमको तत्कालीन बोली विभागों का कुछ ख्याल अवश्य स्पष्ट कराता है। अलबत्त, यह भाषाचित्र कितना अपूर्ण है, उसमें कितने शंकास्थान है, उसका ख्याल तो जब हम यह विविध भाषासामग्री का विवरण करेंगे तब ही आएगा। प्राचीन बोली विभागों के अभ्यास में कुछ दिशासूचन नाटकों के प्राकृत से भी मिलता है संस्कृत नाटकों में प्राकृत का प्रयोग करने की प्रणालिका संस्कृत नाटकों के जितनी ही पुरानी है। नाटयशास्त्र के विधानों से पूर्व ही नाटकों में विविध पात्रों के लिए विविध प्रकार के प्राकृतों का प्रयोग करना ऐसी रूढि होगी। कौन से पात्र किस तरह का प्राकृत का व्यवहार करें इस विषय में जो निर्णय किए गए हैं उसका प्राचीन बोली विभाजन से कुछ संबंध है ? संस्कृत नाटक, जिस रूप में वह हमारे सामने है उसको क्या प्राचीन लोक जीवन का चित्र गिना जा सकता है ? सिल्वां लेव्ही ने ठीक ही कहा है कि काव्य और आख्यानसंवाद (Epic) को साहित्य से तख्तों पर ले जाने का जो प्रयोग वही है संस्कृत नाटक । उसका समर्थन करते हुए, उनके शिष्य झुल लोखने भी ठीक ही लिखा है कि अगर हम संस्कृत नाटक को लोक जीवन का प्रतिबिंब मानेंगे तो भ्रान्ति होगी। और खास तौर से संस्कृत नाटक में भाषा की जो रूढियां हैं उनका तो प्रत्यक्ष जीवन से कोई संबंध नहीं। प्रधानतया तीन भाषाओं का व्यवहार संस्कृत नाटक में होता है - संस्कृत, शौरसेनी और मागधी। शिष्टजन संस्कृत में व्यवहार करते हैं, शिक्षित स्त्रीवर्ग और अशिक्षित पुरुषवर्ग शौरसेनी में व्यवहार करते हैं और जिनकी मजाक करनी है, जो नीच कुल के हैं, वे मागधी में व्यवहार करते हैं। ये विभाग क्या किसी बोली भेद के विशिष्ट व्यंजक हो सकते हैं ? शौरसेनी उच्चकुल की स्त्रियों और मध्यमवर्ग के पुरुषों की भाषा नहीं, किंतु वह सूचक है मथुरा में विकसित नटवर्ग की बोलचाल के शिष्ट प्रतीक की। पूर्व के लोक, मध्यदेश की अपेक्षा हमेशा असंस्कृत और अशिष्ट माने जाते थे, इसलिए जिस पात्र को नीच मानना हो, जिसकी मजाक करने की हो उसके मुख में मागधी रखना एक रूढि ही बन गई । प्राचीनतम नाटकों में और खास करके अश्वघोष के नाटकों में उत्तरकालीन नाटकों की अपेक्षा, अन्य प्रकार की प्रणाली दिखाई देती है । अश्वघोष के नाटक कुशानकाल की ब्राह्मी में लिखे हुए मालूम ४८ तुलसी प्रज्ञा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हैं और उनका समय है ई० का दूसरा शतक । इन प्राचीन नाटकों की भाषाप्रणाली, उत्तरकालीन नाटकों से कुछ भिन्न है । उत्तरकालीन नाटकों में अनुपलब्ध, किन्तु भरतविहित, नाटकों की अर्धमागधी भी यहां प्राप्त होती है। यहां शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी के प्राचीन स्वरूपों का प्रयोग किया गया है । तदनन्तर, भास के नाटकों में प्राचीन प्राकृतों का व्यवहार मिलता है और प्राकृतों का वैविध्य देखने को मिलता है शुद्रक के मृच्छकटिक में, यद्यपि शूद्रक का प्राकृत भास से ठीक-ठीक अर्वाचीन है । भारत के बाहर जो प्राकृतें मिलती हैं उनसे एक विशिष्ट दिशा - सूचन होता है । नियप्राकृत के व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । जो विकास अपभ्रंश काल में भारत में होता है वह विकास ई० के दूसरे और तीसरे शतक के इस नियप्राकृत में होता है । इन प्राकृतों का ध्वनिस्वरूप प्राचीन ही है, सिर्फ व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । इससे अनुमान तो यही होता है कि भारत के साहित्यिक प्राकृत प्रधानतथा रूढिचुस्त ( conservative ) थे, वैयाकरणों के विधि-विधान से ही लिखे जाते थे, और संस्कृत को आदर्श रखकर केवल शिष्टस्वरूप में लिखे जाते थे, किन्तु संस्कृत के प्रभाव से दूर जो प्राकृत लिखे गये वे अधिक विकासशील थे । प्राकृतों के अभ्यास में हमें यह देखना होगा कि उसमें भी शिष्टता का प्रभाव कितना है और हम तत्कालीन बोलचाल से कितने दूर वा निकट हैं । प्राकृतों के प्राचीनतम स्वरूप का खयाल पाने के लिए हमको साहित्यिक प्राकृत, लेखों के प्राकृत, नाटकों के प्राकृत और भारत बाहर के प्राकृतों का तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करना होगा, सब में से अंशत: सहायता मिलेगी । इन सब में से लेखों के प्राकृत तत्कालीन भाषा स्वरूप के खयाल को विशद करने में अधिक सहायकारक हैं, इस वास्ते उनको केन्द्र में रखकर बुद्ध और महावीर के काल की भाषापरिस्थिति का कुछ चित्र उपस्थित होगा । उत्तरपश्चिम की भाषा का खयाल हमको मानसेरा और शाहबाझगढी के लेखों से मिलता है । तदुपरान्त भारत बाहर के प्राकृत और उत्तरकालीन खरोष्टी लेखों का संबंध भी उत्तर के साथ ही है । ॠ का विकास दो तरह से होता है— रि, रु, क्वचित् 'र' भी होता है । इस 'र' के प्रभाव से अनुगामी दंत्य का मूर्धन्य शाहबाझगढी में होता है, मानसेरा में ऐसा नहीं होता । शाह० मुग, किट, ग्रहथ, वुढेपु, मान० म्रिग, बुधेसु (वृद्धेपु) । प्रधानतया स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजन कुछ विशेष परिवर्तन होते हैं । स्वरान्तर्गत और इन घोषवर्णों का घर्षभाव होता है । आवश्यक अवान्तर अवस्था है : "I 1 1 अवकाश' - अवगज, प्रचुर --प्रशुर, कुक्कुट - ककूड, कोटि-कोडि, यह विशिष्टता १. शब्द के ऊपर दण्ड '' घर्षत्व सूचक है । as २२, अंक १ मूल रूप में ही रहते हैं । निय प्राकृत में क च ट त प श स का घोषभाव होता है यह घटना व्यंजनों के संपूर्ण नाश के पूर्व की 1 ४९ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के खरोष्ठी लेखों से भी मिलती है। निय प्राकृत में अशोक के लेखों से अधिक विकसित भूमिका है, इससे अधिकांश स्वरान्तर्गत महाप्राणों का 'ह' होता है --'एहि, लिहति (लिखति), संमुह, प्रमुह, सुह, अमहु (अस्मभ्यम्), तुमहु, लहंति (लभन्ते), परिहष (परिभाषा), गोहोमि, गोम, गोहूम (गोधूम)। प्रधानतया श ष और स व्यवस्थित रूप से पाये जाते हैं : शाह० मान०, दोष, प्रियदशि, शत, ओषढिनि, इ. इ.। —य जिसका अन्त भाग है ऐसे संयुक्त व्यंजनों में-य का लोप होता हैशाह० मा० : कलण (कल्याण-) कट व (कर्तव्य-), शाह० अपच, मान० अपये (अपत्य), शाह० एकतिए, मान० एकतिय (-त्य), निय प्रा० ज्य : रज (राज्य), जेठ (ज्येष्ठ-), द्य : अज, खज, ध्य : विजंति, भ्य : अवोमत (अभ्यवमत-) व्य : ददव्यो , -वो, श्य : अवश, नशति, ष्य : करिशदि, मंनुश, श्य, ष्य, का यह विकास उत्तर में सार्वत्रिक है-. अशोक में अरभिशंति, मनुश, अनपेशंति, प्राकृत धम्मपद में भी देवमनुशन । रयुक्त व्यंजन यथास्वरूप रहते हैं शाह० मान० : प्रज , ब्रमन, ध्रम , द्रशन, अपवाद : शाह० दियढ, मान० दियढ (द्वि-अर्ध-)। निय : अर्जुनस, अर्थ, गर्भ, विसजिद, अर्ग (अग्र-) व्यग्र (व्याघ्र)। र लोप के जो कुछ उदाहरण मिलते हैं वे संभवतः पूर्व से आगन्तुक शब्द हो सकते हैं, उनके दोनों ही स्वरूप र युक्त और र लुप्त साथ ही मिलते हैं, जो इस अनुमान को साधार करते हैं : सब (सर्व), अध, अढ (अर्ध)। ___संयुक्त व्यंजनों में र का स्थानपरिवर्तन उत्तरपश्चिम की विशिष्टता है। अशोक में और प्राकृत धम्मपद में उसके उदाहरण मिलते हैं, निय प्राकृत में वा उत्तरकालीन खरोष्ठी आलेखों में यह प्रक्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती। शाह० मान० : प्रभगर, ध्रम , क्रम , द्रशन, प्रव, धु ञ्च द् हां : द्रुगति, द्रुमेधिनो, द्रुध, प्रवत, किन्तु निय में उनके उदाहरण कम हैं : त्रुभिछ (दुर्भिक्ष)। ल युक्त संयुक्त व्यंजनों का लोप अशोक के उत्तर पश्चिम के लेखों में होता है, तुलसी प्रज्ञा Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु निय में प्राचीन रूप ल युक्त मिलते हैं : शाह० मान० अप, कप । निय : जल्पित, अल्प, जल्म (जाल्म-), शिल्पिगं । सामान्यतया त्व और द्व के अशोक के आलेखों में त (गिरनार में त्प) और दुब (गिरनार में द्व, शापबाझगढी में ब) होते हैं। वैदिक उच्चारण में जहां त्व और द्व के उच्चारण द्विमात्रिक (dissyllabic) तुअ, दुअ होते थे वहां स्वाभाविकतया त और द मिलते हैं और द्वि का उच्चारण एकमात्रिक monosyllabic होने से उसका वि होने की शक्यता है। नियप्राकृत में और उत्तरकालीन खरोष्ठी आलेखों में भी त्वत्प→ होता है : निय : चपरिश (चत्वारिशत्), खरोष्ठी आ० : सप-(सत्व-), एकचपरिशइ (एकचत्वारिंशत्), नियप्राकृत में द्व के ब और द्व दोनों मिलते हैं-बदश, बिति, द्वदश, द्वि, भद, द्वर। क्ष और त्स के छ और स होते हैं। इनमें छ पश्चिमोत्तर की विशेषता है, स तो सब आलेखों की सामान्य प्रक्रिया है। शाह० मान० : मोछ (मोक्ष) चिकिसा (चिकित्सा), अपवाद ; शाह० खुद्रक, मान० खुद (क्षुद्र-)। नियप्राकृत में क्ष का छ होता है किन्तु त्स वैसे ही रह जाता है । निय प्रा० : क्ष : छेत्र, योगछेम, भिछु, दछिन, अपवाद : खोरितग (क्षुर-), भिघु (भिक्षु-) स : संवत्सर, वत्स, अपवाद : त्सः ओसुक (औत्सुक्य-)। स युक्त संयुक्त व्यंजन क्वचित् अनुगामी दंत्य कि नति करता है, क्वचित् दंत्य बच भी जाता है। दूसरे आलेखों की अपेक्षा वह नतिभाव उल्लेखनीय है। शाह० मान० : ग्रहथ, अस्ति, उठन (उस्थान-), शाह० · अन्त, वित्रिटेन (विस्तृतेन), मान० : अढ (अष्टन्), शाह के आलेख में दंत्य और मूर्धन्य की नियतता नहीं, जैसे स्रेस्तमति, ठम्, अस्तवष (मान-अठवष), इससे अनुमान हो सकता है कि वहां मूर्धन्यों का उच्चारण वर्त्य होगा। स्म-स्व-स्प । सप्तमी ए. व. का स्मि (स्मिन्) होता है। स्पग्रम् (स्वर्गम्)। निय प्राकृत में स्म→म्म और सप्तमी ए. व. का म्मि होता है। तदनुसार खरोष्ठी आलेखों में भी। प्राकृत धम्मपद में तीनों रूप-स्म, स्व और स मिलते हैं : अनुस्मरो, अस्मि, स्वदि, प्रतिस्वदो,-स (सप्तमी ए. व. में) : अस्मि लोके परस च । इससे मालूम होता है कि पश्चिमोत्तर में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग में काफी विकल्प खण्ड २२, अंक १ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यमान थे। व्याकरण की दृष्टि से इस विभाग की एक दो हकीकत खास उल्लेखनीय हैं । संबंधक भूतकृदंत का प्रत्यय यहां त्वी है। वेद में इस प्रत्यय का काफी प्रयोग मिलता है। नियाप्राकृत में भी ति मिलता है : श्रुनिति (श्रुत्वा), अघुछिति (अपृष्टवा) । प्राकृत धम्मपद में भी उपजिति, परिवजेति । उल्लेखनीय बात तो यह है कि यहां सामान्यत: त्व का त्प होते हुए भी भूतकृदंत में त्व चालू रहता है। हेत्वर्थ का प्रयोग अशोक में और नियप्राकृत में----'नये' है : क्षमनये। अन्यत्र तवे मिलता है। निय में तुम् के कुछ रूप मिलते हैं : कर्तु, अगन्तु । यह पश्चिमोत्तर विभाग में अकारान्त नामों के प्रथमा ए. व. के दोनों प्रत्यय-ए और-ओ प्रचलित मालम होते हैं । प्रधानतः शाह० में-ओ है, मान० में-ए । निय प्राकृत में भी-ए अधिक प्रचलित है। उत्तरकालीन खरोष्ठी लेखों में तो दोनों का प्रयोग है, सिन्धु नदी के पश्चिम के लेखों मे-ए, अन्यत्र-ओ। प्राकृतधम्मपद में ओ और-उ मिलते हैं,-उ अधिक अर्वाचीनता के प्रभाव का सूचक है। निय प्राकृत में पंचमी ए. व. काआतः का भीए प्रचलित है : तदे, चडोददे, गोठदे, शवथदे । हम आगे देखेंगे कि यहए प्रत्यय मागधी की विशिष्टता माना जाता है।। ध्वनि की अपेक्षा निय प्राकृत के व्याकरण का स्वरूप अत्यंत विकसित है । भारत के अन्य प्राकृत साहित्य पर संस्कृत का प्रभाव गहरा है, किन्तु निय प्राकृत भारत बाहर सुरक्षित होने से शायद इस प्रभाव से मुक्त रहा, वही उसका कारण हो सकता है। निय प्राकृत का काल ई. की तीसरी सदी है, किन्तु उसके व्याकरण का स्वरूप तत्कालीन भारत के अन्य प्राकृत साहित्य की तुलना में अधिक विकसित है । उसके कुछ उदाहरण उल्लेखनीय है। नाम के सब रूपाख्यान अकारान्त नामों के अनुसार होते हैं ।-इ-उL ऋ कारान्त नामों को-अ लगा देने से ऐसी परिस्थिति बनाई गई है जिससे अपभ्रंश की याद आती है। अपभ्रश की तरह प्रथमा और द्वितीया में प्रत्ययभेद नहीं। भूतकाल कर्मणिभूतकृदंत से सूचित होता है-active भूतकाल- इसके उदाहरण तो हमको नव्य भारतीय आर्य भाषाओं से ही मिलेंगे। उदा--निय में 'दा' का active भूतकाल ऐसा होगाए. व. व. व. दितेमि दितम दितेसि दितेथ दित दितन्ति इसकी विकास रेखा इस प्रकार सूचित की गई है : दितः अन्निदितेमि, दिताः स्म-दितम, इसका आधार भी मिलता है, क्योंकि प्र. पु. ए. व. में कहीं-ओस्मि भी मिलता है, जो मूल रूप को सूचित करता है। जहां कर्मणिभूत का सूचन करना हो वहां-क का आगम होता है जैसे दित 'दिया', दितग (वा दितए) 'दिया हुआ'। इस ग्रंथ के समय को लक्ष्य में रखते हुए, भूतकाल का यह प्रयोग अत्यन्त महत्त्व का हो ५२ तुलसी प्रज्ञा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है। नव्य भारतीय आर्य भाषा में ऐसे प्रयोग प्रचलित हैं और इस विषय में झुल ब्लोखने आलोचना की है (लांदो आयीं पृ० २७६) । प्राचीन सिंहली और अर्वाचीन सिंहली में दुन्मो - (*दिन्न स्म:) 'हमने दिया', अर्वाचीन सिंहली में कपुवेमि (*कल्पितको स्मि) 'मैंने काटा', बिहारी में देखले हूं--'मैंने देखा', बंगला तृ पु. ए. ब. देखिल 'उसने देखा' इ.इ. । गिरनार के लेख की भाषा पश्चिमोत्तर और पूर्व से भिन्न भाषा प्रदेश सूचित करती है। इस भाषा की कुछ विशेषताएं इसे साहित्यिक पालि के निकट ले जाती है। पश्चिमोत्तर का कुछ प्रभाव तो गिरनार में मालूम होता ही है और वह गुजरात सौराष्ट्र की भाषास्थिति के अनुकूल ही है। पालि प्रधानतया मध्यदेश में विकसित साहित्यिक भाषा है और उसका संबंध प्राचीन शोरसेनी से होगा। किन्तु मध्यदेश में जो अशोक के लेख हैं उनकी भाषा पूर्व की ही-मगध की है। मध्यदेश में अशोक की राजभाषा समझना दुःसाध्य न होने से वहां के लेखों पर स्थानिक प्रभाव पड़ने की कोई आवश्यकता न थी। पश्चिमोत्तर और पश्चिमदक्षिण के प्रदेश दूर होने से, वहां की भाषा ने अशोक के शिलालेख की भाषा को उनके निजी ढांचे में डाली, यह भी उतना ही स्वाभाविक है। ऋ का सामान्यतः अ होता है, ओष्ठ्यवर्ण के सानिध्य में उ--- मग (मृग:-), मत (मृतः-), दढ (दृढः-) कतनता (कृतज्ञता), वुत्त (वृत्त-) मध्यदेश में सामान्यतः ऋ का इ होता है । श ष स का भेद नहीं रहता, इन सबके लिये स ही मिलता है। पश्चिमोत्तर के अनुसार क्ष का छ होता है। मध्यदेश में उसका ख मिलता बछा, छुद (क्षुद्र-) । अपवाद-इथीझख । स युक्त संयुक्त व्यंजन में स वैसा ही रहता है । अस्ति, हस्ति, सस्टि-, स्रष्टि । स्था उसके ईरानी रूप में-स्ता रूप में मिलता है, किन्तु उसका मूर्धन्यभाव भी होता है : स्टा-स्टिता, तिस्टंतो, घरस्त । सामान्यतया मध्यदेश में इसका हो जाता है। र और य युक्त संयुक्त व्यंजनों का सावर्ण्य होता है (assimilation)। व्य वैसा ही रहता है : अतिकातं (अतिक्रान्त), ती (त्रि०), परता (-2), सब, अपचं, कलान (कल्याण इथीभख (स्त्री-अध्यक्ष-)। मगव्य, कतव्य । त्व और त्म का त्प होता है : चत्पारो, आत्प। खण्ड २२, अंक १ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन शौरसेनी में ता मिलता है, तदनुसार सम्बन्धक भूतकृदंत में-स्वा+-पा मिलता है। हेत्वर्थ-छमितवे (*क्षमितुम्) द्व का द्व द्वादस में मिलता है। दुवे द्वे का प्रयोग भी मिलता है। अकारान्त पु० प्रथमा ए. व. का प्रत्यय सामान्यत :-ओ है, सप्तमी ए. व. का. म्हि । अशोक के शिलालेखों में मध्यदेश की भाषा के नमूने व्यवस्थित रूप से नहीं मिलते, किन्तु यदि उत्तरकालीन साहित्य पर दृष्टिपात करें तो अश्वघोष के नाटकों की नायिका और विदूषक की भाषा- जिसको ल्यूडसं यथार्थ प्राचीन शौरसेनी कहते हैं कि तुलना अशोक के गिरनार के लेख के साथ हो सकेगी। मध्यदेश की भाषा के कुछ लक्षण हमको गिरनार में मिलते हैं और गिरनार के साथ अश्वघोष की भाषा का साधर्म्य वधर्म्य कितना है उसका पता लग सकता है। मध्यदेश के कुछ लक्षण सर्वसामान्य है- अस् का ओ, श, ष, स का स। अश्वघोष की शौरसेनी में ज्ञ का न होता है, यद्यपि उत्तरकालीन वैयाकरणों ने ण्ण का विधान किया है, किन्तु गिरनार में भी न मिलता है : कृतज्ञता। र युक्त संयुक्त व्यंजनों का सावर्ण्य अश्वघोष की शोरसेनी में भी होता है । मध्यदेश की सामान्य प्रक्रिया ऋ→इ अश्वघोष में मिलती है, गिरनार में नहीं । संयुक्त व्यंजनों में व्य → व्व होता है, गिरनार में नहीं। ष्ट, ष्ठ का ट्ट होता है, गिरनार में स्ट ही रह जाता है। मध्यदेश की विशिष्ता क्ष→ख अश्वघोष की शौरसेनी में मिलती है, गिरनार में सामान्यतया छ मिलता है। अश्वघोष के नाटकों की भाषा प्राचीन है ही, इससे इसको प्राचीन शौरसेनी कहना ठीक ही है । यह प्राचीन शौरसेनी इस अवस्था में है जहां एकाध अपवाद को छोड़कर स्वरांतर्गत व्यंजनों का घोषभाव-त का द, जो बाद में शौरसेनी का प्रधान लक्षण हो जाता है--मिलता नहीं । प्रायः सब स्वरान्तर्गत म्यंजन अविकृत रहते हैं। इस प्राचीन शौरसेनी की मथुरा के लेखों से .. जो शौरसेनी का प्रभव स्थान हो सकता है--तुलना करना मुश्किल है, किन्तु यह अभ्यास स्वतंत्र चिंतन का विषय तो है ही। इन लेखों की भाषा पर से संस्कृत का आवरण हटा कर -- जो वहां की बोली पर लादा गया है-जब उसका अभ्यास होगा, तब इन हकीकतों पर अधिक प्रकाश जरूर डाला जा सकेगा। अशोक के पूर्व के लेखों के साथ केवल पूर्व के ही नहीं मगध के पश्चिम में लिखे गए कुछ लेखों को भी गिनना होगा। हमने आगे इस बात की चर्चा की है कि जहां मगध की राजभाषा दुर्बोध न थी, वहां के शिलालेख प्रायः पूर्व की ही शैली में लिखे गए । खास तौर से मध्यदेश में जो लेख मिलते हैं उनसे यह बात स्पष्ट होती है। वहां के राज्याधिकारी अशोक की राजभाषा से सुपरिचित होंगे इससे मध्यदेश की छाया उन लेखों पर खास मालूम नहीं होती और इससे मध्यदेश की बोली के उदाहरण हमको अशोक के लेखों में नहीं मिलते। इस वजह से कालसी टोपरा इ० के लेख पूर्व के धौली जोगड से खास भिन्न नहीं। पूर्व में जो ध्वनिभेद सार्वत्रिक है वह कालसी ५४ तुलसी प्रज्ञा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टोपरा में वैकल्पिक हैं। ऐसी एक दो विशेषताएं जरूर हैं : पूर्व में र का ल,-ओ का-ए, शब्दान्तर्गत - जैसे कलेति (करोति) सार्वत्रिक हैं, कालसी टोपरा में ये वैकल्पिक पश्चिमोत्तर के लेखों को छोड़कर सब जगह श ष स का स होता है, तदनुसार इस विभाग में भी स ही मिलता है। कालसी में परिस्थिति अनोखी है, वहां श ष का भी प्रयोग मिलता है। पहले नौ लेखों में कालसी में गिरनार की तरह श ष की जगह स ही मिलता है, एक दो अपवाद को छोड़कर । उसके बाद अनेक स्थान पर श ष का प्रयोग भी शुरू होता है । यह प्रयोग इतना अनियंत्रितता से होता है कि मूल संस्कृत के श ष स से भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं । उसके कुछ उदाहरणमूर्धन्य ष-पियदषा, यषो, अपपलाषवे (अपपरिस्रवः) उषुटेन, उषटेन, उशता, हेडिषे (ईदृश:) धंमपविभागे, धमपंबंधे, षम्यापरिपति (सम्यक प्रतिपत्तिः), पुषषा, दाशभतकषि, अठवषाभिसितषा (-स्य), पियष (-स्य) पानषतपहर्षे (प्राणशतसहस्त्रे), शतषहष (शतसहस्रमात्रः), अनुषये (अनुशयः), धंमानुशथि (धर्मानुशिष्टि-), षमचलियं (समचर्या), इ. इ. । तालव्य श–पशवति (प्रसूते), शवपाशंडानं (सर्वपाषण्डानां) शालवढि (सारवृद्धिः), शिया (स्यात्) पकलनशि (प्रकरणे) इ. इ. श ष के इन अनियंत्रित प्रयोगों से विद्वानों ने ऐसा निर्णय किया है कि कालसी में सामान्य प्रचार स का ही मानना चाहिए, ये श और प लेखक के (लहिया के) लिपिदोष से आ गए हैं। आगे चलकर, इन श कार और स कार की चर्चा करनी होगी। पूर्व के लेखों में स्वार्थ क का प्रयोग बढ़ता जाता है। कालासी टोपरा के लेखों में यह प्रयोग अधिक होता है। यहां के लेखों की एक और विशेषता क और ग का तालुकरण है, खास तौर से क का ... कालसी-नातिक्य, चिलथितिक्य, चिलठितिक्य, ___ वा मिक्येन, कलिग्येषु अलिक्यषुदले । टोपरा - अढकोसिक्य (*अष्टक्रोशिक्य), अंबाबडिक्य (आम्रवटिका)। क्वचित् क्वचित स्वरान्तर्गत क का घोषभाव होता है । अन्तियोग-Antiochus (गिरनार-अन्तियक), अधिगिच्य, हिद लोगम् । स और र युक्त संयुक्त व्यंजनों में स और र का सावर्ण्य होता है : अठ (अष्टन्,-अर्थ-), सब, अथि (अस्थि -)। निखमंतु, अंबा-(आम्र-)। खंड २२, अंक १ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयुक्त व्यंजनों में त और ब के अनुगामी य का इय होता है, द और क के अनुगामी य का सावर्ण्य होता है । अज (अद्य), मझ (मध्य-), उदान (उद्यान-), कयान (कल्याण-), पजोहतविये (प्रहोतव्यः), कटविये (कर्तव्य ) एकतिया (गिरनार-एकचा), अपवियाता (अल्पव्ययता), वियंजनते (व्यंजन:)। दिवियानि (कालसी-दिव्यानि । अन्यत्र भी मधुलियाये (मधुरताय), संयुक्त व्यंजनों में व्यंजन के अनुगामी व का उव होता है, किन्तु शब्दान्तर्गत त्व का त होता है सुवामिकेन (स्वामिकेन), कुवापि (क्वापि), आतुलना (आत्वरण) चत्तालि (चत्वारि)। स्म , म का फ होता है, किन्तु सप्तमी ए. ब. का प्रत्यय स्मि, सि ही है : तुफे, अफाक, येतफा (एतस्मात्) क्ष का सामान्यत: ख होता है, कुछ अपवाद भी हैं : मोख, खुद । छणति (क्षणति)। अकारान्त पु० नाम के प्र० ए० ब० के, अस् का-ए सावंत्रिक है। वर्तमान कृदन्त के-मीन, धौली जोगड़ में मिलते हैं : पायमीन, विपतिपाद्यमीन। पूर्व की भाषा के ये लक्षण हमारे लिए मागधी अर्धमागमी के प्राचीनतम उदाहरण हैं । मागधी अर्धमागधी के लक्षणों की चर्चाएं काफी हो चुकी हैं। मागधी का दूसरा प्राचीनतम उदाहरण जोगीमारा-रामगढ़ का है। यह उदाहरण है छोटासा, किन्तु करीब-करीब अशोक का समकालीन है और ल्युडर्स ने इसकी भाषा की ठीक आलोचना की है। शुतनुक नाम देवदशिक्यि तं कमयिथ बलनशेये देवदिने नम लुपदखे। इस छोटे से लेख की भाषा की सभी विशेषताओं की तुलना अशोक की पूर्व की भाषा के साथ हो सकती है। ___क का तालुभाव : देवदशिक्यि, अकारान्त पु० प्र० ए० व० का-ए प्रत्यय, र का ल : लुपदखे, बलनशेये। इसके अतिरिक्त स और श का श होना, जो मागधी की विशिष्टता है किन्तु अशोक के पूर्व के लेखों में भी अनुपलब्ध है वह हमें यहां मिलती है। अशोक के लेखों में पूर्व का श नहीं मिलता, मध्यदेश का स कार ही मिलता है। मागधी का श कार है तो पुराना इसमें शक नहीं। डॉ. चेटर्जी का सूचन है कि श कार ग्राम्य गिना जाता होगा, इससे इसको अशोक की राजभाषा में प्रवेश न मिला और स कार शिष्टता की वजह से प्रयुक्त होता है। शकार की ग्राम्यता के दूसरे आधार भी मिलते हैं । नाटकों के प्राकृतों में नीच पात्र मागधी का व्यवहार करते हैं और यहां स श का श होना उनकी मागधी की खास विशिष्टता है। अश्वघोष के नाटकों तुलसी प्रज्ञा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जो नाटकों के प्राकृत के प्राचीनतम उदाहरण हैं - ल्यूडर्स के मतानुसार, प्राचीन मागधी का प्रयोग किया गया है। उनके एक नाटक का खलपात्र 'दुष्ट', मागधी का प्रयोग करता है । इस पात्र की भाषा की अशोक की पूर्व की भाषा के साथ और जोगीमारा की मागधी के साथ तुलना की जा सकती है । अश्वघोष का प्राकृत, अशोक के प्राकृत से तीन चार शतक अर्वाचीन होते हुए भी, साहित्यिक शैली में लिखे जाने से, हमारे पुराणप्रिय देश में कुछ पुरानापन निभाता है, यह स्वाभाविक ही है । 'दुष्ट' की भाषा के ये लक्षण र काल, स श का श, अकारान्त पु० प्र० ए० व० का ए मागधी के लक्षण ही हैं । इनके अतिरिक्त कई लक्षण ऐसे भी हैं जो उत्तरकालीन वैयाकरणों की मागधी से मिलते नहीं, किन्तु वे प्राचीन मागधी के सूचक हैं- स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजन अविकृत रहते हैं, न का मूर्धन्यभाव नहीं होता, सर्वनाम के रूपाख्यानों में व्यक्ति वाचक के प्र. पु. ए. व. में अहकम् -- जो हगे का पुरोगामी है - का प्रयोग होता है । इन आधारों पर ल्यूडर्स खलपात्र की इस भाषा को प्राचीन मागधी कहते हैं और नाटकों की मागधी का यह पुरोगामी स्वरूप है ऐसा अभिप्राय प्रदर्शित करते हैं । अगर इसे प्राचीन मागधी कहा जाय और यह कहने में कोई खास दिक्कत नहीं, तो अर्धमागधी का स्वरूप क्या होगा ? अर्धमागधी शब्द का अर्थ क्या ? आगम साहित्य में बार-बार ऐसा कहा गया है कि भगवान अर्धमागधी भाषा में उपदेश करते हैं । अश्वघोष के नाटकों की भाषा की सहायता इस बारे में मिल सकती है । उनके नाटकों का एक पात्र गोवं. ल्यूडर्स के मत के अनुसार, अर्धमागधी का व्यवहार करता है । उसकी भाषा के लक्षण ये हैं : -अस्ए, र ल और श, सस । प्रथम दो लक्षण उसको मागधी के साथ मिलाते हैं, किन्तु तीसरा उसको मागधी से अलग करता है । इसके अतिरिक्त अकारान्त नान्यतर नामों के द्वि. व. व. के पुप्फा, वाक्यसंधि में पुप्फा येव, हेत्वर्थ कृदंत भुंजित, वर्तमान कृदंत गच्छमाने, स्वार्थिक-क की बहुलता ये सब लक्षण उल्लेखनीय हैं। पुप्फा और भुंजितये का साम्य अर्धमागधी से ही है और श सस होना अर्धमागधी का ही लक्षण है । इन आधारों से ल्यूडर्स इस पात्र की भाषा को प्राचीन अर्धमागधी कहते हैं । भरत के नाट्यशास्त्र के प्रख्यात विधान के अनुसार, नाटकों में अर्धमागधी का प्रयोग स्वाभाविक ही है । उत्तरकालीन नाटकों में यह प्रयोग नहीं मिलता, किन्तु अश्वघोष के पात्र की भाषा को प्राचीन अर्धमागधी कहने में कोई आपत्ति नहीं । पूर्व की भाषा वस्तुत:, अगर भाषा की दृष्टि से देखा के बोलीभेद कितने ? और किस तरह के ? → सु, र→ल, श, सस और कंठ्यों का तालुकरण । जाय तो, इस समय की, अशोक की पूर्व की भाषा लक्षण - अश्वघोष की प्राचीन मागधी के अस् के लक्षण -- अस्ए, र ेल, श, सश। एक ओर हम अश्वघोष की मागधी और बागीमारा लेख रख सकते हैं और दूसरी ओर अशोक की पूर्व की भाषा और अश्वघोष की अर्धमागधी को रख सकते हैं । इन दो बोलियों का एक मात्र भेदक लक्षण श और स का उच्चारण है । इतने कम आधार पर बोलीभेद नियत नहीं किए जाते । . बोली - विस्तार में बोलियों की भेदरेखा खिंचते समय हमारे सामने, कुछ अधिक एक ही खण्ड २२, अंक १ ५७ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण में और स्पष्ट रूप में ध्वनिभेद की रेखाएं होनी चाहिए । बुद्ध और महावीर प्रायः एक ही काल में और एक ही स्थल में धर्मोपदेश करते थे, इससे दोनों की व्यवहार भाषा भी एक ही होगी । उस प्रदेश की मान्य भाषा, जो कि सर्वत्र समझी जाती होगी, उनकी व्यवहार भाषा होगी । अत्यन्त ग्राम्य प्रयोग उनकी भाषा में आने का संभव कम है और फिर भी जिन आचार्यों ने उनके उपदेशों का संग्रह किया उन्होंने भी ऐसे ग्राम्य प्रयोगों को उनके साहित्य में रखा नहीं होगा । इससे ऐसा भी हो सकता है कि श और स दो बोली विभागों की भेदरेखा न हो किन्तु शिष्टता और ग्रामीणता का सूचक हो । उस प्रदेश का स्वाभाविक उच्चारण श हो, किन्तु शिष्ट उच्चारण स हो, और ऐसी परिस्थिति असाधारण नहीं | वर्तमान भाषाप्रदेशों में भी ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे । बुद्ध और महावीर उच्च कुल के राजकुमार थे, उनकी रहन-सहन, शिक्षा इ. के प्रभाव से शिष्ट प्रयोग ही उनके मुख से हुए हों यह स्वाभाविक है । तब इस समय में -- ईसा के पहले प्रथम पांच शतकों में बोलीभेद नियत करने के मागधी अर्धमागधी के भेद नियत हमारे पास नहीं । जिस भाषा में महावीर ने उपदेश उपरिकथित पूर्व की भाषा के लक्षणों से युक्त भाषा होगी, सकता है । हमने आगे चर्चा की है कि बुद्ध और महावीर के उपदेश उनकी ही भाषा में मिलना आज संभव नहीं, बौद्धों की पालि वा मागधी, जैनों की अर्धमागधी, मूल उपदेश की संवर्धित - विवधित आवृत्तियां ही हो सकती हैं, कहीं अल्प परिवर्तन, कहीं अधिक परिवर्तन । जैन आगमों की भाषा, जिनको सामान्यतथा अर्धमागधी कहा जाता है, वह उपरिकथित पूर्व की भाषा से दो तरह से भिन्न है । स्थूल दृष्टि से और काल दृष्टि से । आगमों की प्राकृत विकसित प्राकृत है । उनका स्थान, प्राचीन की अपेक्षा मध्यकालीन प्राकृतों के साथ है । प्राकृत भाषाओं के विकास को भाषा इतिहास की दृष्टि से तीन वा चार खंड में विभाजित करते हैं । प्राचीनतम प्राकृत के उदाहरण अशोक के लेखों में और पालि साहित्य के कुछ प्राचीन अंशों में मिलते हैं । इस काल की विशेषताएं संक्षेप में ये हैंऋ और लू का प्रयोग खत्म होता है । ऐ ओ, अय अब का ए, ओ, अंत्य व्यंजन और विसर्ग का लोप इस अंतिम प्रक्रिया से सब शब्द स्वरान्त होते हैं और कुछ अविकृत , रहते हैं । संयुक्त व्यंजनों में से कुछ में सावर्ण्य होता है और कुछ अविकृत रहते हैं विशेषतः र युक्त और कहीं-कहीं ल युक्त । स्वरान्तर्गत व्यंजनों का घोषभाव जैसे --- क का ग -- अपवादात्मक रूप से होता है, किन्तु विरल है, यह अपवाद भाषा की भविष्य की गति का सूचक होता है । यह प्राकृतों की प्रथम भूमिका । पूर्व की भाषा के कोई आधार करने के किया होगा, इतना ही अनुमान हो वह भाषा, दूसरी भूमिका के प्राकृतों में निय प्राकृत, अश्वघोष के नाटकों के प्राकृत, प्राकृत धम्मपद और खरोष्ठी लेखों की प्राकृतें आती हैं। इस भूमिका में स्वरान्तर्गत असंयुक्त व्यंजनों का घोषभाव और तदनन्तर घर्षभाव होता है । घर्षभाव की प्रक्रिया नियप्राकृत तुलसी प्रज्ञा ५८ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में स्पष्टतया मिलती है । यह अवस्था शब्दान्तर्गत असंयुक्त व्यंजनों के संपूर्ण ह्रास की पूर्वावस्था है। प्राचीन अर्धमागधी-आगमों की भाषा में जो कुछ प्राचीन हिस्से मिलते हैं, जैसे कि आचारांग और सूत्रकृतांग के कुछ अंश, इस भूमिका की अन्तिमावस्था में आ सकते हैं। इस समय में घोषभाव की प्रक्रिया सर्वसामान्य है, किन्तु स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा लोप नहीं होता, स्वरान्तर्गत महाप्राणों का ह भी सर्वथा नहीं होता । ___ तीसरी भूमिका में आते हैं साहित्यिक प्राकृत, नाटकों के प्राकृत और वैयाकरणों के प्राकृत। इन प्राकृतों में अन्यान्य बोलियों के कुछ अवशेष रह जाते हैं, किन्तु इनका स्वरूप केवल साहित्यिक ही है। इस भूमिका में स्वरान्तर्गत व्यंजनों का सर्वथा ह्रास होता है और महाप्राणों का सर्वथा ह होता है। मूर्धन्यों का व्यवहार बढ़ जाता है। चौथी भूमिका के प्राकृत ..... अन्तिम प्राकृत-- को हम अपभ्रंश कहते हैं। यह साहित्यिक स्वरूप हमारी नव्य भारतीय आर्य भाषाओं का पुरोगामी साहित्य है। यह केवल साहित्यिक स्वरूप है, बोली भेद अत्यन्त न्यून प्रमाण में दृष्टिगोचर होते हैं । अधिकांश, पूर्व से पश्चिम तक एक ही शैली में लिखा गया यह केवल काव्य साहित्य प्राचीन आगम साहित्य को हम दूसरी और तीसरी भूमिका के संक्रमण काल में और शेष आगम साहित्य को तीसरी भूमिका में रख सकते हैं। स्थल की दृष्टि से, अर्धमागधी पूर्व की भाषा होते हुए भी कालक्रम से पश्चिम-मध्यदेश-के प्रभाव से अंकित होने लगी। इस वास्ते पूर्व के श की जगह अर्धमागधी में स का प्रयोग शुरू होता है, पूर्व के-अस्→-ए की जगह पश्चिम का-ओ भी आगमों में व्यवहृत होता है, यद्यपि प्राचीन-ए भी आगमों में कई जगह सुरक्षित है ही। पूर्व के ल की जगह पश्चिम का र भी धीरे-धीरे व्यवहृत होता जाता है। इन सबसे यही सूचित होता है कि आगमों की पूर्व की भाषा का पश्चिमी संस्करण आगमों की भाषा का महत्त्व का प्रकार है। जैनधर्म पूर्व में पैदा होकर पश्चिम और दक्षिण में फैला और वहां ही उसके साहित्य के प्रथम संस्करण हुए। इसका दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि मगध-पाटलिपुत्र के ह्रास के बाद साहित्य और संस्कृति के केन्द्र भी पश्चिम में जा रहे थे। -डॉ० प्रबोध बे. पंडित प्रोफेसर्स क्वार्टर्स अहमदाबाद-३८०००९ खंड २२, अंक १ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृच्छकटिककालीन भारतीय संस्कृति [ कुमारी बब्बी भारतीय साहित्य परम्परा में महाकवि शूद्रक एवं उनकी अमरकृति मृच्छकटिक का अप्रतिम स्थान है । काव्य की उदात्तता एवं कल्पना की रमणीयता के साथ यथार्थ सामाजिक जीवन की त्रिपुटी का अलम्य उदाहरण मृच्छकटिक में प्राप्त होता है । तत्कालीन भारतीय समाज एवं संस्कृति के यथार्थ उपन्यस्त करने में कविप्रवर शूद्रक जितना सफल हुए हैं उतना शायद ही अन्य कोई कवि या नाटककार हो सका है । मृच्छकटिक में चारुदत्त और वसन्तसेना के प्रणयकीर्तन के साथ-साथ मानव स्वभाव एवं प्रकृति, जातीय गुण, पारम्परिक रीतिरिवाज, प्रकृति का मनोरम रूप आदि का सफलता पूर्वक उपस्थापन हुआ है । प्रस्तुत संदर्भ में मृच्छकटिक कालीन भारतीय संस्कृति पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है । इस संदर्भ में मृच्छकटिक में प्रतिपादित(१) सामाजिक व्यवस्था । (२) आर्थिक जीवन । (३) मनोरंजन | (४) भोजन । (५) परिधान । (६) प्रसाधन । (७) धार्मिक जीवन | (८) शिक्षा और (९) कला । -- -आदि विषयों पर संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत है । १. सामाजिक व्यवस्था तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में परिवार की स्थिति अच्छी थी । पति-पत्नी, बच्चे और वृद्ध पुरुष एक परिवार में रहते थे। परिवार का एक प्रधान होता था जो सबकी देखभाल करता था। नायक चारुदत अपने परिवार का प्रधान था । उसकी पत्नी का नाम धूता एवं पुत्र रोहसेन था । बाद में वसन्तसेना भी उसके जीवन में आती है तथा अपने सद्गुणों के कारण उसके घर की सदस्या बन जाती है। मिलन के बाद वसन्तसेना को देखकर घूता कहती है दिट्टिआ कुसलिणी बहिणिआ वसन्तसेना -- अहुणा कुसलिणी संवृत्तम्हि ।" खण्ड २२, अंक १ ६१ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहु विवाह प्रथा प्रचलित थी। तत्कालीन समाज में जाति-प्रथा प्रचलित थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्गों में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता थी। उनकी विशेष प्रतिष्ठा थी। पर्व के अवसरों पर उन्हें भोजन कराया जाता था और दक्षिणा भी दी जाती थी। सूत्रधार अपनी पत्नी के उपवास के उपरान्त ब्राह्मण को निमन्त्रित करता है अज्ज संपण्णं भोअणं णीसवत्तं अ। अवि अ दक्खिणा का वि दे भविस्सदि ॥२ कुछ ब्राह्मण समृद्ध थे जो दक्षिणा स्वीकार नहीं करते थे। सूत्रधार के द्वारा निमन्त्रित किए जाने पर विदूषक मैत्रेय स्पष्टतया मना कर देता है। जाति प्रथा होने पर भी जातीय अंकुश शिथिल था। ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी लोग विभिन्न धंधों में व्यावृत्त रहते थे। चारुदत्त स्वयं सार्थवाह था तथा उसके पिता एवं पितामह भी सार्थवाह थे। शर्विलक दान दक्षिणा न लेने वाले तथा चारों वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण का पुत्र था लेकिन वेश्या मदनिका के प्रेमपाश में बंधकर चौर्य कर्म में संलग्न हो जाता है। चौर्य कर्म के बाद अपने आपको कोशते हुए कहता है-- __ कष्टमेवं मदनिका गणिकार्थे ब्राह्मणकुलं तमसि पातितम् ।' इस प्रकार स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि जाति अथवा वर्ण का अंकुश ढीला पड़ गया था। चारुदत्त तथा शविलक दोनों ने वेश्या से विवाह कर लिया था। जाति के आधार पर राज्य के ऊंचे पदों से कोई वंचित नहीं किया जाता था। वीरक और चन्दनक नापित तथा चर्मकार होते हुए भी उत्तरदायी पदों पर आसीन थे। सुरक्षा विभाग के प्रमुख अधिकारी थे। अस्पृश्यता तथा छूआछूत की भावना का अभाव परिलक्षित होता है। एक ही वापी में ब्राह्मण और नीच जाति के लोग भी स्नान करते थे -- वाप्यां स्नाति विचक्षणो द्विजवरो मूोऽपि वर्णाधमः ।' वैश्य लोग व्यापार करते थे। अपने देश के अतिरिक्त विदेशों में भी उनका व्यापार होता था। लेकिन विदूषक की दृष्टि में व्यापारी लोगों पर जनसाधारण का विश्वास नहीं था ऐसी मान्यता प्रचलित थी कि सुवर्णकार चोर होते थे तथा कायस्थ न्यायालय के सर्प माने जाते थे .... कायस्थ सर्पास्पदम् । २. आर्थिक जीवन मृच्छकटिक कालीन समाज आर्थिक दृष्टि से समृद्ध था। कृषि और व्यवसाय के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के शिल्प अर्थोपार्जन के प्रमुख साधन थे। जहाजों से समुद्र पार तक व्यापार होता था। धनिकों के यहां सुवर्ण राशि थी, अनेक प्रकार के सुवर्णाभूषण थे। चारुदत्त की धूता की चतुःसमुद्रसारभूता रत्नमाला और वसंतसेना के रत्न एवं आभूषण एवं स्वर्ण की गाड़ी से स्पष्ट संकेत मिलता है कि उस समय ६२ तुलसी प्रज्ञा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्ण की प्रधानता थी । व्यापारी अपने धन का बहुत भाग धार्मिक कार्यों में व्यय करते थे । चारुदत्त ने अनेक उपनगर, विहार, आराम, देवालय, तडाग और कूपों का निर्माण कराया था । न्यायालय में चारुदत्त पर अभियोग लगाए जाने पर विदूषक कहता है भो भो अज्जा जेण दाव पुरट्ठावणविहारारामदेउलतडागकूबजूवेहि अलंकिदा णअरी उज्जइणी । जो लोग व्यापार से धन-अर्जन कर सम्पन्न हो जाते थे या किसी कारण वशात् सम्पन्न थे, उनकी बहुत सी सम्पत्ति वेश्याएं ले लेती थीं, इसलिए वेश्याओं का आर्थिक जीवन काफी सम्पन्न था। उनकी सम्पत्ति कुबेर के समान थी । उनके अनेक भवन होते थे जो धन-दौलत, हाथी-घोड़े आदि से भरे रहते थे । जो लोग व्यापार एवं कृषि नहीं करते थे वे राज्य सेवा से अपनी वृत्ति अर्जित करते थे । ३. मनोरंजन उस समय अनेक प्रकार के मनोरंजन के साधन थे, जिनमें द्यूतक्रीड़ा, संगीत, नृत्य आदि प्रसिद्ध हैं । उस समय जुए की प्रथा अत्यधिक थी। जुआरियों की अपनी मण्डली तथा उसके अपने नियम थे जो सबके लिए पालन करना अनिवार्य था । जुए को सरकारी मान्यता प्राप्त थी । यदि कोई हारा हुआ जुआरी धन की अदायगी नहीं करता था तो न्यायालय में वाद उपस्थित किया जाता था । द्यूतकर कहता हैं— लाभउलं गदुअ णिवेदम्ह ।' -- अर्थात् राजकुल में जाकर निवेदन किए देते हैं । संगीत का भी काफी प्रचार था। रेमिल सुप्रसिद्ध गायक था जो चारुदत्त आदि प्रधान पुरुषों का अपने सुस्वर गायन के द्वारा मनोरंजन किया करता था। बच्चों में गाड़ी द्वारा खेलने की पद्धति का भी उल्लेख मिलता है। रोहसेन पड़ोसी के बच्चे की सोने की गाड़ी के समान गाड़ी के लिए रो रहा था । मिट्टी की गाड़ी उसे पसन्द नहीं थी । वेश्या वसन्तसेना ने मिट्टी की गाड़ी को अपने आभूषणों से लाद दिया था। रोते हुए रोहसेन को आश्वासन देते हुए कहती है (अलङ्कारमृच्छकटिकं पूरयित्वा ) जाव कारेहि सोबण्णसअडिमं । ४. भोजन मृच्छकटिक में अनेक प्रकार को भोज्य सामग्रियों का उल्लेख मिलता है । सूत्रधार के घर में उसकी पत्नी द्वारा आयोजित 'अभिरूपपति' व्रत के अवसर पर अनेक प्रकार के पकवान बनाए गये थे आमितण्डुलोदअपवाहा रच्छा, लोहकडाहपरिवत्तण कसण सारा किदविसेसआ विअ जुअदी अहिअदरं सोहदि भूमी । सिद्धिगन्धेण उद्दीविअन्ती विअ अहिअं बाधेदि मं बुभुक्खा । " चावल का प्रयोग अत्यधिक होता था । उसे विविध प्रकार पकाया जाता खण्ड २२, अंक १ ६३ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था--उदाहरणतः तंडुल, भक्त, गुड़ोदन, कलमोदन, पायस आदि । हाथियों को भी तैल मिश्रित लड्डू खिलाया जाता था। घी, दही तथा दूध का भोजन के अंग के रूप में प्रयोग होता था। मोदक तथा अपूपक मिष्ठान्न थे। हींग, जीरा, भद्रमुस्त, वचा, सोठ तथा मिर्च के चूर्ण आदि मसालों का प्रयोग होता था। शाक, विभिन्न आचारों एवं लाल मूली या गाजर का चटनी का भी उपयोग होता था। मच्छली मांस सामान्यभोजन का बहुमूल्य अंश था। यह तामसिक भोजन उच्च घरानों में, शकार जैसे लोगों के यहां अधिक प्रयोग किया जाता था। आठवें अंक में शकार विट से कहता है हगूज्जले जीलकभद्दमुश्ते वचाह गण्ठी शगुडा डा शुष्ठी।" एशे मए शेविद गन्धजुत्ती कधं ण हग्गेमधुलश्शले त्ति ॥ मद्यपान की प्रथा प्रचलित थी। सीधु, सुरा तथा आसव तीन प्रकार के मादक पेय का उल्लेख आया है सीधुसुरासवमत्तिआ०...।" ५. परिधान उस काल में अनेक प्रकार के परिधान प्रचलित थे। स्त्री पुरुष दोनों प्रावारक (उत्तरीय) का प्रयोग करते थे। विवाहित नारियां अवगुंठन ओढ़ती थी। वसन्तसेना को ले जाने के लिए गाड़ी भी अवगुंठन युक्त थी । कर्णपूरक तथा शकार वस्त्र चमकीलेभड़कीले थे। उस समय लोग तौलिया (स्नान शाटी) का प्रयोग करते थे। मैत्रेय की तौलिया जीर्ण-शीर्ण थी जिसमें वसन्तसेना का आभूषण लपेटा हुआ था। चारुदत्त का प्रावारक चमेली पुष्प के सुगन्ध से वासित था। कर्णपूरक से वसन्तसेना कहती कण्णऊरअ, जाणीहि दाव कि एसो जादीकुसुमवासिदो पावारओ णवेत्ति ।" वसन्तसेना का जब शकार पीछा कर रहा था उस समय वह लाल रंग की रेशमी साड़ी पहने हुए थी। विट कहता हैकि यासि बालकदलीव विकम्पमाना __ रक्तांशुकं पवनलोलदशं वहन्ती। रक्तोत्पल करकुड्मलमुत्सृजन्ती टङ्कर्मन:शिलगुहेव विदार्यमाणा ॥१४ उसकी मां रेशमी वस्त्रों को धारण करती थी तथा उसका भाई भी पट्ट प्रावारक को धारण करता था। चारुदत्त ने कर्णपूरक को तथा शकार ने विट को, वसन्तसेना की हत्या के लिए सैकड़ों सूत्रों से निर्मित प्रावारक देने का प्रलोभन दिया था जदिच्छशे लम्बदशाविशालं पावालअ शुत्तशदेहिं जुत्तं । ५ मंशं च खादं तह तुट्टि कादं चुहू चुहू चुक्कु चुहू चुहूति ॥ भिक्षु लालवस्त्र (चीवर) धारणा करते थे। गाड़ियों को ढकने के लिए तुलसी प्रज्ञा Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्त्र का उपयोग होता था, जिसको वर्धमानक भूल गया था और इसी को लाने के कारण गाड़ियों की अदलबदली हुई थी। बसन्तसेना की माता तैल युक्त जूते पहनती थीउवणह जुअलणिक्खित तेल्ल चिक्कणेहि __पादे हिं उच्चासणे उवविट्ठा चिट्ठदि ।" ६. प्रसाधन सामग्री तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रसाधन सामग्री में आभूषण, पुप्पों की माला, विभिन्न प्रकार के विलेपन आदि प्रमुख थे। अलंकारों में कुण्डल, नूपुर तथा मणिनिर्मित करधनी का प्रयोग समृद्ध घरानों में किया जाता था। वसन्तसेना जैसी स्त्रियां इन आभूषणों को धारण करती थी । पुरुष अंगूठी तथा कटक (कंकण) धारण करते थे। वसन्तसेना के महल के छठे प्रकोष्ठ में विविध प्रकार के बहुमूल्य रत्नमणियों द्वारा आभूषण निर्माण किए जाने का विवरण मिलता है।" आभूषणों के बाद शृंगार प्रसाधन में पुष्पों की मालाओं का उपयोग किया जाता था। वसन्तसेना पुष्प की माला पहनती थी। विट कहता है--हे भीम तुम्हारी माला से उत्पन्न होने वाली यह गन्ध तथा नूपुर के शब्द तुम्हें सूचित कर देंगे-- त्वां सूचयिष्यति तु माल्यसमुद्भवोऽयं गन्धश्च भीरु मुखराणि च नपुराणि ॥४ उसके छठे प्रकोष्ठ में शंख, कुंकुम, कस्तूरी, चन्दन रस तथा सुगन्धित लेप के प्रयोग का विवरण मिलता है। ७. धार्मिक जीवन __मृच्छकटिक काल में वैदिक धर्म अपनी विकसित अवस्था में था। अनेक प्रकार के यज्ञ एवं याज्ञिक क्रियाएं समाज में प्रचलित थीं। पूजा-पाठ, बलि, तर्पण आदि क्रियाओं का विशेष महत्त्व था। देव-पूजा, बलिकर्म आदि में चारुदत्त निरत दिखाई पड़ता है। विदूषक के द्वारा पूजाकर्म पर प्रश्न चिह्न खड़ा किए जाने पर वह कहता है तपसा मनसा वाग्भिः पूजिता बलि कर्मभिः । तुष्यन्ति शमिनां नित्यं देवता: कि विचारित:।। सामान्य जनता विभिन्न प्रकार के उपवास, व्रत आदि किया करती थी तथा ब्राह्मणों को दान देती थी। निम्नवर्ग के लोग भी धर्म के प्रति श्रद्धालु एवं जागरूक थे। स्थावरक विट आदि के स्थान से यह प्रतीत होता है। परलोक और पुनर्जन्म में विश्वास था। विट कहता हैएनामनागसमहं यदि घातयामि केनोडुपेन परलोकनदीं तरिष्ये ॥ बौद्ध संन्यासियों की स्थिति अच्छी नहीं थी। उनका दर्शन अपणकुन समझा जाता था। कुछ भिक्षु सिर मुंडाकर भी संसारिक वासनाओं में फंसे रहते थे। संभवतः ऐसे ही लोगों के लिए कहा जाता था -- खण्ड २२, अंक १ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ शिल मुण्डिदे तुण्डमुण्डदे चित्त ण मुण्डिते कीश मुण्डिते । जाह उण अचित्तमुण्डिदे शाहु शुरु शिल ताह मुण्डिते ॥ धार्मिक मान्यताओं के साथ कुछ अन्य प्रकार के लोक विश्वास भी प्रचलित थे । कुछ ग्रहों के योग को अनिष्ट समझा जाता था अङ्गारकविरुद्धस्य प्रक्षीणस्य बृहस्पतेः । ग्रहोsयमपरः पार्श्वे धूमकेतुरिवोत्थितः ।। २२ अनेक प्रकार के शकुन और अपशकुन पर भी विचार किया जाता था । सामने कौवे का रूखे स्वर में बोलना, पुरुष के लिए बायीं आंख फड़कना आदि अपशकुन माने जाते थे रूक्षस्वरं वाशति वायसोऽय मात्मृत्या मुहुराह्वन्ति । सव्यं च नेत्रं स्फुरति प्रसह्य २३ मानिमित्तानि हि खेदयन्ति ॥ स्खलति चरणं भूमौ न्यस्तं न चार्द्रतमा मही । स्फुरति नयनं वामो बाहु मुहुश्च विकम्पते ॥ २४ ८. शिक्षा उस समय ब्राह्मण वेद अध्ययन में निपुण । रामायण, महाभारत, पुराण, गीता आदि का भी अध्ययन किया जाता था । गणित और ज्योतिष भी पढ़े जाते थे । शूद्रक विविध विद्याओं में निष्णात था । वह गणित, नाट्यविद्या, हस्तशिक्षा आदि में निष्णात था ऋग्वेदं सामवेदं गणितमथ कलां वैशिकीं हस्तिशिक्षा | M हस्तिविद्या के अतिरिक्त चौर्यविद्या का भी प्रभूत प्रचार-प्रसार था। सेंध लगाने के भी नियम थे । " कनकशक्ति, भास्करनन्दी तथा योगाचार्य इस शास्त्र के आद्याचार्य माने जाते थे नमो वरदाय कुमार कार्तिकेयाय नयो भास्कर नन्दिने नमः कनकशक्तये ब्रह्मण्यदेवाय देवव्रताय । नमो योगाचार्याय यस्याहं प्रथमः शिष्यः । १७ चौर्य में बल एवं साहस के अतिरिक्त शिक्षा - बल की आवश्यकता थी । चोर शर्विलक कहता है कृत्वा शरीरपरिणाहसुखप्रवेशं शिक्षा बलेन च बलेन च कर्ममार्गम् । " ६. कला कलाक्षेत्र में 'नृत्य, गीत, अभिनय एवं वाद्य कला विकसित अवस्था में थी । स्वयं महाकवि शुद्रक 'वैशिकी कला' में निपुण था । वसन्तसेना के लिए विट ने कहा था कि वह नृत्य गीतादि के अभ्यास से दूसरों को ठगने में कुशल हो गई है और अपना स्वर परिवर्तन भी कर लिया है ६६ तुलसी प्रशा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इयं रङ्गप्रवेशेन कलानां चोपशिक्षया । वञ्चनापण्डितत्वेन स्वरनैपुण्यमाश्रिता ॥ २९ वसन्तसेना के महल के तीसरे प्रकोष्ठ में संगीत के अभ्यास के लिए विशिष्ट व्यवस्था की गई थी । रेमिल नगर का सुप्रसिद्ध गायक था । उसके सुन्दर स्वर पर चारुदत्त आकृष्ट था । इस प्रकार मृच्छकटिक काल में भारतीय संस्कृति समृद्ध थी । जातीय-नियमों में शिथिलता थी । सन्दर्भ : १. मृच्छकटिक, M, R. Kale सम्पादित, मोतीलाल बनारसीदास, १९८८, पृ. ४०२ २. तत्रैव प्रथम अंक, पृ. १८ ३. तृतीय अंक पृ. १२० ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. on १९. २०. २१. २२. २३. २४.. २५. २६. २७. २८. २९. 17 33 17 73 37 37 ,, पृ. ९० 13 " 17 33 " 33 33 37 22 १.३२ ९.१४ 33 साहित्य भण्डार मेरठ संस्करण, सम्पादक - चतुर्थ अङ्क, वसन्तसेना का गृहवर्णन 17 ,, १.३५ ,,१.१६ ,,, ८.२३ ,, ८.३ ९.३३ ९.१० ९.१३ १.४ 37 पृ. २४० पृ. ८ ८.१३ ४.३० पृ. १०२ १.२० ८.२२ पृ. १८० पृ. १७६ ३.१३ पृ. १२० 12 ,, ३.९ १.४२ खण्ड २२, अंक १ -डॉ० श्रीनिवास शास्त्री - कुमारी बब्बी शोध छात्रा, प्राकृत विभाग कंवरसिंह विश्वविद्यालय, आरा ६७ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवभूति की दृष्टि में परिवार का स्वरूप | मधुरिमा मिश्र कवि क्रान्तदर्शी होता है । उसकी दृष्टि पैनी, प्रतिभा बहुमुखी एवं विचारधारा गम्भीर होती है । वह अपनी आंखों से जिन-जिन चीजों को देखता है, जिन परिस्थितियों से गुजरता है उसे अपने मानस में संग्रह करता है फिर अपनी प्रतिभा के बल पर उसे सुन्दर और आकर्षक बनाकर काव्य के रूप में प्रस्तुत करता है । भवभूति स्वयं पण्डित थे, आदर्शवादी थे और राजदरवार के सुख और सम्मान पा चुके थे, उनके अनुभव सचमुच उपादेय होंगे । यद्यपि उन्होंने एक समाजशास्त्री के रूप में परिवार और पारिवारिक जीवन के विषय में न कुछ सोचा है, न कहा है, फिर भी एक साहित्यकार होकर भी जो कुछ कहा है सचमुच वह बहु उपयोगी है। परिवार के सम्बन्ध में इनके विचार संकेत रूप में मिलते हैं । उन स्थलों की मीमांसा करने पर ही कवि की धारणाओं का पता चलता है । भवभूति के इन विचारों को निम्नलिखित क्रम में अभिव्यक्त किया जा सकता है। स्थापित किये जाने से घरेलू (i) परिवार की विस्तृत परिधि महाकवि भवभूति परिवार के विषय में परम्परागत विचार का अनुमोदन करते हैं । परिवार केवल एक व्यक्ति, उसकी पत्नी और उसकी संतान तक ही सीमित न हो अपितु उसकी परिधि दादा-दादी, चाचाचाची, भाई-भतीजे की सीमा से भी बाहर दूर-दूर तक हो । उसकी परिधि गृहस्थ के घर से संन्यासी के आश्रम तक विस्तृत हो । परिवार में रक्त सम्बन्ध से जुड़े हुए सभी सदस्य तो साथ रहें ही, विरक्त होकर आश्रम में निवास करनेवाले को भी सम्मिलित किया जाय । आश्रमवासियों के साथ पारिवारिक सम्बन्ध क्रिया-कलापों में सात्विकता का संचार होगा, तपस्या की पवित्रता से सदस्यों में नैतिकता का विकास होगा, व्यवस्था में सुदृढ़ता आएगी राजा जनक के परिवार में कुशध्वज का परिवार भी है । उस परिवार का सम्बन्ध महर्षि विश्वमित्र तक प्रसृत है । महर्षि जनक - परिवार के एक अभिन्न अंग हैं । दोनों एक-दूसरे के क्रिया-कलापों को जानते हैं, उनमें भाग लेते हैं विश्वामित्र भी जनक - परिवार की सुरक्षा एवं समृद्धि के लिए सतत यत्नशील हैं । ऋषि शतानन्द भी राजा जनक के परिवार के अंग हैं । परशुराम द्वारा क्रोध प्रदर्शित करने पर शतानन्द जोरदार रूप में प्रतिरोध करते हैं । शतानन्द इस परिवार में गृह सदस्य की तरह रहते आये हैं । ये अपने तपोबल से जनककुल की रक्षा करने के लिए तत्पर हैं । शतानन्द के ऐसे विचारों से महर्षि विश्वामित्र बड़े प्रसन्न हैं तथा उनकी राष्ट्र रक्षक ब्राह्मण के रूप में प्रशंसा करते हैं । श्रीराम का परिवार भी । खंड २१, अंक १ ६९ 1 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसिष्ठ, विश्वामित्र और अष्टावक्र तक फैला हुआ है। अष्टावक्र आकर श्रीराम को उनके गुरुजनों का संदेश सुनाते हैं। महर्षि वाल्मीकि विपत्ति में पड़ी हुई सीता का पालन करते हैं। उनके बच्चों के लिए 'धात्रीकर्म' करते हैं, पालते हैं, शिक्षा-दीक्षा देकर उचित समय पर समुचित अधिकारी (श्री राम) के पास राजदरबार में पहुंचा देते हैं। इन उद्धरणों से स्पष्ट विदित होता है कि परिवार-स्थापना में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना होनी चाहिए। गार्हस्थ्य जीवन का सम्बन्ध जब तपस्विजनों से होता है तो पारिवारिक कार्यों का संचालन सुचारु रूप से होता है, परिवार की समृद्धि होती है और समाज में उसको प्रतिष्ठा मिलती है। (ii) गृहस्थ का अग्निहोत्र होभवभूति को वैसा ही गृहस्थ परिवार पसन्द है जिसके यहां विधिवत् अग्निहोत्र होता है। यह बात सही है कि अग्निहोत्र कर्म गृहस्थे को बन्धन में डाल देता है परन्तु इसका अनुष्ठान बड़ा लाभकर है। इससे परिवार के सदस्यों में धार्मिक प्रवृत्ति का संचार होता है। राजा जनक एवं उनके परिवार की ख्याति का कारण अग्निहोत्र ही हैं। (iii) नैतिकता को प्रश्रय देना -नैतिकता मनुष्य का महान् गुण है । नैतिक बल से ही कोई व्यक्ति संसार में अक्षय कीति स्थापित करता है। जो सदाचारी होते हैं वे ही परिवार के सदस्यों के समुचित भरण-पोषण के लिए दत्तचित्त रहते हैं । वे ईमानदारीपूर्वक सबको समान रूप से देखते हैं और समान प्रगति के लिए अवसर देते हैं। कामन्दकी एक संन्यासिनी है, विरक्त है, पारिवारिक बन्धन से मुक्त है, फिर भी पारिवारिक जीवन से दूर नहीं है। उसके लिए तो साथी, सहपाठी, पड़ोसी सबका परिवार अपना है । वह तो दूसरे के हित के लिए ही सोचती रहती है और यत्नशील रहती है । देवराज उसके सहपाठी एवं मित्र हैं। माधव देवराज का पुत्र है। मकरन्द माधव का मित्र है। कामन्दकी का माधव के प्रति पुत्र जैसा प्रेम है। वह हमेशा यही चाहती है कि देवराज और भूरिवसु की प्रतिज्ञायें पूरी हों, माधव सुरक्षित रहे, माधव का विवाह योग्य कन्या मालती से ही हो। जब कभी माधव या मकरन्द अस्वस्थ हो जाते हैं, तब वह वेचैन हो जाती है। उनके स्वस्थ हो जाने पर उसे असीम प्रसन्नता होती है। लगता है कि वही अस्वस्थ थी जो अब स्वास्थ्य लाभकर इतनी प्रसन्न हो रही हो। कामन्दकी की उदारता एवं सच्चरित्रता ही देवराज एवं भूरिवसू के परिवार को सुरक्षित रखने का साधन है। यदि कामन्द की उदार भाव से सहयोग नहीं करती तो मालती बूढ़े नन्दन के हाथ में दे दी जाती, फिर उसका जीवन गहित हो जाता। निश्चय ही परिवार के सदस्यों में नैतिकता होनी चाहिए। समाज के जो-जो व्यक्ति हमारे उपकारक हैं हमारा पारिवारिक विस्तार वहां तक है। श्रीराम ने दुःख की अवस्था में अरुन्धती, वसिष्ठ, विश्वामित्र, धरित्री, जनक, अपने जनक, अपनी जननी, सुग्रीव, हनुमान, विभीषण और त्रिजटा का स्मरण किया है। श्रीराम स्वयं चरित्रवान् हैं। ये अपने सभी सहयोगियी का स्मरण करते हैं तथा स्वयं को इनसे उपकृत मानते हैं। इन सभी जनों को ये अपने परिवार के सदस्य के रूप में मानते हैं। श्री राम द्वारा याद किये गये सभी व्यक्ति चरित्रवान, सदाचारी एवं तुलसी प्रज्ञा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नैतिक बल से आपूरित हैं । इसीलिए श्रीराम की प्रतिष्ठा भी है । निश्चय ही इन पात्रों को एक पारिवारिक सूत्र में बांधकर कवि ने यह दिखलाना चाहा है कि सदस्यों में नैतिकता का होना अनिवार्य है। नैतिक बल के विना मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन जितना अधूरा एवं निष्फल होता है, उतना ही पारिवारिक और सामाजिक जीवन भी। (iv) पारिवारिक जीवन ही श्रेष्ठ --- मनुष्य अपना जीवन अकेले रहकर व्यतीत कर सकता है, विवाहित होकर संतति जनन भी कर सकता है और पति-पत्नी एक साथ भी नहीं रह सकता है । अर्थात् दाम्पत्य सूत्र में ग्रथित किन्तु दूर-दूर रहने वाले स्त्री पुरुष भी जीवन-यापन कर सकते हैं। परन्तु वह जीवन कवि को कदापि पसन्द नहीं है । ये तो चाहते हैं कि हर व्यक्ति विवाहित एवं पारिवारिक (गार्हस्थ्य) जीवन व्यतीत करे । परिवार में पति-पत्नी हों, उनके प्यारे-प्यारे बच्चे हों। पत्नी के हृदय में बच्चों के प्रति असीम वात्सल्य हो, स्तनों में दूध हो और पति के प्रति प्रगाढ़ अनुराग हो । सबको एक साथ मिलकर रहने में जो आनन्द मिलता है, वह पृथक्-पृथक रहकर नहीं मिल सकता। उस स्थिति में भी उसे आनन्द की प्राप्ति या अनुभूति नहीं हो सकती, जबकि पति-पत्नी बच्चे एक साथ, एक घर में रहें किन्तु न तो पति का पत्नी के प्रति, न पत्नी का पति के प्रति, न स्त्री-पुरुष का बच्चों के प्रति और न बच्चों का मां-बाप के प्रति स्नेह हो, श्रद्धा हो। ऐसी स्थिति में भी जीवन नारकीय हो जायगा । सभी साथ रहें, प्रेम सूत्र में बंधकर रहें, मर्यादित रहें--यही सुन्दर परिवार का स्वरूप है। वनवासकाल में सीता एकाकिन है। दोनों पुत्र वाल्मीकि आश्रम में है । यह तमसा के साथ छाया रूप में पंचवटी विचरण कर रही है । वार्तालाप के क्रम में उन्हें पुत्रों की याद आती है, स्तनों में दूध भर जाता है; उधर श्रीराम भी उसी जगह है। सीता को क्षण भर के लिए पारिवारिक सुख की अनुभूति होती है। वह कहती है कि एक क्षण के लिए मैं संसारिणी हो गयी हूं। यहां सीता की उक्ति से असीम आनन्दानुभूति की अभिव्यञ्जना होती है । लगता है पारिवारिक जीवन के लिए सीता के हृदय में उत्कण्ठा है, ललक है । परन्तु वह कहां से मिलेगा ? दुर्लभ है। अभी पुत्रों की याद मात्र से पुत्र संयोग का अनुभव करती है और आर्यपुत्र को तो नयनों से निहार रही है। कवि भवभूति की लेखनी इतनी सशक्त है जो सीता के मनोभावों को यहां इतनी सफलता से प्रकट कर सकी है। सीता की वह प्रसन्नता केवल अनुभावन करने योग्य है, शब्दों से अभिव्यक्त करने योग्य नहीं। सीता की एक ही उक्ति यह बतलाने के लिए पर्याप्त है कि गार्हस्थ्य जीवन ही सर्वोपरि है। पारिवारिक जीवन में जो आनन्द है वह किसी अन्य आश्रम में नहीं। भवभूति की दृष्टि में पारिवारिक जीवन ही सर्वश्रेष्ठ संक्षेपतः, महाकवि भवभूति परिवार को एक व्यक्ति तक सिमट कर नहीं रखना चाहते । ये 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना के समर्थक हैं। उन्होंने परिवार के सदस्यों को नैतिकता से संवलित होने की प्रेरणा दी है। गृहस्थ का संबंध तपस्वी से भी हो ताकि तपः जन्य पवित्रता परिवार में आवे । गृहस्थ अग्निहोत्री हो। पारिवारिक जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। खण्ड २२, अंक १ ७१ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दभ : १. महावीर चरित १-११ २. तत्रैव तृतीय अंक, पृ० ११५ ३. , ३. १७-१८ ४. उत्तररामचरित १-११ ५. तत्रैव द्वितीय अंक पृ० १५१-१५३ ६. उ. च. ४. ३३ ७. मालती माधव, चतुर्थ अंक पृ० १७१-१७३ ८. उ. च, प्रथम अंक पृ० १३३ ९. उ. च. तृतीय अंक, पृ० २५३ ---श्रीमती मधुरिमा मिश्रा व्याख्याता गृहविज्ञान विभाग डालमिया नगर महिला कॉलेज डालमियानगर (रोहतास) बिहार ७२ 'तुलसी प्रज्ञा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध दर्शन में स्मृतिप्रस्थानों का महत्त्व संजय कुमार बौद्ध दर्शन के क्षेत्र में स्मृतिप्रस्थानों का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। विभिन्न विद्वानों एवं मनीषियों ने बौद्ध दर्शन के विभिन्न विषयों पर सारभूत ग्रन्थों की रचना की है और बौद्ध दर्शन के विभिन्न सिद्धांतों का सम्यक् अनुशीलन किया है, किन्तु पृथक रूप से निर्वाण का साक्षात्कार करने के लिये न्यष्टिभूत स्मृतिप्रस्थानों का न तो सम्यक् अनुशीलन ही प्रस्तुत हुआ है और न पृथक् रूप से गवेषणा ही की गई है। सतिपट्टान शब्द दो शब्दों के योग से निष्पन्न है-सति एवं पट्ठान । सति शब्द को संस्कृत में स्मृति कहा जाता है जो स्म् स्मरणे धातु के कित्तम प्रत्यय के योग से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है--स्मरण, पूर्वानुभूत विषयों का पुन: स्मरण करना आदि । पट्ठान शब्द में 'प' उपसर्ग प्रधानार्थक है तथा ठान शब्द स्थान का वाचक है। अतः पट्ठान शब्द का अर्थ प्रधान स्थान होता है। इस तरह सतिपट्टान शब्द का अर्थ हैस्मृति का प्रधान स्थान । भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण प्रस्थानों में यथा---उपनिषद्, योगदर्शन आदि ग्रन्थों में स्मृति की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है और कहा गया है कि स्मृति के प्राप्त होने पर सभी ग्रंथियां समाप्त हो जाती है। मूल रूप से ज्ञात विषयों का अनस्मरण ही स्मृति है। बौद्ध दर्शन में स्मृति को द्वाराध्यक्ष कहा गया है। जैसे द्वार पर अवहित प्रहरी के होने पर अवांछित तत्त्वों का प्रवेश घर में नहीं होता है वैसे ही मनोद्वार पर स्मति रूपी द्वारपाल जब पूर्णतः जागरूक रहता है तो चित्त अनपेक्षित क्लिष्ट वृत्तियों का प्रवेश असंभव हो जाता है। स्मृति और चित्त का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। स्मृति से ही चित्त सुभावित होता है। स्मृति के अभाव में चित्त का सुभावित होना असंभव है । जैसे ठीक से न छाये घर में वृष्टि का जल प्रवेश कर जाता है वैसे ही अभावित चित्त में राग का अनुप्रवेश हो जाता है। किन्तु जब घर ठीक से छाया होता है तो वृष्टि के जल का अनुप्रवेश उसी प्रकार संभव नहीं है जिस प्रकार सुभावित चित्त में क्लेशादिवत्तियां अनुप्रविष्ट नहीं हो पातीं।' अतः यह सिद्ध है कि चित्त को प्रभास्वर, पर्यवदात एवं सुरक्षित बनाने में स्मृति का महत्त्वपूर्ण स्थान है । स्मृति ही चित्त को जागरूक एवं एकाग्रभूमिक बनाती है ।। बौद्ध दर्शन के अनुसार स्मृतिप्रस्थानों की संख्या चार है। चारों स्मृतिप्रस्थानों का एक ही लक्ष्य है.... निर्वाण । ये चार स्मृति प्रस्थान ही प्राणियों को चित्त की शुद्धि के लिये, शोकादि से छुटकारा दिलाने के लिये, दुःख दौर्मनस्य के नाश के लिये, सत्य खंड २२, अंक १ ७३ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग की प्राप्ति के लिये तथा निर्वाण के साक्षात्कार के लिये एकमात्र मार्ग है। ये जो चार स्मृतिप्रस्थान हैं, वे निम्नलिखित हैं१. कायानुपश्यना कायानुपश्यना का तात्पर्य है, अपने अन्दर एवं बाहर काया के प्रति पूर्णत: सचेष्ट रहना । साधक या योगावचर अपनी साधना के क्रम में स्मृतिमान् होकर काया में केश, रोम, नख, दन्त, त्वचादि बत्तीस कुत्सित पदार्थों के समूहों का बार-बार अवलोकन करता है, इस क्रम में वह देखता है कि यह काया बत्तीस कुत्सित पदाथों का समुच्चय मात्र है। साधक के द्वारा इन बत्तीस कोट्ठासों का बार-बार स्मरण करने को ही कायानुपश्यना कहा जाता है। इन बत्तीस अशुभ पदार्थों की भावना करना ही काया के प्रति सजगता कहा जाता है। पाद तल से केश-मस्तक तक त्वचा से घिरे इस काया को विभिन्न प्रकार के मलों से पूर्ण देखने को ही कायानुपश्यना या काया के प्रति जागरूकता कहा जाता है। साधक पुनः इस शरीर को रचना के अनुसार देखता है और जानता है कि यह शरीर चार महाभूत एवं चौबीस उपादाय रूपों का समुच्चय मात्र है। यह उत्पन्न एवं विनाश से सम्पन्न है। काया के इन स्वरूपों के प्रति स्मृतिमान् होकर पूर्ण सचेष्ट रहना ही कायानुपश्यना है। साथ ही चालीस कर्मस्थानों में से दस अशुभ कर्मस्थानों को देखना और उससे काया के स्वभाव का अवलोकन करना कि यह काया भी इसी अनित्य स्वभाव से युक्त है। पुनः इस शरीर अर्थात् काया के प्रत्येक क्रिया-कलापों को साधक देखता है और उसके प्रति स्मृति बनाये हुए जागरूक रहता है। साधक चलते, उठते, बैठते, सोते, जागते सदा स्मृतिमान् रहता है कि मैं चल रहा हूं, उठ रहा हूं, बैठ रहा हूं, सो रहा हूं, जाग रहा हूं, चंक्रमण कर रहा हूं। तो साधक के द्वारा शरीर के प्रत्येक क्रिया-कलापों के प्रति जागरूक रहना ही कायानुपश्यना कहलाता है । इस प्रकार अंग को फैलाना, सिकोड़ना, संघाटी, पात्र-चीवर धारण करना, खाना-पीना आदि कार्य करते समय प्रत्येक क्रिया के प्रति स्मरण बनाये रखना ही कायानुपश्यना कहा जाता है। इसी प्रकार अरण्य प्रदेश में वृक्षमूल के नीचे या एकान्त में आसन मारकर, शरीर को सीधा कर, स्मृति को सामने कर जब साधक लम्बी श्वास लेता है तथा छोड़ता है, छोटी श्वास लेता है तथा छोड़ता है तो वह प्रत्येक अवस्था में अनुभव करता है कि मैं श्वास ले रहा हूं, छोड़ रहा हूं। तो साधक के द्वारा अपने प्रत्येक क्रिया-कलापों के प्रति जागरूक रहने को ही कायानुपश्यना कहा जाता है । २. वेदनानुपश्यना बौद्ध दर्शन के स्मृतिप्रस्थानों में वेदनानुपश्यना का विवेचन किया गया है। यह वेदना तीन सन्दर्भो में उपलब्ध होती है-नामरूप अर्थात् पञ्चस्कन्धों में, प्रतीत्यसमुत्पाद में तथा चेतसिक के रूप में। वेदना को परिभाषित करते हुए कहा गया है वेदयितलक्खणा वेदना, अनुभवलक्खणा वेदना । अर्थात् यह वेदना अनुभव लक्षण वाली होती है । अनुकूल एवं प्रतिकूल, अनुलोम तुमसी प्रज्ञा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिलोम स्थितियों में अथवा अवस्थाओं में जो सत्त्व को अनुभूत करता है, उसे वेदना की संज्ञा दी गई है । बौद्ध दर्शन में प्रायः त्रिविधा वेदना का निरूपण किया गया है -सुखा वेदना, दुक्खा वेदना तथा उपेक्खा वेदना (असुखा, अदुक्खा वेदना)। सुखा वेदना--जो शुम को क्षीण अथवा विनष्ट कर देता है, उसे सुख कहते हैं अथवा काय और चित्त की अबाधा को जो खन देता है अर्थात् खा जाता है, उसे सुख कहते हैं। जब सत्त्व को अनुकूल अनुभव होता है अथवा सत्त्व जब चित्त के द्वारा अनुकूल अनुभूति करता है तो वह वेदना सुखा वेदना कहलाती है । दुक्खा वेदना-चित्त के प्रतिकूल जो संवेदन होता है, उसे दुक्खा वेदना कहते हैं । कांटों का चूभ जाना, आंख में धूल पड़ जाना आदि कुछ सामान्य दुःख हैं जिनका अपनयन भैषज्योपचार से हो जाता है । लेकिन जिस प्रकार पृथ्वी में जल, आकाश में हवा और शमी काण्ठ में अग्नि व्याप्त है उसी प्रकार चित्त और शरीर में दुःख व्याप्त है। यह दुःख असामान्य है जिसके निराकरण के लिये ही तथागत ने धर्म देशना की है। साधक या योगावचर के द्वारा सतर्क एवं जागरूक होकर "मैं दु:ख का अनुभव कर रहा हूं, दुःख मुझे सम्पीड़ित कर रहा है, नाना प्रकार के दुःखों से मैं परिगत हो गया हूं" ऐसा जानना ही दुक्खा वेदना है। उपेक्खा वेदना-सुख और दुःख दोनों अनित्य हैं। अतः इनसे उपरत अर्थात् विमुक्त होने के लिए जब साधक साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है, सुखात्मक एवं दुःखात्मक परिस्थितियों एवं स्थितियों में विमुक्त होने का अनुभव करता है, तो उसे उपेक्खा वेदना कहा जाता है। उपेक्खा वेदना की स्थिति तब आती है जब चित्त वीतराग, वीतद्वेष तथा वीतमोह होता है और युक्तिपूर्वक वह सुखात्मक, दुःखात्मक अनुभूतियों की कर्मानुसार मीमांसा करता हुआ उससे सर्वथा पृथक रहता है। ३. चित्तानुपश्यना सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में विशेषकर योगदर्शन और औपनषदिक दर्शन में चित्त के स्वरूप की मीमांसा की गई है। योग को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में कहा है कि चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है । धम्मपद के 'चित्त वग्गो' में चित्त के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है ---- फन्दनं चपलं चित्तं दुक्खं दुन्निवारमं ।' संयुक्त निकाय में इसके स्वरूप को मक्कट (बन्दर) के समान दर्शाया गया है। स्वभावतः चित्त प्रभास्वर रहता है परन्तु आगन्तुक मलों से संकिलिष्ट रहता है। यह चित्त शब्द चुरादि के 'चिन्त' चिन्तने 'चित्त' सञ्आणे तथा स्वादि के 'चि' चये धातुओं से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-चिन्तन करने वाला, ज्ञान करने वाला आदि । चित्तानुपश्यना के क्षण में जब साधक देखता है कि मेरा चित्त राग से युक्त है अर्थात् सराग है तब साधक राग युक्त चित्त की वृत्तियों को अवहित होकर देखता है। पुनः वह अनुपश्यना करता है कि मेरा चित्त द्वेष युक्त है तो चित्त उस द्वेष युक्त चित्त का अवलोकन करता है। इसी प्रकार पुनः साधक देखता है कि मेरा चित्त मोह युक्त बण्ड २२, अंक १ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तो वह राग, द्वेष एवं मोह को बार-बार अवलोकन कर हटाता है । जब ये तीन हेतु हट जाते हैं तो चित्त में प्रभास्वरता आती है। तब उसे यह बोध होने लगता है कि मेरा चित्त वीतराग, वीतद्वेष एवं वीत मोह है। साधक जब अनुपश्यना करते हए चित्त को पर्यवदात बनाने के क्रम में आगे बढ़ता है तो देखता है कि मेरा चित्त इधर-उधर विकीर्ण है । पुनः वह देखता है कि मेरा चित्त विक्षिप्त है। यहां विक्षिप्त मूढ़ के अर्थ में प्रयुक्त है। पुनः साधक साधना के क्रम में ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है तो देखता है कि मेरा चित्त महग्गत अर्थात् श्रेष्ठ है अथवा श्रेष्ठ गुणों से युक्त है। पुनः वह अनुपश्यना करता है कि मेरा चित्त सउत्तर है अर्थात् ठीक ढंग से उठा हुआ है और अनुत्तर भी है अर्थात् सर्वश्रेष्ठ है । पुनः साधक अवलोकन करता है कि मेरा चित्त समाहित है। यहां समाहित शब्द का अर्थ है----एकाग्रभूत । पुनः साधक देखता है कि मेरा चित्त असमाहित है अर्थात् अभावित है। पुनः वह साधना के क्रम में आगे बढ़ता हुआ देखता है कि मेरा चित्त सम्पूर्ण क्लेशों से विगत, रहित अथवा विमुक्त है अर्थात् सुगुप्त एवं सुरक्षित है। इन्हीं चित्तों को साधक के द्वारा यथाभूत जानकर भावना करना, अभिवृद्धि करना ही चित्तानुपश्यना कहलाता है। ४. धर्मानुपश्यना चित्तानुपश्यना के अनन्तर अन्तिम अनुपश्यना में धर्मानुपश्यना का विवेचन किया गया है। बौद्ध वाङ्मय में 'धम्म' शब्द बहुव्यापक अर्थों में प्रयुक्त होता है। सामान्य रूप से अपने स्वभाव को धारण करना ही धर्म है ... अत्तनो लक्खणं धारेतीति धम्मो। - आचार्म बुद्धघोष ने धर्म शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है कि निःसत्त्व और निजीविता ही धर्म है । जितने भी परमार्थ सत्य बौद्ध वाङ्मय में हैं वे सभी धर्म के अन्तर्गत आते हैं। इस धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत पञ्चनीवरण (कामच्छन्द, व्यापाद, थीन-मिद्ध, उद्धच्च-कुकुच्च तथा विचिकित्सा) का विवेचन किया गया है और कहा गया है कि जब तक ये नीवरण विद्यमान रहते हैं तब तक ध्यान की ओर चित्त उन्मुख नहीं रहता है। अतः ध्यान की ओर उन्मुख रहने के लिए नीवरणों का प्रहाण आवश्यक है । धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत पञ्चुपादानस्कन्ध का विवेचन किया गया है। पञ्चउपादानस्कन्ध में स्कन्ध शब्द समुदाय का पर्याय है 'रासठेन खन्धो' के अनुसार स्कन्ध शब्द राशि का बोधक है। पञ्चुपादानस्कन्ध रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार एवं विज्ञान में परिगणित है। प्रथम आर्यसत्य के व्याख्या के क्रम में तथागत ने कहा है कि यदि संक्षेप में कहा जाय तो पञ्चुपादानस्कन्ध ही दुःख है। धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत बारह आयतनों का भी विवेचन किया गया है। आयतन शब्द विविध अर्थों का परिज्ञापक है। अभिधर्म दर्शन के अनुसार पञ्चस्कन्धों का विस्तार रूप ही आयतन है। बारह प्रकार के आयतन निम्नलिखित हैं - चक्षरायतन. श्रोतायतन, घ्राणायतन, जिह्वायतन, कायायतन, मनायतन, तुलसी प्रज्ञा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपायतन, शब्दायन, गन्धायतन, रसायतन स्पृष्टव्यायतन तथा धर्मायतन। इनमें छः आन्तरिक एवं छः बाह्य आयतन हैं । धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत बोध्यंगों का विवेचन किया गया है । इसका विवेचन बोधिपाक्षिक धर्मों में भी किया गया है । जिसका अभिप्राय यह है कि ये बोध्यंग निर्वाण की प्राप्ति में सहायक होता है । बोधि का अर्थ ज्ञान होता है अर्थात् ज्ञान के अंग को ही बोध्यंग कहा जाता है । सात बोध्यंग स्मृति, धर्मप्रविचय, वीर्य, प्रीति, प्रब्धि, समाधि तथा उपेक्षा में परिगणित हैं । धर्मानुपश्यना के अन्तर्गत चार आर्यसत्यों का भी वर्णन किया गया है । जब तक इन चार आर्यसत्यों की अनुपश्यना नहीं होती है तब तक संसरण से मुक्ति नहीं मिलती है । आर्यसत्य शब्द दो शब्दों के योग से बना है - आर्य तथा सत्य । आर्य का अर्थ बुद्ध, अरहत या श्रावक होता है तथा सत्य का अर्थ यथाभूत तथ्य तथा असत्य के विपरीत है । इस प्रकार जो सत्य आर्य अर्थात् बुद्ध के द्वारा साक्षात्कृत है, वह आर्यसत्य है । चार आर्यसत्यों में दुःख, दुःख समुदाय, दु:ख निरोध तथा दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा का विवेचन किया गया है । दु:ख निरोध गामिनी प्रतिपदा ही अष्टांगिक मार्ग है । इस प्रकार साधक द्वारा पञ्चनीवरण, पञ्च उपादानस्कन्ध, छः आन्तरिक एवं छः बाह्य आयतन, सात बोध्यंग एवं चार आर्यसत्यों का बार-बार अवलोकन करना ही धर्मानुपश्यना कहलाता है । सन्दर्भ : १. धम्मपद ( यमक वग्गो) २. एकायनो अयं भिक्खवे मग्गो सत्तानं विसुद्धिया, सोकपरिदेवानं समतिक्कमाय दुक्खदोमनस्सानं अत्यंगमाय, बाणस्स अधिगमाय, निब्बानस्स सच्छिकिरियाय, यदिदं चत्तारो सत्तिपट्ठाना । -‍ - मज्झिमनिकाय ( सतिपट्ठान सुत्त ) ३. सुठु वा खादिति खणति च काय चित्तबाधंति सुखं (अट्ठसालिनी पू२२३) ४. धम्मपद (चित्तवग्गो) ५. "पभस्सरमिदं भिक्खवे चित्तं तं च खो आगन्तुकेहि उपक्किलेसेहि उपक्कि लिटट्ठे " --अंगुत्तर निकाय १-१० खंड २२, अंक १ - संजय कुमार (शोध छात्र ) C/o अशोक कुमार सेवादल रोड चांदचौरा, गया जिला गया (बिहार) पिन- ८२३००११ ७७ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि शाब्दिक और पारंपरीय प्राकृत 10 परमेश्वर सोलंकी व्याकरण की एक परंपरा ऋक्तंत्रकार ने दी है - ब्रह्मा बृहस्पतये प्रोवाच । बृहस्पतिरिन्द्राय। इन्द्रो भारद्वाजाय। भरद्वाज ऋषिभ्यः। ऋषयो ब्राह्मणेभ्यः ।। १.४ ॥ इस परम्परा में दो सम्प्रदाय बनें । एक ऐन्द्र और दूसरा माहेश्वर । दूसरी परम्परा में कहा गया है कि युगान्त में लुप्त हुए शब्द रूप ज्ञान को स्वयंभू ने जाना और ऋषि मुनियों को बताया--- युगान्तेऽन्तहितान् वेदान् सेतिहासान् महर्षयः । लेभिरे तपसा पूर्वमनुज्ञाताः स्वयंभुवा॥ पाणिनि-शिक्षा से इस दूसरी परम्परा की पुष्टि होती है अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा । प्राकृते संस्कृते चापि स्वयं प्रोक्तं स्वयंभुवा ॥ -----कि मैं उस पाणिनीय शिक्षा को कहूंगा जो मूलतः स्वयं स्वयंभू द्वारा प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में कही गई थी। स्वयं पाणिनि अइउण, ऋलक् - इत्यादि १४ समाहार सूत्रों को महर्षि महेश्वर द्वारा प्राप्त होना स्वीकार करते हैं और अपने से पूर्व हुए अनेकों शाब्दिकों के मत उद्धत करते हैं। जैसे--लङ शाकटायनस्यव (३.४.१११); अवङ् स्फोटायनस्य (६.१.१२३); वा सुप्यापिशले: (६.१.९२); सर्वत्र शाकल्यस्य (८.४.५१) इत्यादि । इस संबंध में बोपदेव ने अपने कविकल्पद्रुम (धातुपाठ) में आठ आदि शाब्दिकों के नाम दिए हैं इन्द्रश्चन्द्र काशकृत्स्नापिशाली शाकटायनः । पाणिन्यमर जैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादि शाब्दिकाः ॥ अर्थात् इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, आपिशाली, शाकटायन, पाणिनि, अमर और जैनेन्द्र-ये आठ आदि शाब्दिक हैं।' इन आठ आदि शाब्दिकों में प्रथम इन्द्र के संबंध में एक उल्लेख कृष्ण यजुर्वेद (तैत्तिरीय संहिता) में निम्न प्रकार पढ़ा गया है वाग्वै पराच्यव्याकृता अवदत् । ते देवा अब्रुवन्निमां नो वाचं व्याकुविति। सोऽब्रवीद् वरं वृणै मह्यं चैष वायवे च सह गृह्याता इति। तस्माद् ऐन्द्र बंर २२, बंक १ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वायवः सह गृह्यते । तामिन्द्रो मध्यतौऽवक्रम्य व्याकरोत् । तस्मादियं व्याकृता वागुच्यते इति । –कि पहले वाणी अव्याकृत थी। देवों ने इन्द्र को उसे व्याकृत करने को कहा तो उसने इन्द्र और वायु के मेल से बने पद - ऐन्द्रवायवः को मध्य से तामखण्डां वाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृति प्रत्ययविभागं सर्वत्राकरोत्सायण) व्याकृत कर दिया; इसलिए वाणी व्याकृत कही जाने लगी। इस प्रकार इन्द्र पहले ज्ञात शाब्दिक माने जा सकते हैं। कथासरित्-सागर (तरंग-४) में लिखा है ... तेन प्रणष्टमैन्द्रं तस्मात् व्याकरणं भुवि कि इन्द्र का व्याकरण नष्ट कर दिया गया । हमारी समझ में यह पहला प्राकृत व्याकरण है । 'चरक संहिता' की भट्टारक हरिश्चन्द्र व्याख्या में-अथ वर्ण समूह इति ऐन्द्रव्याकरणस्य और दुर्गाचार्य की निरुक्तवृत्ति में-नैक पद जातम्, यथा अर्थ पदम् इत्यैन्द्राणाम्-ये दो सूत्र ऐन्द्र व्याकरण के हैं। दूसरे आदि शाब्दिक स्पष्ट ही प्राकृतलक्षण के कर्ता हैं। उन्होंने आर्ष प्राकृत के नियमादि दिए हैं। प्राकृत-लक्षण का एक संस्करण ए. एफ. रॉडल्फ ने कलकत्ता से सन् १८८० में प्रकाशित किया है। इसकी स्वोपज्ञ वृति का आरंभ इस प्रकार है'सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञं सवीर्यं जगतो गुरुम् । तीसरे आदि शाब्दिक काशकृत्स्न का कन्नड़ टीका सहित 'काशकृत्स्न शब्द कलाप धातु पाठ' मिला है जिसमें ८०० धातुएं ऐसी हैं जो पाणिनीय धातु पाठ में नहीं हैं और ३५० धातुएं पाणिनीय धातुपाठ में ऐसी हैं जो काश कृत्स्न धातुपाठ में नहीं हैं। इस प्रकार धातु संख्या की दृष्टि से काश कृत्स्न धातु पाठ में ४५० धातुएं अधिक हैं। इन धातुओं से प्राकृत के अनेकों शब्द निस्पन्न हो सकते हैं जो अन्यथा अव्युत्पन्न (असाधनीय) कहे गए हैं ।" चौथे और पांचवें आदि शाब्दिक --आपिशल और शाकटायन के संबंध में जैन आचार्य पाल्यकीति, शाकटायन - व्याकरण की अमोघा वृत्ति (२.४.१८२) में उदाहरण देते हैं- अष्टका आपिशल पाणिनीयाः । यही उदाहरण शाकटायन-व्याकरण की दूसरी व्याख्या-चिन्तामणि वृत्ति में भी है। इससे ज्ञात होता है कि पाणिनीय अष्टाध्यायी की तरह आपिशल और शाकटायन व्याकरणों में आठ, आठ अध्याय थे। वर्तमान में दोनों ही व्याकरण अनुपलब्ध हैं; किन्तु उपलब्ध प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि शाकटायन व्याकरण में लौकिक और वैदिक, उभयविद पदों का अन्वाख्यान था। सातवें और आठवें आदि शाब्दिक- अमर एवं जनेन्द्र के व्याकरण भी नहीं मिलते । अमरकोश के तृतीय काण्ड के पांचवें सर्ग में ' लिंङ्गादि संग्रह' है और देवनंदी (पूज्यपाद) के नाम से प्रसिद्ध जैनेन्द्र व्याकरण के दो संस्करण- औदीत्य और दाक्षिणात्य है । चान्द्रव्याकरण की तरह औदीच्य संस्करण में एक शेष प्रकरण नहीं है इसलिये उसे ही प्राचीन माना जाना चाहिए।' । उपर्युक्त इन आठों आदि शाब्दिकों में पाणिनि के अलावा सातों, प्राकृत-संस्कृत तुलसो प्रज्ञा ८० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनों भाषाओं के वैयाकरण दीख पड़ते हैं । स्वयं पाणिनि ने भी 'प्राकृत लक्षणम्' नाम से एक व्याकरण लिखा था-ऐसी अनुश्रुति है । पी. एल. वैद्य ने त्रिविक्रम के व्याकरण में से कुछ ऐसे नियम खोज निकाले हैं जो भरत मुनि के व्याकरण के हैं। इसी प्रकार आदि कवि वाल्मीकि द्वारा आर्या छन्दनिबद्ध १०८५ सूत्र मिले हैं जो तीन अध्यायों के बारह पाद में विभक्त हैं। मद्रास-लाइब्रेरी के एक हस्तलेख में (क्रमांक १५.४८) ये सूत्र लिखे हैं और वहीं सुरक्षित 'शम्भू रहस्य' नामक ग्रंथ में वाल्मीकि को गार्य, गालव, शाकल्य और पाणिनि की तरह शाब्दिक कहा गया है। वहां लिखा है कि जो वाल्मीकि द्वारा शिक्षित प्राकृत को असंस्कृत कहता है वह स्वयं ही असंस्कृत है। वाल्मीकि के महान् वैयाकरण होने का प्रमाण स्वयं वाल्मीकि रामायण में भी उपलब्ध है। वहां अशोक वाटिका में सीतामाता से मिलने से पूर्व अंजनिसुत हनुमान ऊहापोह करता है और अन्त में संस्कृत के स्थान पर प्राकृत में बोलने का निर्णय करता है और कहता है कि सीतामाता व्याकरण जानती हैं इसलिए मुझे कुछ भी अपभाषित नहीं बोलना है। इस प्रकार वररुचि (प्रथम शती विक्रमी) से पहले प्राकृत-संस्कृत में विभेद न था। संस्कृत पंडितों की भाषा थी और प्राकृत जन साधारण की। वररुचि ने प्राकृत को संस्कृत से निकली हुई नहीं कहा। उसका "प्राकृत प्रकाश' प्राकृत में निबद्ध साहित्य को पण्डिताऊ मान्यता दिलाने का प्रयत्न था। उसने प्राकृत शब्द की व्युत्पत्ति भी नहीं दी। वस्तुतः 'प्राकृत प्रकाश' में अन्य व्याकरणों की तरह आठ ही अध्याय थे। प्राकृत संजीवनी टीका में पांचवां और छठा परिच्छेद एक साथ है । सी कुन्हराजा और रामचन्द्र शर्मा ने अडियार लाइब्रेरी सीरिज (नं० १५४ सन् १९४६) में मलियालम टीका प्रकाशित की है उसमें भी पांचवां और छठा परिच्छेद एक साथ है। यह व्याकरण आदेरतः ॥ १॥-अधिकारोऽयम् से आरंभ और शेषः संस्कृतात् ॥ १८ ॥-- उक्तादन्यः शेषः से समाप्त होता है; किन्तु पश्चात् काल में इसमें पैशाची; मागधी; शोरसेनी उप भाषाओं को भाषा बनाने के लिए कुछ सूत्र जोड़े गए। पैशाची और मागधी की प्रकृति : शौर सेनी बताई गई और स्वयं शोरसेनी की सस्कृत किन्तु अन्त में शोरसेनी को शेषं माहाराष्ट्रीवत् लिख दिया गया है। । प्राकृत भाषा का 'कातन्त्र व्याकरण' भी संस्कृत व्याकरण की तर्ज पर बना है। उसमें ल का दीर्घत्व मान्य है। शब्द रूपों को स्वरान्त और व्यंजनान्त कहा गया है । तद्धित में राजन्, अहन और सखि में अदन्तत्व है । अन्त में आख्यातवृत्ति और कृतवृत्ति है । इस व्याकरण का संबंध राजा सातवाहन से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि राजा अपनी राणी के साथ जलकेलि कर रहा था तो थक जाने पर राणी ने कहामोदकं देहि राजन् !-अर्थात् और पानी से मत मारो; किन्तु राजा ने मिठाई मंगवा दी। फिर गलती महसूस होने पर व्याकरण की आवश्यकता हुई और 'कातन्त्र' का निर्माण हुआ। पण्ड २२, अंक १ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारंपरीय प्राकृत प्राकृत भाषा का पहला संदर्भ नाट्य शास्त्र में उपलब्ध होता है कि संस्कार गुण वर्जित और विविध रूपों वाली भाषा प्राकृत होती है--"संस्कार गुण वजिता तथा नानावस्थान्तरात्मकम् ।" वाक्पतिराज इसे जनभाषा मानता है। उसके आशय को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहता है --- 'प्रकृतिरेव प्राकृतं शब्दब्रह्म। तस्य विकारा विवर्ता वा संस्कृतादयः -- इति मन्यते स्मः कविः"-अर्थात् गड्डवहो का कवि मानता है प्रकृति ही प्राकृत है और संस्कृतादि भाषाएं उसके विकार हैं। इस संबंध में नमि साधु की व्युत्पत्ति प्रसिद्ध ही है कि संस्करण से संस्कृत होती है वर्ना प्राकृत ही समस्त जन्तुओं की सहज भाषा है।" पाश्चात्य विद्वान् अल्फ्रेड सी. वूलनर और रिचर्ड पिशेल ने भी प्राकृत को. मूल भाषा मानने का सुझाव दिया है। भारतीय विद्वानों में प्रबोध बेचरदास पंडित, जगदीश चन्द्र जैन, हरदेव बाहरी और नेमिचन्द शास्त्री प्रभृति लोगों के विचार भी प्राकृत को मूल भाषा मानने के हैं। प्रबोध पंडित संस्कृत के बाह्य रूप में प्राकृत को प्रवाहित देखते हैं । जगदीशचन्द्र जैन का कहना है कि 'वैदिक आर्यों की सामान्य बोलचाल, जो ऋग्वेद की संहिता की साहित्यिक भाषा से जुदा है, प्राकृत का मूल रूप है। हरदेव बाहरी ने प्राकृतों से संस्कृत का विकास माना है। उनका कहना है कि 'प्राकृतों से वेद की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ, प्राकृतों से संस्कृत का विकास हुआ और प्राकृतों से इनके अपने साहित्यिक रूप भी विकसित हुए।' नेमिचन्द्र शास्त्री प्राचीन आर्य भाषा 'छान्दस' से प्राकृत का विकास मानते हैं। वे संस्कृत और प्राकृत को सहोदरा कहते हैं। उनका कथन युक्ति संगत लगता है। ___ छान्दस भाषा में लिखे प्राचीनतम साहित्य-ऋग्वेद आदि में भाषा के दोनों रूप दृष्टिगत होते हैं । वहां नियमों की प्रतिबद्धता कठोर नहीं है और एक ही पद के दो या अधिक रूप भी प्रयुक्त हैं। तावत्-ताव; पश्चात्प श्चा ; यशस्=जस; स्वर्ग=सुवर्ग; स्वःसुवः; देवेहि-देवेभिः; तेभिः-तैः; शृंथिरा= शिथिराः; दुर्लभ दूलह; दुर्णाश=दूषाण; दण्ड-डण्ड; दोला-डोला; पुरोडाश-पुरोडास; प्रतिसंधाय-प्रतिसंहाय; क्लिष्ट किलिट्ठ; तव्वी= तणुवी-- इत्यादि । विसर्गों को ओकार जैसे देवो, जिणो, संवत्सरो, सो इत्यादि द्विवचन पदों को बहुवचन जैसे इन्द्रावरुणौ-इन्द्रावारूणा। ऋकार को उकार जैसे - वृन्द-वुन्द; ऋतुउउ; कृत=कुठ। इसी प्रकार यदि एक ही नमूना लें तो ऋग्वेद के प्रसिद्ध मंत्र-'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया'-को व्याकरण की दृष्टि से 'द्वौ सुपणौं सयुजी सखायौ'-ऐसा कुछ होना चाहिए। वहां 'तितउ'; जरी तुर्फरी; खीला; नाली; तक्षा; कीनाशा; आदि अव्युत्पन्न शब्द हैं और एक पद के अनेक रूप देखें तो ऊधन्, ऊधनि, ऊधभिः, ऊनः आदि भी मिलते तुलसी प्रज्ञा Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशेषिक शास्त्र में कणाद मुनि कहते हैं कि वेद में जो वाणी है वह बुद्धिपूर्वक कही गई है (बुद्धि पूर्वा वाक् प्रकृतिर्वेदे) और स्वयं वेद कहता है यह कल्याणकारी वाणी मनुष्यों के लिए, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, आर्य-अनार्य सबके लिए कही गई है (यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय, च स्वाय चारणाय च)। मुनि पतंजलि इस सम्बन्ध में एक बात कहते हैं कि शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय के परस्पर अध्यास से अभिन्न ज्ञान होता है और उसके प्रविभाग में संयम करने पर सारे प्राणियों के उच्चारित शब्दों का अर्थज्ञान होता है (शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्तत्प्रविभाग संयमात्सर्वभूतरुतज्ञानम्)-यह कथन समवायांग के चौतीसवें समवाय के सूत्र क्रमांक २२-२३ का पूर्वार्द्ध मालूम होता है। वहां लिखा है कि भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते हैं और वह भाष्यमाण अर्द्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुस्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है (भगवं च गं अद्धमागहीए भासाए धम्माइक्खइ। सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्ज माणी तेसिं सव्वेसि आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरीसिवाणं अप्पणो हिय सिव-सुहदाभाए त्ताए परिणमइ)। अर्द्धमागधी भाषा 'समवायांग' में उल्लिखित उक्त अर्द्धमागधी के संबंध में औपपातिक सूत्र भी कहता है-'तएणं समण भगवं महावीरे कूणि अस्स रण्णो भिभिसार पुत्रस्स अद्धमागहाए भासाए भासाइ-। "भगवती' में इसे देव भाषा कहा गया है --- 'देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति ।' 'पन्नवणा' इसे आर्यों की भाषा कहता है -'भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासंति ।' जबकि निशीथ चूणि में इसे अठारह भाषाओं का मिश्रण कहा गया है.---'मगदद्धविसयभासाणि वद्धं अद्धमागहं अट्ठारसदेसी भासाणियतं वा अद्धमागहं।' 'षट् प्राभृत टीका' में इस पद की व्याख्या है --- 'सर्वार्द्ध मागधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अर्द्ध भगवद् भाषाया मगधदेशभाषात्मकं, अर्द्ध च सर्वभाषात्मकम् ।' वस्तुतः आर्य और आर्यतुल्य दो प्रकार की प्राकृत थीं-"आर्षोत्थमार्षतुल्यं च द्विविधं प्राकृतं विदुः।' उसी को ऋषिभासित कहा गया और कालान्तर में संस्कृतप्राकृत । स्थानांग और अनुयोगद्वार की निम्न गाथाओं से यह स्पष्ट है सक्कता पागता चेव दोण्णि य भणिति आहिया । सरमंडलंमि गिज्जते पसत्था इति भासिता ।। सक्कया पायया चेव भणिइओ होंति दोण्णि वा । सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिता ॥ खण्ड २२ अंक १ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार 'कच्चायन व्याकरण' में उद्धत स्थविर-परंपरा के अनुसार मागधी ही मूल भाषा है। यह जीव के स्वाभाविक गुणों से निष्पन्न है और आर्य वाणी अथवा सिद्ध वाणी है सा मागधी मूलभासा नरा यायादिकप्पिका । ब्रह्मातो चस्सुता लाया सम्बुद्धा चापि भासरे ॥ जीवस्स साभावियगुणे हिं ते पागत भासाए। आरिसवयणे सिद्धदेवाणं अद्धमागही वाणी। सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम् । सर्वायं सर्वतो वाचं सर्वशी प्रणिदध्महे ।। सारांश __ तत्त्वत: प्राकृत सहस्रों वर्षों से धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भारतीय जनजीवन की संवाहक रही है । शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का उद्भव, विकास और विलोप संस्कृत के समाज से दूर हो जाने से जुड़ गया है। जिस समय संस्कृत मर्यादाओं में जकड़ गई और समाज उससे दूर हो गया; उस समय भगवान् महावीर और बुद्ध ने जनभाषा को अंगीकार किया और अनायास ही वे समाज से जुड़ गए। विनय पिटक (चुल्लवग्ग) में एक प्रसंग है जिसमें बुद्धवचन को संस्कृत में निबद्ध करने की भगवान् बुद्ध से अनुज्ञा चाही गई है। उस प्रसंग में भगवान् बुद्ध ने उसे संस्कृत (छन्दस भाषा) में निबद्ध करने से गम्भीरता पूर्वक मना किया है । प्राकृत भाषा का इस दृष्टि से अध्ययन नहीं हुआ.। इस भाषा में न केवल उच्चस्तरीय साहित्य सुरक्षित है; अपितु मगध से पश्चिमोत्तर के दरद प्रदेश और हिमालय से श्रीलंका तक की तत्कालीन लोकभाषा भी संरक्षित है। भारतीय जन जीवन की विभिन्न धारणाएं, आचार-विचार और अनेकों पुरातन बातों की जानकारी के लिये यह अनमोल खजाना है । . भारतीय चिन्तन का जो अनन्त ज्ञान संस्कृत-वाङ्मय में निहित माना जाता है; वह बिना प्राकृत-साहित्य के ज्ञान के एक पक्षीय है। प्राकृत में बेलाग, निश्छल और सरल, सुबोध भाषा में भारतीयता भरी पड़ी है। उसे प्रकट करना नितांत वांछनीय संदर्भ : १. निरुक्त (१३.९) में लिखा है -अथापि ब्राह्मणं भवति-सा वै वाक् सृप्टा चतुर्धा व्यभवत् । एष्वेव लोकेषु त्रीणि, पंशुषु तुरीयम् । या पृथिव्यां साऽग्नी सा रथन्तरे । यान्तरिक्षे सा वायो सा बामदेव्ये । या दिवि सादित्ये सा बृहति सा स्तनयित्नौ । अथ पशुषु । ततो या वागत्यरिच्यत तां ब्राह्मणेष्ववथुः । तस्मात् ब्राह्मणा उभयीं वाचं वदन्ति, या च देवानां या च मनुष्याणाम् इति। इससे तुलसी प्रज्ञा ८४ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलता जुलता पाठ मैत्रायणी संहिता (१.११.५) और काठक संहिता (१४.५) में भी उपलब्ध है। तात्पर्य यह है कि वाणी चार प्रकार की है किन्तु विद्वान् दो प्रकार की वाणी बोलते हैं । ये ही बाद में प्राकृत और संस्कृत कही गई हैं । २. (i) पाणिनीय शिक्षा के अन्त में लिखा मिलता है --- येनाक्षर समाम्नायधिगम्य महेश्वरात् ।। कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥ (ii) अष्टाध्यायी में काश्यप (१.२.२५) गार्ग्य (८.३.२०) गालव (७.१.७४) चाक्रवर्मण (६.१.१३०) भारद्वाज (७.२.६३) सेनक (५.४.११२) के भी नाम उल्लिखित हैं। ३. श्री तत्त्वविधि नामक एक ग्रंथ में नो व्याकरणों के नाम हैं ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् । सारस्वतं चापिशलं शाकल्यं पाणिनीयकम् ।। ४. कृष्ण यजुर्वेद काण्ड-६, प्रपाठक-४ अनुवाक-७ । ऐसा ही पाठ अन्यत्र मंत्रा० संहिता ४.५.८, काठक संहिता २७.२, शतपथ ४.१.३.११ में भी उपलब्ध है। ५. भाषाविदों ने इस पर तरह-तरह के आक्षेप किए हैं जो उनके द्वारा इसे संस्कृतव्याकरण की दृष्टि से देखने का परिणाम है। वस्तुतः यह जीवन्त रही प्राकृत पर लिखा गया व्याकरण है। अजयत् ज” हूणान् (१.२ ८१) सूत्र के आधार पर संस्कृत व्याकरण इतिहास लेखक युधिष्ठिर मीमांसक ने इस म्याकरण को कश्मीर राजा अभिमन्यु के समय लिखा गया सिद्ध किया है (राजतरंगिणी १.१७४-७६) उसने चन्द्र को चन्द्रगोभी अथवा चन्द्राचार्य के नाम से उल्लिखित किया है। ६. काशकृत्स्न धातुपाठ में अनेकों धातुओं के दो दो रूप हैं। जैसे ईड ईलस्तुती जबकि पाणिनि ने केवल इड़ रूप पढ़ा है। इसी प्रकार वहां ऐसी धातुएं भी हैं जो उभयपदी हैं । परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों प्रक्रियाओं में उनसे रूप बनते हैं । जैसे वस निवासे, वद व्यक्तायां वाचि आदि । पाणिनि इन्हें केवल परस्मैपदी मानता है। प्राकृत भाषा के कुछ अव्युत्पन्न शब्दों का उल्लेख तुलसी प्रज्ञा (१८१२) के पुस्तक समीक्षा स्तंभ में 'राजस्थानी शब्द सम्पदा'-- की समीक्षा में किया गया है । देखें पृष्ठ १५८,१५९ । 9. शाकटायन ने शब्द के तीन प्रकार बताए हैं-तदेवं निरुक्तकार शाकटायन दर्शनेन त्रयी शब्दानां प्रवृत्तिः। जातिशब्दा: गुण शब्दा: क्रियाशब्दा इतिजिनेन्द्र बुद्धि । इसी प्रकार का-तन्त्र वृत्ति की दुर्ग टीका में पाद विषयक आपिशल का मत उल्लिखित हैआपिशलीयं मतं तु पादस्त्वर्थ समाप्तिर्वा ज्ञेयो वृत्तस्य वा पुनः । मात्रिकस्य चतुर्भागः पाद इत्यभिधीयते ।। खण्ड २२, अंक १ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. विनय विजय एवं लक्ष्मी वल्लभ आदि जैन विद्वानों ने भगवान् महावीर प्रोक्त व्याकरण को जैनेन्द्र व्याकरण कहा है। दाक्षिणात्य संस्करण में 'चार्थे द्वन्द्वः'- सूत्र के बाद १२ सूत्रों का एक शेष प्रकरण है जो औदीच्य संस्करण में नहीं है । चन्द्राचार्य ने इस संबंध में युक्ति दी है कि अशिष्य एकशेष एकेनोक्तत्वात् अर्थाभिधानं स्वाभाविकम् --- अर्थात् शब्द की अर्थाभिधान शक्ति के स्वभाविक होने से एक शब्द से भी अनेक अर्थों की प्रतीति हो जाती है, अतः एक शेष प्रकरण अनावश्यक है। ९. को विनिन्देदिमां भाषां भारती मुख भाषिताम् । यस्याः प्रचेतसः पुत्रो व्याकर्ता भगवान् ऋषिः ॥१३॥ गार्ग्य गालव शाकल्य पाणिन्याचा यथर्षयः । शब्द राशेः संस्कृत व्याकर्तारो महात्तमाः ॥१४॥ तथैव प्राकृतादीनां षड्भाषानां महामुनिः । आदिकाव्यक्रद आचार्यो व्याकर्ता लोकविश्रतः ॥१५॥ यथैव रामचरितं संस्कृतं तेन निमितम् । तथैव प्राकृतेनापि निर्मितं हि सतां मुदे ॥१६॥ पाणिन्याद्यैः शिक्षितत्वात् संस्कृता स्याद् यथोत्तमा । प्राचेतस व्याकृतत्वात् प्रकृत्यापि तथोत्तमा ।।१९।। प्राकृतं चार्मे वेदं यद्धि वाल्मीकि शिक्षितम् । तदानार्ष भवेद् यो वै प्राकृतः स्यात् स एवहि ॥२४॥ -सन् १८९० में छपे तेलगूग्रंथ शम्भू रहस्य से १०. अहं ह्य तितनुश्चैव वान रश्च विशेषतः । वाचं चोदाहरिष्यामि मानुषीमिह संस्कृताम् ।। यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम् । रावणं मन्य माना मां सीता भीता भविष्यति । अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत् । मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता । X नूनं व्याकरणं कृत्स्नम नेन बहुधाश्रुतम् । बहु व्याहस्तानेन न किंचिदपभाषितम् ।। ११. (i) 'कातंत्र' के एक वाक्य--'कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धि प्रतिबुद्धये'- की व्याख्या में हरिराम लिखते हैं--'कात्यायन मुनिर्वररूचि शरीरं परिगृह्य शास्त्रमिदं कृतवात् इति श्रुतिः।" (ii) दी प्राकृत ग्रामेरिनस् (नीति डोलची) के मोतीलाल बनारसीदास संस्करण, १९७२ (प्रभाकर झा) में इस विषयक विवेचन है। देखें-पैरा २२१० से २२१५ और २४१५ मृ० ५-१६. तुलसी प्रशा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. डॉ० वेलवेकर ने का-तन्त्र को निम्न चार प्रकरणों में संपादित किया है (१) संधि - संज्ञापद, समानपद, ओदन्तपाद, वर्गपाद, विसर्गपाद और निपातपाद । (२) नाम लिंगपाद, व्यंजनपाद, सखिपाद, युष्मत् पाद, समस्तपाद, तद्धितपाद और स्त्री प्रत्ययपाद । (३) आख्यात - परस्मैपाद, प्रत्ययपाद, द्विर्वचनपाद, सम्प्रसारणपाद, गुणपाद, अनुषंगपाद, इढागमपाद और घुटपाद । (४) कृत सिद्धिपाद, धातुपाद, कर्मणिपाद, कुत्सुपाद और धातुसम्बन्धपाद । १३. 'प्राकृतेति सकल जगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कार: सहजो-वचन व्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । आरिसवयणे सिद्धं देवानं अद्धमागही वाणी इत्यादि वचनाद् वा प्राक् पूर्वं कृतं प्राकृतं, बाल- महिलादि सुबोधं सकलभाषा निबन्धनभूतं वचनमुच्यते मेघ निर्युक्तजलमिवैकरूपम् । तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितं विशेषं सत् संस्कृताद्युत्तरविभेदानाCota | अतएव शास्त्रकृताप्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादि व्याकरणोदित शब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते । - 'काव्यालंकार' टीका १४. देखें-- वूलनर की इन्ट्रोडक्शन टू प्राकृत; प्राकृत भाषाओं का व्याकरण-पिशेल, प्राकृत भाषा --- प्रबोध पंडित, प्राकृत साहित्य का इतिहास - जगदीश चन्द्र, प्राकृत भाषा और उनका साहित्य --- हरदेव बाहरी और प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास नेमीचंदशास्त्री | १५. ऋग्वेद आदि संहिताओं एवं वैदिक साहित्य में ऐसे प्रयोग मिलते हैं । १६. विनयपिटक के चुल्लवग्ग, १६ सकनिरुत्ति - अनुजानना खण्ड २२, अंक १ प्रकार है 'ते भिक्खू भगवन्तं एतदो चुं 'एतरहि, भन्ते, भिक्खू नाना नामा नाना गोत्ता नाना जच्चा नाना कुला पव्बजिता । सकाय निरुत्तिया बुद्ध वचनं दूसेन्ति । हन्द भयं, भन्ते, बुद्ध वचनं छन्द सो आरोपमा' ति । विगरहि बुद्धो भगवा - 'कथं हि नाम तुम्हे मोघपुरिसा, अप्पसन्नानं वा पसादाय पसन्नानं वा भियो भावाय । अथ ख्वेतं मोघपुरिसा अप्पसनानं चेव अप्पसादाय, पसन्नानं च एकच्चानं अज्जथयामि ।' - देखें नालंदा संस्करण १९५६ पृ० २२८-२२९ --- यह संदर्भ निम्न - परमेश्वर सोलंकी संपादक, तुलसी प्रज्ञा जैन विश्व भारत संस्थान, लाडनूं ८७ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालक्रम और इतिहास १. सोलंकी-राजवंश का यायावरी इतिहास (राव गणपतिसिंह) २. मानव और देवताओं का कालमान (मुनि श्रीचंद 'कमल') ३. विक्रम संवत्सर में न्यूनाधिक मास (स्व० मुनि हड़मानमलजी) ४. झाबरा (पोकरण) की देवलियां (परमेश्वर सोलंकी) ५. ओम् सृष्टि संवत् (प्रो० प्रताप सिंह) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलंकी-राजवंश का यायावरी इतिहास [ राव गणपतसिंह चोतलवाना 'सोलंकी' शब्द डॉ० ओझा के अनुसार 'सोलंकी' शब्द का उल्लेख प्राचीन शिलालेखों, ताम्रपत्रों और ग्रन्थों में चौलुक्य, चालुक्य या चुलुक्य और कहीं-कहीं चलुख, चलुक्य, चालक्य, चौलुक्कि, चुलुख एवं चुलुग (के रूप में) मिलता है।' बादामी (वातापी), वैगी तथा कल्याणी के राजवंश चलुक्य या चालुक्य के नामों से प्रसिद्ध थे। मूलराज द्वारा स्थापित राजवंश ने स्वयं को अपने अभिलेखों में चौलुक्य के रूप में लिपिबद्ध करवाया है। इनके अतिरिक्त लगभग बीस अन्य राजकूल भी थे, जो अपने आपको चालुक्य, चुलिक अथवा चौलुक्य कहते थे । साधारणतया चौलुक्य-शब्द राजकुटुम्ब अर्थ में प्रयोग किया जाता है । 'पृथ्वीराज-विजय' में एक स्थान पर लिखा है कि सात सौ चुलुक्यों (चलुक्यान्तम्) ने पुष्कर पर धावा बोला । टीकाकार ने इसका अर्थ चुलुक्य जाति के सदस्य (जनविशेषाणाम्) लिखा है, जिसकी पुष्टि कुछ अन्य स्रोतों से भी होती है। पौराणिक आख्यान कुमारपाल के शिलालेख -वड़नगर प्रशस्ति में वर्णन है कि दनु के पुत्रों से रक्षा पाने के लिये देवताओं ने ब्रह्मा से प्रार्थना की। ब्रह्मा उस समय संध्या करने के लिये आसन पर विराजमान थे, उन्होंने गंगा जल से भरे हुए चुलुक (पात्र) में से चुलुक्य नामक पराक्रमी पुरुष को उत्पन्न किया, जिसने अपनी कीर्ति से तीनों लोकों को पवित्र किया। उससे एक जाति का उद्भव हुआ, जो चौलुक्य नाम से विख्यात है। _ 'व्याश्रय काव्य' के टीकाकार अभयतिलक गणि ने चौलुक्य वंश शब्द पर टीका करते हुए उपरोक्त कथा को दोहराया है। मेरुतुङ्ग ने भी 'प्रबन्ध-चिंतामणि' में अभयतिलक गणि की पुनरावृति की है, जिसका सार है कि साहसी योद्धा (चौलुक्य वंश प्रवर्तक) संध्या के समय किये हुए ब्रह्माजी के आचमन से उत्पन्न हुआ। बालचन्द्र सरि ने अपने ग्रन्थ 'वसंत-विलास' में वड़नगर प्रशस्ति का अनुसरण करते हुए जोड़ा है कि प्रथम चौलुक्य की उत्पति राक्षसों का विनाश करने के लिए की गई थी। इन ग्रन्थकारों के पीछे जयसिंह सूरि हुआ, जिसने अपने 'कुमारपाल भूपाल चरित' में अनैसर्गिक वंशोत्पति की उपेक्षा करते हुए अपने नायक के पूर्वजों की वंश-परम्परा का आरम्भ चुलुक्य नाम के महान् योद्धा से खोजा : चुलुक्य एक महान् एवं धर्मखण्ड २१, अंक Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परायण योद्धा था । उसने अगणित शत्रुओं को विनष्ट किया । राजधानी बनाई | फिर उसके नाम से चौलुक्य नाम का एक वंश चला। पुरा मुरारिवद्विश्व विश्वोद्धार धुरन्धरः । चुलुक्य इति विख्यातः संजातः क्षत्रियोपमः ॥२.१६ ॥ प्रमुख दो गोत्र विह्नण ने 'विक्रमांकदेव चरित' में लिखा है कि एक बार जब ब्रह्मा संध्या अनुष्ठान में लगे हुए थे, तब इन्द्र ने प्रार्थना की कि एक योद्धा की उत्पति कीजिये और ब्रह्मा ने अपने चुलुक के जल से एक वीर उत्पन्न किया । उस वीर से राजाओं का एक क्रम चला, जिसमें हारीत और मानव्य राजा हुए। इन महीपतियों का विवरण देते हुए जगदीशसिंहजी लिखते हैं, "विल्हण ने हारीत और मानव्य को चालुक्य वंश में बतलाया है । इनका पहले अयोध्या में तथा बाद में दक्षिण में राज्य करना बतलाया है । कर्नल टॉड ने इनका मूल स्थान लाहौर बतलाया है । उपलब्ध तथ्यों से यही ज्ञात होता है कि चालुक्य उत्तर-भारत के ही क्षत्रिय थे और उनका मूल-पुरुष हारीत था । दक्षिण भारत के चालुक्य उत्तरी भारत के चालुक्यों से भिन्न हैं। दक्षिण के चालुक्यों का गोत्र मानव्य था, लेकिन उत्तर भारत चालुक्यों का गोत्र भारद्वाज था ।" इसी बिन्दु पर सी० वी० वैद्य का कथन है कि दक्षिण के चालुक्य राजपूताना के चालुक्यों से भिन्न हैं। दोनों क्षत्रिय हैं, परन्तु मराठा चालुक्य अपने को सूर्यवंशी कहते हैं और उनका गोत्र मानव्य है, जबकि राजपूताना के चालुक्य अपने को सोमवंशी कहते हैं और उनका गोत्र भारद्वाज है । गोत्रों के इस विवाद को अमान्य ठहराते हुए रघुनाथसिंहजी, कालीपहाड़ी ने लिखा है, भिन्न गोत्र होने से दक्षिण व उत्तर के चालुक्य भिन्न मालूम पड़े, राजवंश में ) पीछे लिखा जा चुका है कि राजपूतों के गोत्र उनके गुरु गोत्र होते हैं । अतः भिन्न गोत्र होने से वंश भिन्न नहीं होता है । " "सी० वी० वैद्य को परन्तु जैसा (क्षत्रिय व पुरोहितों के इन उपाख्यानों के बारे में डॉ० एस० के० मजूमदार का मत है कि जयसिंह सूरि के अतिरिक्त अन्य समस्त ग्रन्थ-लेखकों ने देवी-देवताओं की कहानियों का अभिकथन किया है; क्योंकि उस काल में राजवंशों की उत्पति किसी पौराणिक या महाकाव्य के वीर पुरुष से मानने की सामान्य प्रथा थी । प्रत्यक्ष रूप से ये कहानियां हमारे वर्तमान उद्देश्य के लिये निरर्थक हैं । मधुपद्म को अपनी चारण भाटों की कथाएं चन्द बरदाई के पृथ्वीराज रासो की ( राजस्थान भारती, बीकानेर से मुद्रित ) प्रति में चाहमानों की उत्पति के बारे में लिखा है कि ब्रह्मा के यज्ञ से आदि-वीर पुरुष चौहान मानिकराय उत्पन्न हुआ (ब्रह्मा न जग उपन्न भूर, मानिकराइ चहुआन सूर), लेकिन पृथ्वीराज रासो के सबसे वृहत् संस्करण (जिसे नागरी प्रचारिणी सभा, बनारस ने छापा है) के अनुसार अबू पर्वत पर वशिष्ठ के नेतृत्व में एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया गया । इस कार्य में राक्षस विघ्न डालने लगे । इससे मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से वशिष्ठ की प्रार्थना पर प्रतिहार, चालुक्य और परमार एक के बाद एक प्रकट हुए, लेकिन कोई भी राक्षसों को हराने में सक्षम न हुआ, तो चाहमान को ६२ तुलसी प्रज्ञा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ पैदा करना पड़ा, जिसने राक्षसों का नाश किया और अन्त में मुनिगण अपना यज्ञ शान्तिपूर्वक सम्पन्न करने में सफल हुए। यह सब अज्ञात कवियों की कल्पनात्मक उपज है, जो मुख्यतः दन्त-कथाओं पर आधारित है। इनसे मिलते-जुलते वर्णन कर्नल टॉड, कनिङ्घम आदि ने संकलित किये हैं। ये कथायें अग्निकुल-कथा के नाम से जानी जाती हैं। आधुनिक मत क्रुक, जैक्सन, केम्पबेल, डी० आर० भण्डारकर आदि ने भी अग्निकुल-कथा को लिखा है, किन्तु बूलर, राजा श्यामलदास, डॉ० ओझा, वगैरह ने इन कथाओं को अनैतिहासिक माना है। वस्तुत: अग्निकुल कथा आबू (जहां अग्नि कुण्ड स्थित है) के इतिहास का शौर्य समन्वित स्मृति-विवरण है। मध्यकाल तक घटनाओं पर पराकथा रूपी आवरण चढ़ाकर उसे सरस बनाना र अनुसार आबू के राज्याधिकारियों के क्रमवार वैभव तथा पराभव पर पौराणिक परिवेश का मुलम्मा चढ़ाके एक सार-संक्षेप दिया गया है। उसमें से अलौकिक और देविल अंश निकाल देते हैं, तो बाकी बचेगा अर्बुद्ध मण्डल पर (अरब आक्रमणों की की शुरूआत से) बारी-बारी से प्रतिहार, चौलुक्य, परमार और चौहान (देवड़ा) राजकुलों के राज्य करने का गौरवशाली इतिहास ।" इस संबंध में डॉ० डी० आर० भण्डारकर ने लिखा है ... "इस प्रकार यह स्पष्ट है कि लाट का एक भाग प्रथमतः गुर्जरों के पीछे गुजरात कहलाने लगा, जब यह चौलुक्यों के शासन अन्तर्गत आया । इसका परिणाम अनिवार्यतः यह है कि चौलुक्य गुर्जर थे, जो विदेश से आये थे।" दूसरे लेख में उन्होंने गुर्जरों के बारे में लिखा है कि 'इस जाति के दो झुण्ड थे, जो दो भिन्न-भिन्न अवधियों में अपना देश छोड़कर परदेश में जा बसे ।.....'दूसरा स्वदेश त्याग कल्याण कटक यानि कनौज से दसवीं सदी (ईस्वी) के मध्य में हुआ, लेकिन वे दक्षिण में गुजरात से आगे न बढ़े।' 'यह सामान्यतः चौलुक्य या सोलंकी के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।' एक दानपत्र में मूलराज चौलुक्य ने अपने को कांची के स्वामी (व्यालकांची-प्रभु) का वंशज बताया है । कांजीवरम् दक्षिण भारत का एक नगर है। इसका निष्कर्ष यह हुआ कि गुर्जरों का आगमन कैसे भी हुआ हो, किन्तु मूलराज के पूर्वजों को तो दक्षिण से ही जोड़ना उचित है। ___ श्रवण-बेलगोला स्मरणलेख सूचित करता है कि गांग नायक मारसिम्ह (द्वितीय) ने गुर्जरपति का विरुद इसलिये धारण किया कि उसने गुर्जर-भूमि को जीता था और गुर्जरपति को हराया था । स्पष्ट है कि चौलुक्य राजा गुर्जरपति इसलिये कहलाते थे कि गुर्जर-प्रदेश (गुजरात) पर वे राज्य करते थे । वि० सं० ९९९ में मूलराज चौलुक्य ने सांचोर पर अधिकार किया। उसके शासनकाल का (वि० सं० १०५१ का) एक दानपत्र बालेरा से मिला है, जिसमें वरणक (वर्तमान में सांचोर तहसील का वरणवा) गांव मूलराज द्वारा दान में दिये जाने का उल्लेख है। जागीर अधिग्रहण तक बालेरा एक सांसण गांव था, इससे पाया जाता है कि बालेरा पड़ोसी गांव वरणक का ही खंड २१, अंक Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंश था । इस समय भी जब सांचोरवासी जोधपुर या उसके उस पार से लौटता है, तो वह पूछने पर बतायेगा कि 'मारवाड़' गया था । दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि सांचोर निवासी स्वयम् को आज भी मारवाड़ में होना नहीं मानता । ऐसा इसलिये है कि सांचोर एक लम्बे अर्से तक गुजरात में रहा । सोमेश्वर ने अपने ग्रन्थ 'सुरथोत्सव' में मूलराज को 'गुर्जर क्षिति-भुज' लिखते हुए उसे चौलुक्य - भूपाल कुल में होना बताया है । स्पष्ट है कि मूलराज चौलुक्य वंश का था और गुर्जर प्रदेश पर राज्य करता था । इससे यह भी साफ हो जाता है कि गुजरात नाम इसलिये नहीं पड़ा कि इसका चिरकाल तक सम्पर्क चौलुक्य वंश से था । डॉ० मजूमदार ने चौलुक्यों के पुरखों के संबंध में लिखा है, " सम्भवतः राजि के पितृ मधुपद्म नाम से पुकारे जाने वाले नगर के अल्प- प्रभावी राजा थे । (डॉ० ) एम० एम० मिराशी का मत है कि यह मधुपद्म, मधुवेणि ( आधुनिक मथुवर) नदी, जो बेटवा की सहायक है, पर स्थित था। लेकिन यह पहिचान कई कठिनाइयों से घिरी हुई है और प्रयोग के लिये हम कल्पना करें कि मथुरा ही मधुपद्म था । इस प्रकार हम स्थिर करना चाहेंगे कि राजि गुजरात के बाहर, संभवतः मथुरा से आया था । " हता नैणसी ने टोडा, (टोंक जिला) को सोलंकियों (चौलुक्यों) का आदिस्थान बताया है। महाकवि बांकीदासजी ने भी टोंक-टोडा को सोलंकियों का वतन कहा है ।" सोलंकियों के एक चौपड़ा (पुस्तक) में सोलंकियों की पहली राजधानी सौरमगढ़ (सामनगढ) और फिर संवत्सर ८८४ में टोंक- टोडा में उनका राज्य लिखा है ।" टोंक जिला में सोलंकियों का प्राचीनतम साक्ष्य है- "देवली से १२ मील के करीब, (पूर्वी) बनास नदी के किनारे एक प्राचीन ऐतिहासिक गांव का राजमहल जो पूर्व जयपुर राज्य के दूनी ठिकाना में सम्मिलित था । इस जगह सोलंकी राजपूतों द्वारा बनाया हुआ एक प्राचीन किला भी है ।" मधूपद्म के सोलंकी श्री जयसिंह सूरि ने सोलंकियों का मूल स्थान 'मधूपद्म' नामक नगर लिखा है और वहां चालुक्य वंश के अनेकों राजाओं (भूधनाघनाः ) के बाद सिंह विक्रम क्षितिभृत् के होने की सूचना दी है जिसने महेश्वर के प्रसाद से सुवर्णसिद्धि पाई और पृथ्वी को अनृण ( कर मुक्त ) करके अपना संवत्सर चलाया। उसके उत्तराधिकारी ८५ राजाओं के पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भांति चालुक्य वंश में राजा राम हुए जिसकी प्रतापाग्नि को दृढ़ शक वंश के राजा भी सहन नहीं कर सके और उसके पुत्र सहजराम ने तीन लाख अश्वों के स्वामी शकपति को मारकर कीर्ति पाई --- Fr य: ( चुलुक्यः ) सांग्रामिककर्म कर्मठमतिर्दैत्यानिव प्राणिनां । रौद्रोपद्रवकारिणोऽरिनिकरानुज्जास्य तीक्ष्णासिना || निर्मायाप्यकुतो भयं कुवलयं स्वराज्यवैहासिकश्रीकं राज्यमतिष्ठियत् किल मधूपद्माभिधे पत्तने ॥ तुलसी प्रज्ञा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौलुक्य इति वंशोऽभूत्तन्नाम्ना विश्व विश्रुतः । आकरी नररत्नानां सुपर्वश्रेणि संकुलः ।। तद्वंश्या विश्वशस्याभावभूवुर्भूधनाधना: । वल्गत् त्रिवर्ग संसर्ग प्रियंभावुक वैभवाः ।। श्रीसिंह विक्रम इति क्षितिभृत् क्रमेण । जज्ञ महेश्वर वितीर्ण सुवर्ण सिद्धिः ।। यः क्षोणिचक्रम नृणं विरचय्य दानैः । संवत्सरं निजमवीवृत दासमुद्रं ।। पुष्फोर वीरकोटीर स्तत्पुत्रो हरिविक्रमः । स्वकीर्तिकेतकर्येन सुरभी चक्रिरे दिशः ।। पंचाशीतिर्नुपास्तस्माद्विस्मापक विभा बभुः । न सेहे यत्प्रतापाग्निः शकवंशैदृढेरपि ।। तदन्वयेऽभवत्क्षुण्ण खरदूषण वैभवः । रामोराम इव न्याय सदन मेदिनीश्वरः ।। ततः सहजरामोऽभाद्योऽश्वलक्षत्रयेश्वरं । हत्वा शकपति पत्तिमिव विश्वेऽप्यभूद्भटः ।। राजा सहजराम के पुत्र दडक्क ने विपाशा नामक राष्ट्र के अधिपति गजराज को जीता और अपने पूर्वज कांचिक व्याल की भांति प्रभूत दानादि देकर निर्धनों को भी दानवीर बना दिया । राजा दड़क्क का पुत्र राजा राजि हुआ जिसने विजयी राजा की तरह रथारूढ़ होकर देवनगर श्री सोमनाथ की यात्रा की और गुर्जर शासक सामंतसिंह की बहिन लीलादेवी से ब्याह रचाकर अयोनिज पुत्र मूलराज को प्राप्त किया अदीप्यत श्रिया श्रीदः श्रीदड़क्कस्तदात्मजः । यो विपासाख्यराष्ट्रेशं गजं सिंह इवाजयत् ।। भूपालः कांचिकव्यालस्तद्राज्यमथ भेजिवान् । यद्दानैरथिनोऽप्यासन् दानशौंडाः सुरद्रुवत् । राजा राजिरथाजिराजि विजयी राजेव रेजे शुचियो यात्रां विरचय्य देवनगरे श्रीसोमनाथोक्तितः ।। वंश्यां गुर्जर शासनस्य भगिनीं सामन्तसिंह प्रभोर्लीलाख्यां जगदेकवी रजननी लक्ष्मीव व्यूढ़वान् । तयो सूनुरनूनश्रीर्मूलराज इति श्रुतः । अयोनि संभवत्वेन सच्चमत्कार कारणं ।। मूलराज ने अपने मामा सामंतसिंह का राज्य पाया और भगवान् सोमेश्वर की कृपा से अनेकों युद्धों में विजय पाई । उसके पुत्र चामुंडराज ने मुडावर जीता। सिंधुराज को युद्ध में पछाड़ा और उसके पुत्र वल्लभराज ने लाट नरेश को विवश करके उसकी लक्ष्मी को प्राप्त किया जिससे उसे भीमदेव की प्राप्ति हुई। भीमदेव के चंड २१, अंक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षेमराज और कर्णदेव दो पुत्र हुए जिनमें द्वितीय कर्णदेव के पुत्र जयसिंह ने नरवर्मा, मदनवर्मा, बर्बरक आदि को हरा कर सिद्धराज का वीरूद पाया। इस प्रकार जयसिंह सूरि ने इतिहास की रक्षा करते हुए सोलंकियों के इतिहास को मूलपुरुष चुलुक्य से प्रारंभ बताया है और उनकी राजधानी मधूपद्म पत्तन । वहां अनेकों राजाओं के बाद सिंहविक्रम और हरिविक्रम के बाद राजाराम द्वारा अर्बुद राज्य स्थापना करने का उल्लेख करके राजा मूलराज द्वारा गुजरात में राज्य स्थापना कही है। 'कुमारपाल भूपाल चरित्र' के कवि के अनुसार चालुक्यों (सोलंकियों) का जो वंश वृक्ष बनता है उसमें अनेकों राजा अथवा वंशजों के नाम नहीं हैं। यह वंशवृक्ष निम्न प्रकार बनाया जा सकता है । मूलपुरुष ---चुलुक्य (मधूपद्म पत्तन का राजा, जिसके बाद अनेकों लोक विश्रृत राजा हुए) सिंह विक्रम (सुवर्ण सिद्धि पाकर पृथिवी को अनृण (करमुक्त) करने वाला एवं अपना संवत्सर चलाने वाला नृपति) हरिविक्रम (८५ राजाओं के बाद शकवंश को निर्मूल करने वाला राजा) राम (आबू में चोलुक्य वंश का पहला राजा) सहजराम (तीन लाख अश्वों के स्वामी शकपति को मारने वाला) दड़क्क (विपाशा राष्ट्र के राजा गज को जीतने वाला) राजि (सोमेश्वर की महायात्रा करने वाला व गुर्जर शासक सामन्तसिंह की भगिनी लीला से विवाह करने वाला) मूलराज (गुर्जर शासक सामन्तसिंह का उत्तराधिकारी जिसने राजा लक्ष को जीत कर विपुल सम्पदा पाई) तुलसी प्रज्ञा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चामुंडराज (सिंध के राजा को विजय करने वाला) ( अवन्तिनरेश राजा मुंज को संतापित करने वाला) 1 दुर्लभराज वल्लभराज 2 खंड २१, (लाट देश के राजा को मथ कर दण्ड वसूलने वाला) 1 भीमदेव - क्षेमराज 1 देवप्रसाद त्रिभुवनपाल ( जिसके पुत्र कुमारपाल ने जयसिंह सिद्धराज का उत्तराधिकार पाया ) - कर्णदेव जयसिंह सिद्धराज इस वंशवृक्ष को देखने से विदित होता है कि चालुक्य उत्तर से दक्षिण में गये हैं और पुनः वापस उत्तर में आकर आबू मण्डल के अधीश्वर बनें और फिर गुर्जरदेश के सोलंकी - राजवंश के संस्थापक । बीदासर ने अपने ग्रन्थ इसीलिये ठाकुर बहादुरसिंह, क्षत्रिय जाति की सूची ( पृ० १०८ ) में लिखा है "सोलंकी (चौलुक्य) प्रथम सोखं ( सोरमगढ़) में थे फिर दक्षिण में गये। वहां से बरास्ता मधुपद्म होते हुए एक शाखा अनहलवाड़े (पाटन) में आई।” यह कथन इतिहास - सम्मत है । क्योंकि आबू पर चौलुक्यों के अधिकार होने से पूर्व वि० सं० ८७२ में नागभट्ट (द्वितीय) ने अपनी राजधानी श्रीमाल से हटाकर कन्नौज में स्थापित की थी और उसे मुंगेर ( मुद्गगिरि) के पालों पर आशानुकूल विजय भी मिली किन्तु दूर चले जाने से कालंजर और गुर्जरत्रा के मंडलीक स्वतन्त्र होने लगे । भोज I ( वि० सं० ८९३-९४७ ) के समकालिक वाउक राजा के लेख से ज्ञात होता है कि उसने नंदावल्ल को मारा, मयूर राजा का वध किया और ९ मण्डलों के संघ का दमन किया । जब भोज बंगाल - अभियान में व्यस्त था तो "मंडोर के प्रतिहार संभवतः कक्कुक के राजत्वकाल (वि० सं० ९००-९१८) में किसी समय स्वतंत्र वन बैठे । १४ इसी समय अर्बुदाचल के प्रतिहार मंडलीक ने भी बगावत की और वह भी स्वतंत्र हो गया । भोज I ने इन मंडलीकों के विरूद्ध दमन और भेद की नीति अपनाई जिससे मंडलीकों में पारस्परिक एकता का अभाव हो गया; इसलिए जब राम चालुक्य ने आबू पर आक्रमण किया तो वहां का मण्डलीक अपनी स्वतंत्रता नहीं बचा सका और आबू पर सोलंकियों का शासन स्थापित हो गया । राम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र सहजराम हुआ जिसने तीन लाख घुड़सवारों के स्वामी शकपति को ६७ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार कर ख्याति पाई। यह शकपति शककूल (काबूल) का शाखानुशाखी (शेख) राजा है जिसका विवरण श्री माणिक्य सूरि विरचित कालकाचार्य-कथा में उपलब्ध __ सहजराम का पुत्र दड़क्क हुआ जिसने विपासा नाम के राष्ट्र (व्यासनदी के दोनों तरफ बसा राज्य) के राजा गज को परास्त किया और अपने पूर्वज ‘कांचिव व्याल' की तरह वहां इतना दान दिया कि याचक भी दानवीर हो गये । उसके पुत्र राजा राजि ने देवनगर श्री सोमनाथ की यात्रा आयोजित कर सम्मान पाया तत: सहजरामोऽभाद्योऽश्बलक्षत्रयेश्वरम् । हत्वा शकपति पत्ति मिव विश्वेऽप्यभूद्भटः ।। मदीप्यत श्रिया श्रीदः श्री दंडक्कस्तदात्मजः । य विपासाख्यराष्ट्रेशं गजं सिंह इवाजयत् ।। भूपालः कांचिकव्यालस्तद्राज्यमथ भेजिवान । यद्दानैरथिनोऽप्यासन् दानशौंडाः सरद्रुवत् ।। राजा राजिरथाजि राजि विजयी राजेवरेजे शुचि-- यो यात्रां विरचय्य देवनगरे श्री सोमनाथोक्तितः ।। वंश्यां गुर्जर शासनस्य भगिनीं सामंतसिंह प्रभो लीलाख्यां जगदेकवीरजननी लक्ष्मीमिव व्यूढ़वान् । उत्तरी भारत में यह समय बड़ा उथल-पुथल भरा रहा। दक्षिण का राष्ट्रकूट इन्द्रराज (तृतीय) वि० सं० ९७१-९७३ तक मान्यखेट की गद्दी पर था । राष्ट्रकूट गोविन्द (चतुर्थ) के वि० सं० ९८७ काम्बे ताम्रपत्र में लिखा है कि इन्द्रराज उत्तरीभारत के अपने अभियान में उज्जैन में ठहरा और महाकाल की पूजा-अर्चना की। तत्पश्चात् उसके अश्वों ने अथाह यमुना को पार किया और उसने विपक्षी नगर कन्नौज को पूर्णतया ध्वस्त किया। डॉ. ओझा लिखते हैं, "......"रघुवंशी प्रतिहार राजा महीपाल भागा, जिसका इन्द्रराज के अफसर चालुक्य नरसिंह ने पीछा किया । खजुराहो के चन्देलों के लेख से भी महीपाल के हार कर भागने की पुष्टि होती है। दूसरी तरफ विदग्धराज ने हस्तिकुण्डी गंवा कर भी हिम्मत न हारी और वह अपना खोया हुआ राज्य वापिस लेने को उत्कंठित रहा। शीघ्र ही उसके हाथ एक स्वर्णिम मौका लग गया । इन्द्रराज (तृतीय) का उपरोक्त हमला विदग्धराज के लिये एक वरदान के रूप में आया। ऊपर से सोने में सुहागा यह कि उस समय तक मंडलीक के नाते दडस्क अपने स्वामी महीपाल (वि० सं० ९७१-९८७) की सहायता में अपने राज्य से दूर, कन्नोज में था। पीछे से विदग्धराज ने दड़कक की राजधानी बसन्तपुर पर धावा बोल, न केवल हस्तिकुण्डी को पुनः प्राप्त किया, बल्कि अर्बुद मंडल को भी दबा लिया। दड़क्क के परिजनों ने तीव्र गति से भाग कर प्राण बचाये और टोडा (टोंक) तक मुड़कर भी न देखा ।१९ किन्तु शीघ्र ही परिस्थिति बदल गई और दड़क्क के पुत्र राजाराजि ने विजयी 'तुलसी प्रज्ञा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा की भांति देवनगर-सोमनाथ की यात्रा की और सामंतसिंह की बहिन लीला से विवाह रचाया। पाटन में प्रभुता अणहिलवाड़ापाटन गुर्जर देश की राजधानी था। वहां पर सोलंकियों की सत्ता को स्थापित करने वाले मूलराज के बारे में सुना जाता है कि उसके जन्म के संबंध में, चमत्कारयुक्त कारण होने से, वह अयोनिज था (संभवतः उसका जन्म शल्य क्रिया से हुआ हो) । उस मूलराज ने अपने पराक्रम से अपने मामा सामन्तसिंह की हत्या कर गुर्जर देश को अपने अधीन कर लिया। पाटन के बाद _हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि चौलुक्य भीमदेव (प्रथम) का पुत्र क्षेमराज था और क्षेमराज का पुत्र देवप्रसाद तथा पौत्र त्रिभुवनपाल था। कुमारपाल का चित्तौड़ लेख हेमचन्द्र द्वारा दी गई वंशावली की पुष्टि करता है। हेमचन्द्र आगे सूचित करते हैं कि क्षेमराज युवावस्था से ही तपस्यापरायण था। इसलिए उसने अपने पुत्र का नाम देवप्रसाद रखा और जब उसे सिंहासनारूढ किया जाने वाला था, तो सत्ता का मोह छोड़ एकान्तवास करने के लिए दधिस्थली चला गया। जब उनके कनिष्ठ भ्राता कर्ण को सिंहासनासीन किया गया तो क्षेमराज ने अपने पुत्र देवप्रसाद को उसकी सेवा में भेज दिया। कर्ण की मृत्यु से पूर्व ही देवप्रसाद एक अग्नि काण्ड में जल मरा इसलिये उसका पुत्र त्रिभुवनपाल सिद्धराज के संरक्षणार्थ पाटन आ गया। त्रिभुवनपाल ने सिद्धराज की निष्ठापूर्वक सेवा की। त्रिभुवनपाल के (बड़े) पुत्र कुमारपाल ने सिद्धराज के निस्संतान मरने पर पाटन का सिंहासन पाया। प्रभाचन्द्र के अनुसार कुमारपाल के (छोटे) भाई कीर्तिपाल को सिद्धराज ने नवघण के विरुद्ध एक अभियान का नेता बना कर भेजा था। सोलंकियों के एक राव की बही में उद्धृत कुंवरपालजी की पहिचान हम कीर्तिपाल से करते हैं । उक्त रावजी के अनुसार कुंवरपालजी ने सिया (तालुका धानेरा, उ० गुजरात) में आवास किया । उक्त राव के अनुसार कुंवरपालजी (उर्फ कीर्तिपाल) के छः कुंवर थे. तथा उनके वंशज नामों के आगे दर्शाये गये ग्रामों में अभी निवास करते बताये जाते हैं :.. १. नपराज रूपनगर (मेवाड़ में) २. पृथ्वीराज भीनमाल, फिर धनवाड़ा, लेदरमेर व खानपुर (तीनों भीनमाल तहसील में) ३. श्यामजी सेवाड़ा सोलंकियान, कावतरा व खारा (क्रमशः रानीवाड़ा, भीनमाल व सांचोर तहसीलों में) ४. जोधजी लाहगढ़ ५. वागजी कपूरड़ी (जिला बाड़मेर) ६. नागलजी वाव के भोमिया (वाव, उत्तर-गुजरात में है) राजस्थान में सोलंकियों का पाटवी ठिकाना रूपनगर होने पर भी उसका अणपंज २१, अंक Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिलवाड़ा पाटन से क्रमवार इतिहास नहीं मिला। बिना क्रम का इतिवृत, विभिन्न स्रोतों से जैसा हमें मिला है, वह यहां दिया जा रहा है ।" वि० सं० १३०२ में पाटन छूटने के कई पीढियों बाद नृपराज का वंशज भोज देपावत सिरोही में (माल मगरा के आस-पास) के गांव लास-मुणावद (मणादर) में आवासित था।२ भोज (भोजराज) और सिरोही के राव लाखा (वि० सं० १५०८४०) के बीच शत्रुता हो गई और पांच-सात लड़ाइयों में भोज जीत गया। फिर ईडर के राव ने मदद की तो भोज मारा गया । लास की जागीर छूट जाने पर वे (सोलंकी) मेवाड़ के महाराणा रायमल (वि० सं० १५३०-६६) से मिलने कभलमेर गये। उस समय देसूरी का क्षेत्र मादड़ेचा चौहानों के अधिकार में था और वे (मादड़ेचा) महाराणा की आज्ञा की अवहेलना करते थे, जिससे महाराणा ने उन (सोलंकियों) को मादड़ेचों से देसूरी लेने को कहा। इस पर (भोज के पौत्र) रायमल ने आपत्ति की कि मादड़ेचे तो उनके संबंधी हैं। महाराणा ने कहा कि दूसरी जगह देने को नहीं। तब सोलंकियों ने मादड़ेचों को मार कर (१४० गांवों-सहित) देसूरी का पट्टा लिया । रायमल के चार पुत्र थे, जिनमें से अग्रज शंकरसी के वंशधर तो भीलवाड़ा में जा बसे और दूसरे पुत्र सामंतसी की औलाद वाले रूपनगर में आबाद हुए। भोजराज सोलंकी के दूसरे पुत्र गोड़ा के पुत्र सुलतानसिंह के बेटों ने, जिनमें अखैराज विशेष पुरुषार्थी था, सबने मिल कर महाराणा रायमल के समय वि० सं० १५३५ में जीवराज यादव को मार कर पानरवा (भोमट-मेवाड़) पर अधिकार कर लिया। इसी तरह भोजराज (भोज) का एक अन्य प्रपौत्र सामन्तसिंह का भाई भैरवदास गुजरात के सुलतान बहादुरशाह की चित्तौड़ की दूसरी चढ़ाई में भैरवपोल पर लड़ता हुआ काम आया । महाराणा लाखा व स्थानीय ठाकुर मांडण के समय में पार्श्वनाथ के चैत्य के मंडप के जीर्णोद्धार किये जाने का लेख मिला है ।२६ इससे स्पष्ट होता है कि देसूरी व उसके आसपास का भू-भाग वि० सं० १४७५ से पूर्व ही सोलंकियों के अधीन हो गया था। संभवतः सिरोही के महाराव लाखा के बीच वि० सं० १४८८ में लड़ाई ____लाछ गांव से कुछ अन्तर पर स्थित वाघसीण (बागसीन) ग्राम के शान्तिनाथ मन्दिर से वि० सं० १३५९ वैशाख सुदि १० शनिवार का महाराज सामंतसिंह (जालोर) के समय के लेख से ज्ञात होता है कि सोलंकियों ने सामूहिक रूप में ग्राम, खेत और कुएं के हिसाब से मन्दिर के निमित्त कुछ अनुदान की व्यवस्था की थी। इससे सिद्ध है कि डोडियाल देश (वि० सं० १३१९ संघा शिलालेख में निरुपित) जो उस समय जालोर के सोनगिरों के आधीन था। वहां सोलंकियों का प्रवेश वि० सं० १३५९ तक हो चुका था और यदि सोलंकियों के एक राव के कथन पर विश्वास करें कि वि० सं० १३२६ में कंवरपालजी के खानदान ने सिया का परित्याग किया तो इसका फलितार्थ यही होगा कि वि० सं० १३२६ से १३५९ के मध्य सोलंकियों का लाछ-मणादर में पदार्पण हुआ और वि० सं० १३५९ से १४७५ के बीच किसी समय मेवाड़ की ओर उन्होंने कूच किया। तुलसी प्रज्ञा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामन्तसिंह के पौत्र और देवराज के पुत्र वीरमदेव ने महाराणा अमरसिंह (प्रथम) की सहायता में शाहजादा खुर्रम के साथ बड़ी मर्दानगी से कई लड़ाइयां लड़ी।" वीरमदेव के बाद जसवन्तसिंह हुआ। फिर दलपतसिंह हुआ, जो महाराणा राजसिंह के प्रधान फतहचन्द के साथ बांसवाड़ा की चढ़ाई में सम्मिलित था ।३० दलपतसिंह का आत्मज विक्रम (वीका) जैसा नाम वैसा वीर हुआ। कुंवर भीमसिंह, सोलंकी वीक्रम, राठोड़ गोपीनाथ आदि ने नारलाई (घाणेराव के पास) शाहजादा अकबर एवं तहब्बर खां द्वारा संचालित १२,००० सेना के साथ घोर युद्ध किया, जिसमें दोनों योद्धाओं ने बड़ी वीरता दिखाई । उन्होंने न केवल मुगल सेना को परास्त किया, बल्कि उसका खजाना भी लूट लिया।३१ बीका का उत्तराधिकारी सूरजमल था, जिसने महाराणा संग्रामसिंह (द्वितीय) के समय में बांधनवाड़े के निकट रणबाज खां के साथ दिल खोल कर युद्ध लड़ा । अन्त में राजपूतों की विजय हुई ।२ सूरजमल के पीछे क्रमशः श्यामलदास→वीरमदेव (दूसरा)-जीवराज-कुबेरसिंह-रत्नसिंह, सरदारसिंह-नवलसिंह-बैरीसाल+भूपालसिंह- अजीतसिंह हुए।" डॉ० ओझा के अनुसार वि० सं० १९८८ में अजीतसिंह मौजूद था। सन्दर्भ : १. ओझा, डॉ० गो० ही०; सोलंकियों का प्राचीन इतिहास, प्रथम भाग; वैदिक __ यन्त्रालय, अजमेर (वि० सं० १९६४) पृष्ठ १ की टिप्पणी । २. ऍपि० इण्डि०, खण्ड ३, पृ० २९३-३०५ ३. गहलोत, जगदीशसिंह; राजस्थान के राजवंशों का इतिहास (सं. विजयसिंह गहलोत) जोधपुर प्रिण्टर्स, जोधपुर (१९८० ई०) पृ० ३५ ४. वैद्य, सी० वी०; हिन्दू भारत का उत्कर्ष, पृ० २४१ ५. शेखावत, रघुनाथसिंह काली पहाड़ी; क्षत्रिय राजवंश, भाग ३; अनुपम प्रिण्टर्स, __ झंझुनूं (वि०सं० २०५०) पृ० ९ ६. मजूमदार, अशोक कुमार; चौलुक्याज ऑफ गुजरात; भारतीय विद्या भवन, बम्बई-७ (१९५६ ई०) पृ० ७ ७. विशेष विवरण के लिए कृपया देखिये, “अग्निकुल की उत्पति और आबू" नामक ___ मेरा लेख (रणबांकुरा, वर्ष १० अंक ११ पृ० ३२-२७) ८. चौलुक्याज ऑफ गुजरात, पृ० २२ ९. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग १ (सं० बदरी प्रसाद साकरिया) राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर (वि० सं० २०१६) पृ० २८० और २६३ इनको हम उत्तर भारत के चौलुक्य कह सकते हैं और उन्हीं का इस स्थान से आशय रहा हो। १०. बांकीदासरी ख्यात (सं० पंडित नरोत्तमदासजी स्वामी) राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण ___मन्दिर, जयपुर (वि० सं० २०१२) पृ० १ बात सं० १ ११. श्री धुंकलजी भूरजी राव, निवासी अनापुर (ताल्लुका-धानेरा) ___इन कथनों की पुष्टि करने का कोई स्रोत नहीं मिला है । खण्ड २% अंक Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. राजस्थान डिस्ट्रीक्ट गजेटियर, टौक, १९७० ई० पृ० ३०० १३. सांचोर (जिला जालोर) का राज्य कालमों से विजयसिंह (देवड़ा) ने छीन लिया, जिस पर (भीमसिंह के वि० सं० १२२५ सांचोर शिला-लेख तक) उसके वंशजों का आधिपत्य निरन्तर बना रहा । उस (विजयसिंह) के आठवें उत्तराधिकारी राजा हरपालदेव का हरपालिया (जिला बाड़मेर) पर पुनः शासन होने का स्तम्भ लेख मिला है । हरपालदेव ने बिना राज्यवाले अपने पिता, पितामह आदि के नाम उक्त लेख में लिखाने की उपादेयता न समझी___ "सूर्यवंश के उप-वंश चौहान वंश में राजा विजयसिंह हुए। उसके बाद बखतराज, यश कर्ण, शुभराज, भीम आदि के बाद आठवें राजा हरपालदेव और राजकुमार सामन्तसिंह....."हैं ।" देखें- डॉ० परमेश्वर सोलंकी के हरपालिया कीर्ति स्तंभ विषयक लेख, मरुभारती, पिलानी, अंक ३६।१ एवं ३७।४ १४. राजस्थान डिस्ट्रीक्ट गजेटियर्स-जालोर, राजस्थान सरकार, जयपुर, १९७३ पृ० २० । विस्तृत विवरण के लिये देखें- आबू और 'भीनमाल का प्रतिहार राजवंश' (राव गणपतसिंह) शोध पत्रिका, उदयपुर ४५।२-३ पृ० ३८-५७ १५. देखें डॉ० परमेश्वर सोलंकी, कालकाचार्य कथानक पर एक दृष्टि, शोध पत्रिका, उदयपुर । डॉ० सोलंकी ने कालक कथा को सर्वप्रथम सं० ११४६ में खम्भात में लिखा जाना सिद्ध किया है और इस कथा को पांचवें कालकाचार्य से संबंधित माना है जो ९६ वर्ष की उम्र पाकर मोक्ष को प्राप्त हुए। १६. सोलंकियों के पूर्वज ने कांचीवरम् को जीत कर वहां के मंदिरों के लिये प्रभूत् दान दिया था जिससे उसे 'कांचिकव्याल' कहा गया वैसे ही दड़क्क ने भी विपाशा (व्यास) नदी के नाम से प्रसिद्ध राष्ट्राध्यक्ष गज को परास्त कर प्रभूत् दान वितरण किया। १७. श्री कुमारपाल भूपाल चरित्र (श्री जयसिंह सूरि) निर्णयसागर मुद्रणालय, मुम्बई, सन् १९२६ श्लोक सं० २५ से २८ १८. ओझा, डॉ० गौ० ही०; जोधपुर राज्य का इतिहास, प्रथम खड वैदिक यन्त्रालय, अजमेर (१९३८ ई०) पृष्ठ १०२-३ १९. विशेष जानकारी के लिये कृपया देखिये १०वीं से १४वीं सदी का आबू' नामक मेरा लेख (रणबांकुरा, वर्ष ९ अंक ७ पृष्ठ २-५) । २०. गुजरात में वांसदा, लूणवाड़ा, पीथापुर सहित कुछेक ठिकाने सोलंकियों के थे, लेकिन उनके वंशानुगत वृत छिट-फुट रूप में ही सही, आधे अधूरे मिलते २१. उदयपुर राज्य का इतिहास, पहली जिल्द, पृष्ठ ३३९; चौहान कुल कल्पद्रुम, ___ भाग १ पृष्ठ २२०; राजस्थान डिस्ट्रीक्ट गजेटियर्स, सिरोही (१९६७ ई० संस्करण) पृ० ६१, रासमाला (अनु० गोपालनारायणजी बहुरा) द्वितीय भाग पृ० १० तुलसी प्रज्ञा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. देवराज के पुत्र सुजादेव के दसवें वंशज देवा अजमेर के पास भिणाय में आ बसे (ओझा कृत राजपूताने का इतिहास, प्रथम जिल्द, भाग १ पृ० २२७) इसके पुत्र भोजराज सिरोही के लास (लाछ) गांव चले गये। देवराज या देपा, जिसकी पहचान हम भीमदेव (प्रथम) के पौत्र देवप्रसाद से करना चाहेंगे, जिसका पिता सूजा देव अथवा क्षेमराज था (ऊपर नाम उलट-पलट दिये हैं) का दसवा वंशज देवा होना ठीक जान पड़ता है। इस प्रकार भोज, देपा का पुत्र न होकर उसके कुल में होने के अर्थ में, देपावत है और ऐसा ही समझा जाना चाहिए । २३. मुंहता नैणसीरी ख्यात, भाग १ पृ० २८४ २४. क्षत्रिय राजवंश, भाग ३ पृ० ३० २५. ओझा कृत उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग १ पृ० ३९८-९९ २६. शर्मा, डॉ० जी० एन०, राजस्थान के इतिहास के स्रोत (१९८३ ई०) पृ० १३०-१३१ २७. ओझा कृत सिरोही का इतिहास, पृ० १९९-२०० २८. शर्मा कृत राजस्थान के इतिहास के स्रोत, पृ० १२३-१२४ २९. ओझा कृत उदयपुर राज्य का इतिहास, पहली जिल्द, पृ० ४८९-९० ३०. बही, दूसरी जिल्द, पृ० ५४० ३१. सोमानी, राम वल्लभ, हिस्ट्री ऑफ मेवाड़, अजन्ता प्रेस, जयपुर (१९६७ ई०) पृ० २८६ ३२. ओझा कृत उदयपुर राज्य का इतिहास, दूसरी जिल्द, पृ० ६१२ ३३. वही, दूसरी जिल्द, पृ० ९७५ माखेड़ी भी मेवाड़ में सोलंकियों का एक ठिकाना है। --पोस्ट चीतलवाना पिन-३४३०४१ जिला जालोर (राज.) खण्ड २१. अंक Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानव और देवताओं का कालमान (एक अंकगणितीय अध्ययन) मुनि श्रीचन्द्र 'कमल' श्वास का संबंध आयु से होता है। जहां श्वासोच्छ्वास (प्राण) पूर्ण हो जाता है वहां आत्मा उस शरीर को छोड़ देती है । जीवात्मा रहित शरीर मृत घोषित हो जाता है । जिस जीव के जितने श्वासोच्छवास निश्चित हैं वह उतने ही प्राणापान लेगा । यदि कोई प्राणी १ मिनट में सामान्य श्वास से अधिक श्वास लेता है तो वह निश्चित समय से पूर्व ही अपने आयुष्य को पूर्ण कर लेता है और यदि कोई जीव ध्यान, साधना के द्वारा १ मिनट में श्वासों की मात्रा कम कर लेता है तो वह अपनी निश्चित आयु-अवधि को बढ़ा लेता है। इस प्रकार श्वास की गति के आधार पर आयुष्य का परिमाण (वर्ष, मास आदि की गणना में) कम या अधिक होता है । समवायांग सूत्र, श्वासोच्छ्वास के संबंध पर विशेष प्रकाश डालता है। वहां श्वास का संबंध भोजन के साथ जोड़ा गया है। समवायांग, प्रथम के ४४वें और ४५वें सूत्र में वर्णन है ते णं देवा एगस्स अदमासस्स आगंमति वा पाणमंति वा अससंति वा नीससंति वा । (११४४) तेसि णं देवाणं एगस्स वाससहस्सस्स आहारट्ठे समुपज्जा (१।४५) वे (एक सागरोपम आयुष्य वाले) देव एक पक्ष से आन, प्राण, उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं। उन देवों के एक हजार वर्ष से भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है। इसी प्रकार समवायांग (२।२१.२२) के अनुसार--- ते गं देवा दोण्हं अद्धमासाणं आणमंति वा पाणमंति वा अससंति वा नीससंति वा । (२।२१) तेसि णं देवा दोहिं वाससहस्सेहिं आहाढे समुपज्जा (२।२२) । वे (दो सागरोपम आयुष्य वाले) देव दो पक्षों से आन, प्राण, उच्छ्वास, निःश्वास लेते हैं। उन देवों के दो हजार वर्षों से भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है । खण्ड २१, बैंक २१ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार तीन सागरोपम आयुष्य वाले देव तीन पक्षों से एक बार आन, प्राण, उच्छ्वास, निःश्वास लेते हैं । और उन्हें तीन हजार वर्षों से भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होती है जिससे देवताओं का उच्छ्वास, निःश्वास और भोजन उनकी आयुष्य के कालमान के आधार पर निर्धारित होता है, ऐसा जान पड़ता है । समवायांग में १ से लेकर ३३ सागरोपम आयुष्य वाले देवों के उच्छ्वास, निःश्वास और भोजन करने की इच्छा उत्पन्न होने का समय बताया गया है, जो समान अंतर के आधार पर क्रमशः बढ़ता गया है । इस संबंध में एक प्राचीन गाथा भी उपलब्ध होती है जस्स जइ सागरोवमाई ठिई, तस्स तत्तिएहि तत्तिएहि पक्खहि । ऊसासो देवाणं वास सहस्सेहि, आहारो तत्तिएहि पक्खेहिं ॥ जिसकी जितनी सागरोपम की आयुष्य स्थिति होती है उसके एक सागरोपम स्थिति का एक पक्ष इस अनुपात से श्वासोच्छ्वास की क्रिया होती है और एक सागरोपम का एक हजार वर्ष -इस अनुपात से आहार का कालमान होता है । श्वास और आयुष्य का सिद्धान्त १ सागरोपम आयुष्य वाले देव को आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है ? किया जा सकता है । अर्थात् २४×१= २४ उच्छ्वास, निःश्वास एक पक्ष में १ उच्छ्वास और निःश्वास एक वर्ष (२४ पक्ष ) में १००० वर्ष में – २४४१००० = २४००० उच्छ्वास - नि:श्वास दो सागरोपम आयुष्य वाले देव दो पक्षों से १ उच्छ्वास - निःश्वास लेते हैं । २ पक्षों से १ उच्छ्वास - निःश्वास ३४=१२ ( १ वर्ष) २४ पक्षों से २००० वर्षों से १२x२००० = २४००० 3" " तीन सागरोपम आयुष्य वाले देव जो तीन पक्षों से १ श्वास लेते हैं वे एक वर्ष (२४ पक्ष ) में ४ ३००० वर्षों में -- ३०००X८ = २४००० उच्छ्वास - निःश्वास लेंगे । = ८ किसने उच्छ्वास और निःश्वास के बाद इस प्रश्न का उत्तर गणित पद्धति से गुणित १६ " इस क्रम से १ से लेकर ३३ सागरोपम आयुष्य वाले देवों को २४००० श्वासोछ् - वास के बाद आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है । सभी देवों के लिए आहार करने की इच्छा के लिए उच्छ्वास और निःश्वास की संख्या एक समान है । परन्तु एक वर्ष में उच्छ्वास, निःश्वास लेने में संख्या का अंतर है । मनुष्यों की स्थिति मनुष्य सामान्यतया १ मिनट में १५ श्वास लेता है । जब वह चलता है तब तुलसी प्रशा "} Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ मिनट में १५ से २० तक श्वास लेता है । • बोलते समय १ मिनट में २० से २५ तक श्वास लेता है। ० नींद में १ मिनट में २५ से ३० तक श्वास लेता है । • क्रोध, भय आदि उत्तेजना में १ मिनट में ३० से ६० तक श्वास लेता है । ० वासना के आवेग में या संभोग में १ मिनट में ६० से भी अधिक श्वास उच्छ्वास लेता है। औसतन मनुष्य के १ मिनट में २० श्वासोच्छ्वास मानें तो १ घंटा में वह २०४६०=१२०० श्वासोच्छ्वास लेता हैं । एक दिन (२४ घंटे) में २४४१२००=२८८०० सामान्यतया मनुष्य दिन में २ बार खाना खाता है, एक दिन में वह २८८०० श्वास लेता है । २ बार खाना खाता है इसलिए २८८००:२=१४ ०० श्वासोच्छ्वास के बाद खाना खाता है। यदि दिन में १ बार खाए तो २८८०० श्वासोछ्वास के बाद खाना खाएगा। भूख के आधार पर देवताओं के संबंध में कल्पना करें तो २८८०० श्वासोच्छ्वास= २४ घंटा २८८०० २४०००x२४. २४००० ० घंटा २८८०० मनुष्य को २० घंटा के बाद खाने की इच्छा होनी चाहिए, जबकि मनुष्य एक दिन-रात में दो बार खाना खाता है। परन्तु आहार की इच्छा कब होती है, यह निश्चित नहीं है। देवताओं को २४८०० श्वासोच्छ्वास के बाद भूख लगती है। उसी परिमाण के आधार पर मनुष्यों को २० घंटा बाद आहार की इच्छा होनी चाहिए। चूंकि मनुष्य १ दिन-रात में २८८०० श्वासोच्छ्वास लेता है इसलिए १ मास (३० दिन-रात) में २८८००४ ३०=८६४००० १ वर्ष (१२ मास) में ८६४०००४१२=१०३६८००० १०० वर्ष में १०३६८०००x१००=१०३६८००००० अर्थात् मनुष्य १०० वर्ष में १ अरब ३ क्रोड ६८ लाख श्वास लेगा। देवताओं की स्थिति एक सागरोपम आयुष्य वाले १५ दिनों में १ श्वास लेते हैं। १०३६८००००० श्वास लेने में कितने दिन लगेंगे ? एक से लेकर ३३ पक्ष में एक श्वास लेने वाले देवों को कितने दिन लगेंगे ? इन प्रश्नों का गणितीय उत्तर इस प्रकार हैबम २१, अंक १७ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन) १८ १०३६८०००००×१५ = १५५५२०००००० (१५ अरब ५५ क्रोड २० लाख २ पक्ष में एक श्वास लेने वालों को ३१००४०००००० दिन ४६६५६००००००० दिन ६२२०८०००००० दिन ३ 6m x x ४ ५ ६ ८ 12 77 22 १५ १६ १७ 17 39 33 ९, १० " ११ " १२ " १३ १४,, 33 31 22 १८ "1 १९ 11 २०. " २१. " २२. ” २३. " २४. " 22 "" * ==== :: "" 77 17 17 33 "" २५. २६. २७. " २८. " २९. " ३०. " ३१. " ३२. " ३३. " " " 33 "" " 11 "" = = = = = 13 "" 11 33 39 "" "" ?? :::: "" 33 37 13 27 17 #1 "" "" 37 "" " 37 11 "3 13 " 71 11 71 33 13 17 " 27 " 97 "3 " 77 " "" 23 17 31 "7 27 23 " "" 27 33 31 11 "" "3 33 "" 33 " 31 37 13 33 37 22 "1 19 39 11 "" 17 11 33 77 11 71 " "" 37 13 "" 33 23 13 " 11 11 31 71 17 33 " 33 37 " 27 " 77 "" ., " 33 21 37 "" 17 31 21 31 33 77 33 21 17 37 93 37 "" ?? " 17 13 13 "3 19 "" 11 12 31 71 "" "1 " " 17 33 १५५५२००००००० दिन १७१०७२०००००० दिन १८६६४२४०००००० दिन ,,, २०२१७६०००००० दिन ,, २१७७२८०००००० दिन 11 11 33 ,, २३३२८००००००० दिन ,,, २४८८३२०००००० दिन २६४३८४०००००० दिन "" ,, २७९९३६०००००० दिन ,,, २९५४८८०००००० दिन 37 31 17 ३४२१४४०००००० दिन ३५७६९६०००००० दिन ३७३२४८०००००० दिन ३८८८०००००००० दिन ४०४३५२०००००० दिन ४१९९०४०००००० दिन ४३५४५६०००००० दिन ४५१००८०००००० दिन 77 ,, ४६६५६००००००० दिन ४८२११२०००००० दिन ४९७६६४०००००० दिन ५१३२१६०००००० दिन "" 12 37 13 ७७७६००००००० दिन ९३३१२०००००० दिन १०८८६४०००००० निन 11 १२४४१६०००००० दिन १३९९६८०००००० दिन 21 73 37 ३११०.००००००० दिन ३२६५९२०००००० दिन तुलसी प्रशा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस गणना से स्पष्ट होता है कि मनुष्य १०० वर्षों में १०३६८००००० श्वासोन्छ्वास लेता है। जबकि देवताओं को इतने ही श्वास लेने में १५ अरव ५५ करोड़ २० लाख से लेकर ५ खरब १३ अरब २१ करोड ६० लाख दिन लगते हैं। दोनों की समीक्षा उपरि लिखित अन्तर का एक कारण यह हो सकता है कि मर्त्य लोक का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है। इसके समर्थन में डा० परमेश्वर सोलंकी ने अपनी 'शकसाका' नामक पुस्तक के १४वें पृष्ठ पर दो उदाहरण दिए हैं(१) तैत्तरीय ब्राह्मण (३.९.२२) तो स्पष्ट ही कहता है--- “एकं वा एतद् देवानामहः यत् संवत्सरः ।" यह जो संवत्सर है वह देवताओं का एक दिन है। (२) पारसी लोगों के धर्म ग्रंथ में इसी भाव का वाक्य है ___ "त एच अपर मइन्यएन्ते यत परे ।" संस्कृत छाया (ते च अहरं मन्यन्ते यद् वर्षम्) अर्थात् जिसे हम वर्ष मानते हैं उसे वे देवता दिन कहते हैं। डा० सोलंकी ने अन्यत्र एक लेख (त्रिलोकसार का कल्कि और सेण्डाकोटस) में वाल्मीकि रामायण के आधार पर सहस्रक को दिन का वाचक बताया है। सदर्भ इस प्रकार है अप्राप्तयौवनं बालं, पंच वर्ष सहस्रकम् । अकाले कालमापन्न, मम दुःखाय पुत्रक ॥ (वाल्मीकि रामायण-उत्तरकांड, सर्ग ७३ श्लोक ५) इस पर टीका करते हुए पंडित रामाभिराम लिखते हैं'पंचवर्षसहस्र कम्' वर्षशब्दोऽत्रदिनपरः, किञ्चिन्यून चतुर्दश वर्ष मित्यर्थः । गीता प्रेस रामायण में इसका अर्थ दिया है-बेटा ! अभी तो तू बालक था। जवान भी नहीं होने पाया था। केवल पांच हजार दिन (तेरह वर्ष दस महीने बीस दिन) की तेरी अवस्था थी। तो भी तू मुझे दुःख देने के लिए असमय में ही काल के गाल में चला गया। ___इस प्रकार दिव्य वर्ष और दिन तथा लोकिक वर्ष और दिन में ३६०४३६० = १२९६०० कम अधिक का अन्तर होता है । लौकिक दिन १२९६०० का एक दिव्य वर्ष होता है । डा० सोलंकी के इस कथन की पुष्टि सूर्य सिद्धान्त से भी होती है। ज्योतिष ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त (सं० एफ० हॉल अर्डम् १९७४) के १४वें अध्याय में नौ प्रकार का कालमान बताया गया है । वहां टीका में लिखा है ब्राह्मम्-कल्पो ब्राह्ममहः प्रोक्तम् । परमायुः शतं तस्य । दिव्यं तवह उच्यते । बण्ड २२, अंक! Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्वष्टि षड्गुणा दिव्यं वर्षम् । –अर्थात् 'ब्राह्मम्' कल्प होता है, जो ब्रह्मा का दिन कहा जाता है। उसकी परमायु सौ वर्ष की है। दिव्यम् को अहः कहते हैं तो वह ३६० वर्ष तुल्य होता है। ___ अतः यह माना जा सकता है कि देव वर्ष और मानव वर्ष में १२९६०० गुणा कम अधिक का अंतर होता है। उसी अनुसार उसकी श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया भी घट बढ़ सकती है। अर्थात् श्वासोच्छ्वास के आधार पर मनुष्य के १०० वर्ष एक सागरोपम आयुष्य वाले देव के १५५५२०००००० वर्ष के बराबर होंगे। मनुष्य के कुल श्वास १०३६८००००० भी तेतीस सागरोपम आयुष्य वाले देवों के ५१३२१६००- , ०००० वर्ष के बराबर हो जाएंगे। जो छोटी और बड़ी इकाई में समान व्यवहार को बताते हैं । मनुष्य के श्वासोच्छ्वास और देवों के इन वर्षों में ५१२१७९२००००० वर्षों का अन्तर है। तुलसी प्रज्ञा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रम संवत्सर में न्यूनाधिक मास (सं० १ से २५०० वर्षों तक) []'स्व० मुनि हड़मानमलजी, सरदारशहर [मुनिश्री हड़मानमलजी, सरदारशहर की दीक्षा वि० सं० १९९३ में हुई थी। वे तेरापंथ साधु समाज में अग्रगण्य थे और ज्योतिष एवं अंक गणित में दक्ष थे । वि० सं० २०५२ चैत्र सुदी ७ को उन्होंने इस देह का त्याग किया। उनके द्वारा तैयार किए अनेक पत्रों में प्रस्तुत विवरण मिला है। इसमें विक्रम सं० १ से २५०० वर्षों तक के न्यूनाधिक मासों का उपयोगी संकलन है, इसलिए उसे प्रकाशित किया जा रहा है। -संपादक अति प्राचीन काल से वर्ष (संवत्सर) को सौर और चान्द्र भ्रमण के आधार पर परिगणित किया जाता रहा है । तैत्तिरीय संहिता (१४.१४) में बारह महिनों के नाम क्रमशः मधु, माधव, शुक्र, शुचि, नभस्, नभस्य, इष, ऊर्ज, सहस, सहस्य, तपस् और तपस्य आये हैं और साथ ही संसर्प और अहंस्पति रूप में अधिक और क्षय मासों के भी नाम दिये हैं । ऋग्वेद के एकमंत्र (१.१६४.४८) की व्याख्या में बताया गया है कि वर्ष में १२ माह, ३६० दिन और ७२० रात दिन होते हैं और प्रत्येक तीसरे वर्ष चान्द्र और सौर वर्ष का समन्वय अधिक मास अथवा मल तास से किया जाता था। विक्रम संवत्सर में गणना करने पर ढाई हजार वर्षों में ९२५ बार मास बढ़े-घटे हैं यह बढ़ना-घटना कैसे जाना जा सकता है ? इसका सर्व शुद्ध फार्मूला उपलब्ध नहीं है परन्तु यह अध्ययन रोचक है इसलिए न्यूनाधिक मासों के उल्लेख सहित सं० १ से २५०० तक के वर्षांक लिखे जा रहे हैं। खण्ड २१ अंक Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १ चैत्र सं० ३ भादवा सं० ६ आषाढ २० , २२ , सं० ९ वैशाख सं० ११ भादवा सं० १४ श्रावण सं० १७ जेठ २८ ॥ .४७ ७१ आषाढ १०४ १०६ ॥ ११२ ॥ १२३ चैत्र १०९ ॥ १२८ ॥ श्रावण १४७ ॥ वैशाख 11 " १९९ ॥ २०४६ ५७ आसोज"६० , ७९ श्रावण ९५ ,, ९८ ॥ ११४ , ११७ ,, १२० जेठ १३३ भादवा १३६, १५२ " १५५ ॥ १५८ " १७७ ॥ १९० , १९३ ,, १९६ , २०९, २१२ आषाढ २१५ , २२८, २३१ , २३४ , २४७ , २५० ।। २५३ ॥ २६६ श्रावण २६९, २७२, २८५, २८८ ।, वैशाख ३०४, ३०७ , ३२३ ॥ ३२६॥ ३४२ , ३४५ जेठ __ ३६४ , ३८० , ३८३ , ४०५ चैत्र २०७ , २२६॥ २४५॥ १८० ॥ १८२ ,, २०१ ,, आसोज ८ २२० , २३६, २३९ ,, २५५ , २५८ ,, २७४ ,, २९३ भादवा २९६ , ३१५ ,, ३३४ , ३५० , ३५३ आषाढ २२३ ॥ २४२ ॥ २६१ ॥ २८० " २६४ चैत्र २७७ ॥ २ २९९, ३०२ ३१२ " ३३१ ॥ ३१८ ३२१" ३२९ ॥ ३४८, ३६७ ॥ ३५६ ।। ३६९, ३८८ ॥ ३७२, ३९१, ३७५ ,, ३९४ ,, ४१३ । ३५८ आसोज" ३७७ ॥ ३९६ ,, ४१५ ,, तुलसी प्रज्ञा ४०७ श्रावण ४१० , Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ " ४३२ वैशाख ४३४ भादवा ४३७ ॥ ४४० ४५९ , ४४८ " ४६७ " ४५३ " ४७२ ॥ ४६२ खण्ड २६, अंक ४७५ ४७८ ४८६ जेठ ४८९" ४९७ ॥ ५१० ॥ ४१८ आषाढ ४२१ ४२३ फाल्गुन ४२६ , ४४२, ४४५ , ४५६, ४६२ चैत्र ४६४ ,, ४८१ ,, ४८३ ,, ४९४, ४९९ भादवा ५०२ ,, ५१३ , ५१८ , ५२१ ॥ ५३२, ५३५ ॥ ५३७ आसोज ५४० , ५५१ ॥ ५५६ ॥ ५५९ आषाढ ५७० वैशाख ५७३, २७५ ५७५ भादवा ५८९ आषाढ ५९२ वैशाख ५९४ , ५९७ ।। ६०८, १११।। ५२४ , ५२९ " ५४८ " ५४३ " ५६२ " ५०८॥ ५२७ " ५४६ चैत्र ५६४ कार्तिक ५८३ फाल्गुन ६०२ ,, ६२१ आसोज ६४० भादवा ५६७ श्रावण ५८६ ६०५ ६२४ ६१३ , ६३२ ६२७ जेठ ६३० ६३५ " ६३८ वैशाख ६४९ ६६५ ६ ६७० ॥ ६७३ " ६७६ ६७८ ६८१ ७०० आषाढ ६८४ ६८७च ६९२ ॥ ७११ आषाढ ७१४ ॥ ७११ ७३० " ७१६ ७३५ " ७३३ ७३८ ७५२ ७५७ ॥ ७५४ " ७२२ " ७४१ ॥ ०६० ७७९ वैशाख ७०५ कार्तिक ७०८ श्रावण ७२४ " ७२७ " ७४३ आसोज ७४६ " ७६२ " ७६५ ७८१ भादवा ७८४ " ८०३ " ८१९ " ७७६ ७७३ श्रावण ७९२ " ७९० " ७९५ ७६८ जेठ ७८७ ८०६ ॥ ८२५ ७९८ ॥ ८०० " ८१४ ॥ ८१७ ॥ ८०९ ८२८ ८३० ८३३ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ ॥ ८५२ ८६८ ८८७ ८७९ ८९० ९०६ Sop ९२ १३९ " ५ ९७४ ९७९ ९९३ १००४ ॥ १०१७ १०३४च १०३६ " जेठ ८४६ आसोज ८५५ " ८५७ " ८६० " । ८६५ " ८७४" ८७६ ॥ ८८४ ८९३ ८९५ श्रावण ८९८ ९०३ " ९१२ " ९१४ ॥ ९१७ " ९२२ भादवा ९३१ " ९३३ " ९६६ " ९४१ " ९५० ॥ ९५२ ७ ९५५ " ९५८ ९६९ ” ९७७ ९८७ आसोज ९९८ " १००६” १००९” जेठ १०१५ १०२५” १०२८” १०३१ " १०४४” १०४७" १०५०" १०५३ १०५५ श्रावण १०६३ भादवा १०६६ " १०६९” १०७२" १०८५" १०८८" १०९१" १०९३ " " ११०४" ११०७” . १११० ११२२ ॥ ११२० ११२३ आषाढ ११२६ ” ११२८ आसोज १२३१ " ११४२" ११४५' ११४७ ११५० " ११५८ ” ११६१" ११६४॥ ११६६ " ११६९ " ११७७ ॥ ११८० " ११८३ " ११८५" ११८८ आषाढ ११९६ श्रावण ११९९" १२०२ वैशाख १२०४ भादवा १२०७" १२१५' १२१८” १२२१ " १२२३ " १२२६ श्रावण १२३४" १२३७ ॥ १२४० " १२४२ " १२४५ " १०७४ " १०८२ ܕ ܘ ܐ ܐܼ ९८२ आषाढ ९८५ १००१" १०२० " १०२३ " १०३९" १०४२ " १०५८" १०६१ वैशाख १०७७ आषाढ १०८० " १०९६ १११५ १११८ ११३४” ११३७ ११५३ जेठ ११५६ ११७२ " ११९१ " ११९४" १२१०" १२१३ " १२२९" १२३२" १२४८". १२५१ " ११३९ ११७५ चैत्र तुलसी प्रज्ञा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८० ॥ खण्ड २), अंक १३८६ १४०५" १४४० " १२५३" १२५६ जेठ १२५९ " १२६१ " १२६४ आषाढ १२६७ " १२६९ आसोज १२७२" १२७५ " १२७८ १२८३" १२८६" १२८८ " १२९१ १२९४ १२९७ ” १२९९" १३०२" १३०५" १३०७ " १३१० १३१३ १३१६ चैत्र १३१८ " १३२१ " १३२४" १३२६ " १३२९ आषाढ १३३२ १३३४ फाल्गुन १३३७ श्रावण १३४० " १३४३ वैशाख १३४५ भादवा १३४८" १३५१ ” १३५३ " १३५६ ” । १३५९" १३६२" १३६४" १३६७ " " १३७२" १३७५ " १३७८ ॥ १३८३ " १३८९” १३९१ आसोज १३९४' १३९७ ” १४०० " १४०२ " १४०८ वैशाख १४१० भादवा १४१३ " १४१६ जैठ १४१९" १४२१ " १४२४" १४२७ ” १४२९" १४३२" १४३५" १४३८” १४४३ " १४४६ जेठ १४४८” १४५१" १४५४ ॥ १४५७ चैत्र १४५९" १४६२” १४६५ बैशाख १४६७ ॥ १४७० आषाढ १४७३ " १४७५ कार्तिक १५७८ श्रावण १४८४” १४८६” १४८९" १४९२" १४९४ १४९७ " १५०३ " १५०५' १५०८' १५११" १५१३ " १५१६" १५१९" १५२२ चैत्र १५२४ " १५२७ " १५३०” १५३२ आसोज १५३५" १५३८" १५४१ ” १५४३ श्रावण १५४६ " १५४९ वैशाख १५५१ भादवा १५५४” १५५७ जेठ १५६० ॥ १५६२ " १५६५ " १५६८ ” १५७० " १५७३ " १५७६ " १५७९ वैशाख १५८१ ” १५८४ १५८७ " १५८९" १५९५” १५९८ चैत्र १६०० " १६०३ " १६०६” १६११ आषाढ़ १६१४ " १६१६ आसोज १६१९" १६२५" १६२७ ” १६३० ॥ १६३३ " १६३५” १६३८ " १६४१ " १६४६ " १६४९" १६५२ " १६५४" १६५७ " । १६६० " १६६३ चैत्र १६६५ " १४८१ " १५०० १५९२ " १६०८" १६२२ १६६८" २५ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १६७१ १६७३ १६९० वैशाख १६९२ भादवा १७०९, १७११, १७२८ १७३० १७४७ १७४९ १७६६ १७६८ १७८५ १७८७ १८०४ चैत्र १८०६ "} १८२३ ' १८२५ श्रावण १८४२ १८४४ १८६१ १८६३ १८८० १८८२ १८ १८९८ आसोज १९०१ "" १९१७ १९३६ २०१३ २०३१ " २०५० "" 33 "1 13 " " 23 12 "" " "" "} "" "" "1 " "1 "" २०५३ 11 31 11 " #1 १८८५ १९०४ जेठ " १९२० १९२३ १९३९ १९४२ १९५५ १९५८ १९६१ १९७४ भादवा १९७७ १९८० १९९३ १९९६ १९९९ २०१५ १०१८ २०३४ आषाढ २०३७ "1 "} "} 19 11 १६७६ १६९५ १७१४ १७३३ १७५२ आषाढ १७७१ १७९० १८०९ १८२८ "" 31 १८४७ १८६६ 11 11 " 1: 11 11 २०५६ " " "" "" "} 11 " " "1 " "" 11 १६७९ १६९८ जेठ "1 "} "} १७१७, १७३६ १७५५ १७७४ १७९३ " १-१२ १८३१ वैशाख १८५० १८६९ १८८८ १८९० १९०७ १९०९ १९२६ १९२८ १९४५ चैत्र १९४७ "" १९६४ १९६६ श्रावण १९८३ १९८५ २००२ 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२२२४" २२२७॥ २२२९" २२३२" २२४० आषाढ २२४३” २२४५ कार्तिक २२४८" २२५१" २२५४" २२५९ ” २२६२ " २२६४ " २२६७ श्रावण २२७० " २२७३ " २२८३" २२८६" २२८९" २२९२ " २२९७ ” २३००" २३०२ आसोज २३०५ " २३०८" २३११” २३१६ " २३१९" २३२१ २३२४" २३२७ जेठ २३३० २३३८” २३४० " २३४३ " २३४६ " २३४९" २३५७ वैशाख २३५९ भादवा २३६२ " २३६८ २३७३ " २३७६ २३७८ " २३८१ २३८४" २३९२” २३९५ ” २४०० " २४०३ २४०६ ” २४११” २४१४ __२४१६ ” २४१९” २४२२ २४२५" २४३० ॥ २४३३ ” २४३५" २४३८ आषाढ २४४१" २४४३ फाल्गुन २४४९" २४५२" २४५४" २४५७ ॥ २४६० ॥ २४६२ आसोज २०८६ चैत्र २१०४ फाल्गुन २१२३ ॥ २१४२ फाल्गुन २१६१ आसोज २१८० भादवा २१९९" २२१८ " २२३७ २२५६ २२७५ २२९४ २३१३ २३३२ २३५१ श्रावण २३७० २३८९ २४०८ " २४२७ ॥ २४४६ " २४६५" २२७८ " २२८१ २३३५" २३५४ " २३६५" २३८७ " २३९७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६८ जेठ २४७१ " २४७३ " २४७६ ” २४७९" २४८१" २४८४" २४८७ जेठ २४९० चैत्र २४९२ भादवा २४९५ आषाढ़ २४९८ जेठ २५०० आसोज ऊपर दिए विवरण से कतिपय निष्कर्ष प्राप्त होते हैं १. सामान्यतया तीसरे वर्ष में एक अधिक मास होता है। २. प्रत्येक १९ वर्ष बाद वही मास अधिक होता है। ३. प्रत्येक १४१ वर्ष बाद १८वें वर्ष में अधिक मास होता है । इन निष्कर्षों के अपवाद भी हैं - १. नौ वर्षों बाद दूसरे वर्ष में अधिक मास हुआ है। २. वि० सं९ ४६२ में २०वें वर्ष में चैत्र मास बढ़ा है। ३. सं० २०३९ में फाल्गुन और आसोज दो मास बढ़े हैं और एक मास क्षय हुआ है। प्रस्तोता-मुनि श्रीचन्द तुलसी प्रज्ञा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाबरा (पोकरण) की देवलियां E] परमेश्वर सोलंकी राजस्थान राज्य के जोधपुर डिविजन में पोकरण से शेरगढ़ तथा फलौदी से फलसूट जाने वाली सड़क पर बसा गांव झाबरा, वर्तमान में थानक गोत्री राजपुरोहितों की आबादी है। यह गांव पुराने आम रास्ते पर बसा है जो अजमेर-मेड़ता से फलौदी-पोकरण होकर लोद्र वा सक्कर-सिंध में जाता था। इसीलिए यहां दसवीं सदी के भी कुछ अस्पष्ट लेख मिले हैं । ___ यहां दो सौ वर्ष पूर्व हमराजांणी और पेमांणी पुरोहित रहते थे जो भट्टि वंश से संबंधित थे । गांव में पधराई गई दो देवली क्रमशः सं० १८४७ और सं० १८६१ इस कथन का समर्थन करती हैं। सं० १८४७ में पोह बदी दशमी शुक्रवार को एक स्तंभ स्थापित किया गया था क्योंकि उसी दिन हमराजांणी भाटी अणदै संभवतः अपने पति की मृत्यु का समाचार मिलने पर साष्टांग प्रणाम करती हुई देवलोक को गई थी। स्तंभ पर लिखा है-हमराजांणी भाटी अणदै सष्टांग लघाती देवलाग गमअति--- अर्थात् हमराजांणी भाटी गोत्र की अणदै साष्टांग प्रणाम करती हुई देवलोक जाती है । संभवत वह अपने निवास स्थान से देवली-स्थापना के स्थान तक जो अन्येष्टि-संस्कार का स्थल रहा होगा, साष्टांग प्रणाम (पृथ्वी पर लेटकर दण्डोत) करते हुए गई होंगी। दूसरी देवली पन्द्रह वर्ष बाद की है जो पहली देवली के साथ खड़ी की गई और उस पर सती माता की मूरत कोरने के अलावा घुड़सवार महिला भी उत्कीर्ण है। मनरूप पेमांणि के साथ सेवै सुरतांणोत की पुत्री उमां पुरोहिताणी के सती होने पर उसके भाई गोमे द्वारा खड़ी कराई गई यह चोसेला देवली है । संभवतः हमराजांणी भा । अणदै के परिजनों में ही मनरूप पेमांणी की पत्नी उमां है और सेवा और गोमा, दो उसके भाई हैं जो सुरतांणोत कहे गए हैं। खण्ड २७, अंक Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २१, अंक तुलसी प्रज्ञा R PRO ST MOsmootoo S ॐeeg P SMARATH SANA AS TROIRAL गांव झाबरा (पोकरण) में खड़ी की गई दो देवलियों के ऊपर उत्कीर्ण शिलालेखों का फोटो-प्रिन्ट जो क्रमशः सं० १८४७ एवं संवत् १८६१ में स्थापित की गई। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाबरा (पोकरण) में स्थापित तीसरी देवली का फोटो इसी राजपुरोहित परिवार में तीसरी पीढ़ी की देवली जो सं० १८७९ में पधराई गई है, उसमें सवाइजीरोत और शंभुप्रसादरोत दो खापें बताई गई हैं और सवाईजी के पुत्र का नाम 'आसुजी' लिखा है। इस देवली में सवाईजी रोत कजलीदास के साथ शंभुप्रसादरोत पुरोहिताणी कलदि के सती होने की सूचना है। यह सती सं० १८७९ में जेष्ठ शुक्ला १४ को हुई और उसकी देवली आषाढ़ बदी एकम् को चढ़ाई गई। चौथी देवली सं० १७ (९?) ५४ वरषे जेठ (?) सुद ११ शुक्रवार' की दीख पड़ती है । इस देवली पर पुरोहित थनक (थानक गोत्र ?) झभरू की पत्नी (धणाइ) के महासती बनने को स्वर्ग लोक जाने की बात लिखी गई है। चारों देवलियों के मूल लेख पंक्ति अनुक्रम से निम्न प्रकार हैं१. समत १८४७ वरषे । मती पोह बद १० वर सुक खण्ड २१, वक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र षम'थांनक हमराजां णी भाटी अणदै सष्टांग लघाती' देवलाग गमअति।' २. समत १८६१ वरषे मती फाग ण सुद १२ वर मंगल मनरूप पेमांणि (मा) 2 सती प्रोतांणी उमां सेवै सुरतांणोत री माथ चोसेला भाइ गोमे करया । ३. श्री गणेसा य (नमः) समत १८७९ वषे (माता मारहा) जेठ सुद १४ सुभ दीन (सोम ?) कज(ली) दासः सवाइजीरोत कलदि सती प्रोयताणी (शंभु) प्रसादारोत तीयरी देवली आ सुजी चाडी छः सवाइजी रे बे टा मती आषाढ वदी १ ४. संवत १ (७)५४ वरषे जेठ(?) सुद ११ सुक र वारे पहैत थनक झमरू धणाइद माहसता बनवां सरग लोक गता टिप्पणी: १. “षम"-स्तंभ के लिए। २. 'सष्टांग लघाती'--आठों अंगों को पृथ्वी पर स्पर्श करके । ३. 'गमअति''गच्छति' का मूलरूप-गम्-जाना क्रिया । ४. 'चोसेला'-यह देवली (देवकुल) स्मारक का विशेष नमूना है। इसमें सेवै (सेवाराम) सुरतांणोत की पुत्री उमा पुरोहिताणी के सती होने पर उसके भाई गोमे (गोमाराम) ने ऐसी देवली निर्माण कराई है जिसमें उसकी बहन ढाल तलवार लिये घोड़े पर सवार है और साथ ही चौकी पर हाथ जोड़े खड़ी भी कोरी गई है। ५. 'मासोत्तमेमासे'- पद के लिए कुछ लिखा प्रतीत होता है ।। ६. 'आसुजी चाडी छः' इस वाक्य से यह प्रकट किया गया है कि परिजनों में बड़े पुरुष ने यह देवली स्थापित कराई है। ७. 'माहसता बनवां सरग लोक गता'-यह वाक्य भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसमें यह विश्वास प्रकट किया गया है कि स्वर्ग जाने से मृत पति की पत्नी 'महासती' हो जाती है। तुलसी प्रज्ञा Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओं सृष्टि संवत् 0 प्रोफेसर प्रतापसिंह प्रत्येक राष्ट्र को, अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं आदि के प्रति स्वाभाविक लगाव व आकर्षण होता है। सृष्टि संवत् भारतीय संस्कृति की परम्परागत धरोहर है । इसमें सृष्टि की अवधि की गणना का इतिहास है । सृष्टि संवत् का आधार संकल्प सूत्र है जिसकी परम्परागत प्राचीनता अज्ञात है । वेद को श्रुति कहते हैं। इसी प्रकार संकल्प सूत्र को अनुश्रुति कहते हैं। संपूर्ण राष्ट्र (भारत) उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम में ७५ वर्ष से मैंने इसका एक सा ही रूप पाया है ---- "ओं तत्सत् श्री ब्रह्मणो द्वितीय प्रहरार्द्ध वैवस्वत् मन्वन्तरे ....."।" ज्योतिष हिमाद्रि ग्रंथ तथा ज्योतिषाचार्य भास्कराचार्य कृत सिद्धान्त शिरोमणि ग्रंथ में लिखा है कि जिस क्षण गत कल्प समाप्त हो रहा था उसी क्षण चैत्र सुदी एकम् रविवार के दिन सूर्योदय के साथ परमात्मा की स्वाभाविक कामना, ईक्षण, तथा तप के साथ सृष्टि के कारणरूप सत्, रजस् व तमस् की साम्यावस्था - प्रकृति में विक्षोभ उत्पन्न हुआ। तीनों को परस्पर, आकर्षण-विकर्षण से अन्योन्य मिथुनीकरण प्रक्रिया हुई जिससे सूक्ष्म सृष्टि की रचना प्रारम्भ हुई । उसी क्षण से सृष्टि संवत् प्रारम्भ हुआ जिसकी गणना आज तक संकल्प सूत्र में है । संकल्प सूत्र सृष्टि की आयु का इतिहास है। जिसका उल्लेख ऊपर दिया है । वही सूत्र स्वामी दयानन्द सरस्वती ने, स्वरचित ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में दिया है । सूत्र कहता है कि सृष्टि का दूसरा पहर चल रहा है, अभी सष्टि-दिन की दोपहर (NOON) होने वाली है जिसकी संख्या ६ मनु, २७ महायुग गणना तथा सत्+ता+ द्वापर-+वर्तमान कलि का समय ५०९६ वर्ष सृष्टि संवत् है । इस गणना से सृष्टि संवत् १९६०८५३०९६ वर्ष संख्या आती है। यह गणना सृष्टि का इतिहास है, जो भारतीय ज्योतिष की महान् धरोहर है । पिछले दिनों इस संकल्प सूत्र का दूसरा रूप मेरे समक्ष आया है"अद्य ब्रह्मणो द्वितीय परार्द्ध श्री श्वेत वाराह कल्पे वैवस्वत् मन्वन्तरे.......।" पहले में "अद्य परार्द्ध श्री श्वेत वाराह कल्पे" है, शेष दोनों में समानता है। गणना समान है । ६ मनु २७ महायुग तथा आज तक की तीनों युगों की संख्या से सृष्टि संवत् १९६०८५३०९६ वर्ष ही आती है। सूर्य सिद्धान्त का सूत्र (१-२१) ब्रह्मा की आयु शत वर्ष कहता है जिसकी खंड २२, अंक १ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणना इस प्रकार है एक ब्रह्म अहोरात्र-सृष्टिकाल+प्रलयकाल=२ कल्प एक ब्राह्म वर्ष=३६० ब्राह्म अहोरात्र-३६०४२ कल्प ब्रह्मा की परम आयु-१००४३६०४२ कल्प ब्रह्मा की आधी आयु=३६००० कल्प सूर्य सिद्धान्त का यह सूत्र कहता है कि गत कल्प में ब्रह्मा की आधी आयु (३६००० ?) बीत गई है। वह वर्तमान कल्प, श्वेत वाराह, द्वितीयार्द्ध का प्रथम दिन है। डा० परमेश्वर सोलंकी ने इसे २९वां कल्प लिखा है। इससे पहले २८ कल्प बीत चुके हैं। इन २८ कल्पों के नाम वायुपुराण में दिए हैं । गत बृहत् कल्प अन्तिम २८वां कल्प था । भविष्य पुराण (३.३.४) के अनुसार २८वें बृहत् कल्प के अन्त में कुरूक्षेत्र संग्राम हुआ । ब्रह्मा की परम आयु ३६०००४२ कल्प को ही बृहदारण्यक उपनिषद् की कथा माला में मोक्ष की अवधि अथवा मुक्ति की अवधि लिखा गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि ब्रह्मा की परम आयु, तथा मोक्ष की अवधि एक समान है। वर्तमान श्वेत वाराह कल्प से पहले २८ कल्प बीत चुके हैं । इसका अर्थ भी यही प्रतीत होता है कि ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी है। अधिकारी विद्वान इस पर प्रकाश डाले तो उचित होगा। प्रहरार्द्ध तथा 'पराद्धे' दोनों पदों का प्रयोग उपरोक्त संकल्पों में हुआ है । सूर्य सिद्धान्त मयदानव कृत है । जो वर्तमान चर्तुयुग के कृत युग के अन्तिम चरण में लिखा है जैसा कि सूर्य सिद्धान्त (१-२) में लिखा है। उस समय ब्रह्मा की आधी आयु बीत चुकी थी। संकल्प सूत्र संख्या (१) के प्रहराद्धे के स्थान पर परार्द्ध संकल्प सूत्र संख्या (२) में आता है । इसका अर्थ यह है कि संकल्प सूत्र संख्या (१) के वाद संकल्प सूत्र संख्या सं. (२) बना है, क्योंकि ब्रह्मा की आधी आयु तथा सृष्टि संवत् का संबंध है । संकल्प सूत्र स. (१) पर आया पद उचित है जो कहता है कि सृष्टि का दूसरा पहर चल रहा है, दोपहर (NOON) होने वाली है। ____ मनु १५ होते हैं किन्तु मयदानव ने १५ को १४ कर दिया और १५ वे की छोटी अवधि ६ चर्तयुग को १५ सन्धियों में बदल कर मनुओं के आगे पीछे तथा बीच में लगा कर मान्यता दिलाने का प्रयास किया। जैसा कि सूर्य सिद्धान्त (१-२) में लिखा है। इस मष्टि संवत की गणना सूर्य सिद्धान्त (१-४५-४६-४७) में दी गई है । जहां इस गणना सात संधियों के= १२०९६००० वर्ष और जोड़ कर सृष्टि संवत् की १९७,२९, ४९०९६ वर्ष दी गई है। संधियों की कल्पना ही दोनों संख्याओं के अन्तर का कारण है। संधियों की कल्पना का आधार सूर्य सिद्धान्त के (१-१७) व (१-१९) सूत्र हैं।" इन दोनों सूत्रों के मेल से एक नया संकल्प सूत्र भी बना है "ओं तत्सदद्य ब्रह्मणो द्वितीय पराः प्रथम दिवसे द्वितीय प्रहराद्धे श्री वैवस्वत मन्वन्तरे अष्ठाविंशतितमे ........।" उल्लेखनीय है कि संधियों की कल्पना सूर्य सिद्धान्त (१-२४) में काम नहीं ली गई है जहां पर सूक्ष्म सृष्टि, अदृश्य सृष्टि संवत् ४७४०० दिव्य वर्ष दी गई है । यह भी ध्यातव्य है कि सूर्य सिद्धान्त (१-१७) में युगों के तुलसी प्रज्ञा Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठे भाग को संध्या कहा गया है, फिर भी प्रयोग में संधियां सदा युगों में ही शामिल रखी हैं, अलग से उपयोग में नहीं ली गई हैं। अथर्ववेद का प्रमाण अथर्ववेद (८-२-२१) में सृष्टि की आयु एक कल्प अर्थात् १००० चर्तयुग कही है। इतनी ही प्रलय की अवधि है । जो ४३२००००,००० वर्ष उपरोक्त मंत्र कहता है। इस मंत्र में कृत, आदि युगों की संख्या १७२८०००, १२९६०००, ८६४००० तथा ४३२००० वर्ष क्रम से है । यह दिव्य वर्षों में ४८००, ३६००, २४००, १२०० वर्ष है। सूर्य सिद्धान्त (१-१७) से संधियां १/६ करने पर ८००=४००+४००, ६००=३००+ ३००, ४००-२००+२००, २००=१००+१०० लें तो युग ४००+४०००+४०० = ४८००, ३००+३००+३०००=३६००, २००+२०००+२०० =२४०० तथा १००+१०००+१००=१२०० संधियों सहित होते हैं । युगों की इस सन्धि रूप ने उनके स्व स्वरूप को जटिल बना दिया है । इस व्याख्या का कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया गया हैं। परन्तु मनुओं में इस सन्धि कल्पना का उपयोग सूर्य सिद्धान्त (१-४५४६-४७) में किया गया है । जिससे ६ मनु के आदि में एक, बीच में पांच तथा अन्त में सातवीं सन्धि जोड़ कर (सात संधियां जोड़कर) सृष्टि संवत् की सख्या १९७२९४ ९०९६ वर्ष हो गई है, इस तरह इन सात संधियों की संख्या १२०९६००० ही इस अन्तर का कारण है । सूर्य सिद्धान्त (१-१९) में संधि सहित (ससंध्ययः) ६ मनु लिखा है फिर भी ६ मनु के अतिरिक्त सात संधियां जोड़ दी गई हैं । ये गड़बड़ करती हैं, यही विचार का विषय है। वैदिक ज्योतिष में ३०=१५+१५ तथा १२=६+६ अर्थात् ३० और १२ संख्याएं गणना का आधार हैं । १ सौर अहोरात्र=१५ मुहर्त दिन+१५ मुहर्त रात के साथ ज्योतिषी मानते हैं, तथा गणना में उपयोग लाते हैं, ३० मुहूर्तों के नाम तैत्तिरीय संहिता में (३-१०-१३) लिखे हैं । एक पितर अहोरात्र=१ शुक्ल पक्ष+१ कृष्ण पक्ष=१ पितर दिन+१ पितर रात-१५ मुहूं त+१५मुहूं त=३० पितर मुहूं त अर्थात् १ चन्द्रमास में ३० मुहूत हुए हैं। इन्हीं को तिथियां कहते हैं, एक से पन्द्रह को, प्रतिपदा से पूर्णिमा शुक्ल पक्ष तथा १-१५ एकम से अमावस्या, कृष्ण पक्ष को अमावस्या को ३० प्रत्येक पंचांग व कैलेन्डर में दिया रहता है। यह चन्द्र मास है, जो गणना का दूसरा आधार है । १ ब्रह्म अहोरात्र-१ कल्प सृष्टि+१ कल्प प्रलय=१ ब्रह्म दिन+१ ब्रह्म रात१५ ब्रह्म मुहूर्त + १५ ब्रह्म मुहूर्त = ३० ब्रह्म मुहूर्त । एक ब्रह्म मुहूर्त का नाम एक मनु कहा जाता है, इन ३० मनुओं के नाम वायु पुराण (?) तथा भागवत पुराण (?) में दिए गए हैं, जो इस प्रकार हैं-स्वयंभुव, स्वारोचिष उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष, वैवस्वत् आदि हैं। खण्ड २२, अंक १ ३५ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ब्रह्म मास = १५ ब्रह्म दिन + १५ ब्रह्म रात्र = १५ ब्रह्म मुहूर्त + १५ ब्रह्म मुहूर्त । अर्थात् १५ कल्प + १५ कल्प = ३० कल्प, इन ३० कल्पों के नाम भागवत पुराण (२-१० ) पर लिखे हैं । वर्तमान में ब्रह्म के मास का श्वेत बारह कल्प प्रथम दिन है । सूर्य सिद्धान्त (१-१९) में केवल १४ मनु ही दिए हैं । १५वां मनु ६ चतुर्युग का का रह जाता है । तभी १ कल्प होता है । १५वां मनु है । चाहे छोटा हो या बड़ा । १५ मनु को १५ वां मनु कह कर नहीं भुला सकते, उसकी संख्या ६ चतुर्युग - ६x४६, २००००=१५×१७२८००० = १५४ कृत युग कर १५ संधियां कर सब गड़बड़ कर दी है । यदि १५ मनु समान मानते तो उनकी संख्या एक कल्प से अधिक हो जाती है । अतः १४ मनु समान माने और १५ वां मनु छोटा लेने से कल्प की संख्या स्थिर रहती. है । वैदिक ज्योतिष में दिन रात सूर्य से मास चांद से पुनः वर्ष सूर्य से मानते हैं । सौर अहोरात्र में ३० मुहूर्त, चन्द्र मास ३० दिन का, वर्ष १२ मास का तो वर्ष ३६० अहोरात्र का होता है, चन्द्र मास कभी भी २९१ अहोरात्र से अधिक नहीं होता है, परंतु सिद्धान्त में ३० अहोरात्र की संख्या से गणना करते हैं, प्रत्येक माह कोई ना कोई तिथि क्षय होती है और प्रत्येक मास लगभग एक तिथि की कमी हो जाती है, परन्तु गणना में ३० अहोरात्र से ही गिनते हैं । इस प्रकार प्रत्येक मास धन अशुद्धि (+६४४०४) हो जाती है इसकी पूर्ति प्रति २३ वर्ष में एक अधिमास लगा कर क्षति पूर्त कर लेते हैं । फिर भी कुछ धन अशुद्धि शेष रह जाती है, कोई गणितज्ञ व ज्योतिषी इस धन अशुद्धि की कल्प की गणना करने असमर्थ है, न आयु है न सामर्थ्य । एक कल्प की अवधि स्थिर रखने हेतु वैदिक ज्योतिष ने १४ छोटा कर यह धन अशुद्धि हटाकर १५ मनु की संख्या ६ संख्या स्थिर रख ली है । ये वैदिक ज्योतिष गणना की त्योहार आदि ऋतुओं के अनुसार आते हैं । यही १५ मनुओं का समाधान है । समाधान का औचित्य रविवार के समाप्त क्षण सोमवार का प्रारंभ, यहां क्या कोई संधि काल है । संध्या व उषा क्या रात के अंग नहीं हैं ? क्या इनकी गणना २४ घंटों में शामिल नहीं हैं ? क्या ये ३० मुहुर्ती में शामिल नहीं हैं ? क्या इनकी गणना २४ घंटों या ३० मुहूर्ती से बाहर हैं ! चैत्र शुक्ल एकम व चैत्र द्वितीया में कोई संधि काल है ? जहां तीन बजे कि उसीक्षण क्या चार प्रारंभ नहीं होता है ? संवत् २०५३ जिस क्षण समाप्त उसी क्षण २०५४ प्रारंभ | कहीं पर भी कोई संधि नहीं आती है । फिर मनुओं में ही संधियों की कल्पना क्या कोरी कल्पना नहीं है ? किसी समय, अवयव में संधियां नहीं आती हैं, फिर मनुओं में कैसे संभव है ? संधियों की कल्पना अवैदिक तथा अवैज्ञानिक है, अतः सृष्टि संवत् तो एक ही १९६०८५३०९६ वर्ष ही है । १५ वें मनु की छोटी संख्या को समझने हेतु ३६ तुलसी प्रशा समान मनु तथा १५वां मनु चतुर्युग रख कर कल्प की विशेषता है तभी हमारे तीज Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमको उलटी गणना करने पर कुछ रहस्य मिल सकता है। धन, अशुद्धि (+Error) का जो मैंने सुझाव दिया है वह प्रतिवर्ष, अधिकाधिक होती जाती है। जिसकी गणना करने में मानव सक्षम नहीं है। वह परमपिता परमात्मा ने वैदिक ज्योतिष में १५ वें अन्तिम मनु में पूरी कर दी है। यह अशुद्धि ९९४ चतुर्युगी की संख्या है। तो १५ वें अन्तिम मनु की संख्या ६ चतुर्युग रह जाती है इस प्रकार कल्प की संख्या स्थिर बनी रहती है तो सिद्धान्त प्रयोग दोनों से सामंजस्य बैठ जाता है तथा, अशुद्धि दूर हो जाती है । इस पकार कल्प की संख्या भी स्थिर रहती है तथा गणना की धन अशुद्धि भी दूर हो जाती है । ७ संधियों की गणना निराधार है क्योंकि, सूत्र स्वयं ६ मनु सन्धि सहित (ससंध्यः) कहता है। फिर संधिकाल की अलग से गणना क्यों करें ? संदर्भ: १. परमायुः शतं तस्य तयाहोरात्रसंख्यया । ___ आयुषोऽर्द्धमितं तस्य शेषकल्पोऽयमादिमः ॥१.२१॥ २. देखें-परमेश्वर सोलंकी-शकसाका, सं० २०४८ पृ० २-३ ३. अल्पावशिष्टे तु कृते मयनामा मयासुरः । रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम् ॥१.२॥ ४. षण्मनूनां तु संपीड्य कालं तत्सन्धिभिः सह । कल्पादि सन्धिना साधं वैवस्वतमनोस्तथा ।। युगानां त्रिधनं यातं तथा कृतयुगं त्विदम् । प्रोज्झ्य सृष्टेस्ततः कालं पूर्वोक्तं दिव्यसंख्यया । सूर्याब्द संख्यया ज्ञेया कृतस्यान्ते गता अमी। खचतुष्कयमाग्निशर रन्ध्र निशाकराः ॥१.४५,४६,४७।। ५. युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रि द्वि एकसंगुणः । क्रमात् कृतयुगादीनां षष्ठांश: सन्ध्ययोः स्वकः ॥१.१७।। ससन्धयस्ते मनवः कल्पे शेयाश्चतुर्दश । कृत प्रमाणः कल्पादो सन्धिः पंचदशः स्मृतः ॥१.१९।। ६. ग्रहक्षं देव दैत्यादि सृजतोऽस्य चराचरम् । कृताद्रिवेदा दिव्याब्दाः शतघ्ना वेधसोगताः ॥१.२४॥ ७. शतं ते अयुतं हायनान्द्व युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः । इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहणीयमानाः ।।८.२.२१॥ खण्ड २२, अंक १ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणी [ सृष्टि अनादि और अनन्त है; फिर भी इस संबंध में अनेकों कयास किये गए हैं। एक कयास मनुस्मृति (१.६८-७३ ) में है जिसके अनुसार एक हजार चतुर्युगी को सृष्टिकाल और इतने ही समय को प्रलय काल कहा गया है। इसको ब्रह्मा का दिन-रात भी कहते हैं । सृष्टिकाल के अलावा भोग काल १४ मनुओं का माना जाता है और एक मनु ७१ चतुर्युगी का । इस प्रकार भोगकाल १४x७१ = ९९४ चतुर्युगी का है जो उपर्युक्त सृष्टिकाल से छह चतुर्युगी कम है । यह भोगकाल सृष्टि में जीव उत्पत्ति और विनाश को माना लगता है, इसलिए शेष छह चतुर्युगी - काल को आधा-आधा सृष्टि के आरंभ और प्रलय होने से पूर्व से समायोजित करते हैं । अर्थात् सृष्टि प्रारंभ के तीन चतुर्युगी काल बीतने पर जीवउत्पत्ति होती है और प्रलय होने के तीन चतुर्युगीशेष रहने पर जीव- विनाश हो जाता है । इस सिद्धांत को मान लेने पर तीन चतुर्युगी - काल – ४,३२००००×३= १२९६०००० वर्ष सृष्टि उत्पत्ति को बीतने पर जीव उत्पत्ति होनी चाहिए किन्तु संकल्प का सृष्टि संवत् १,९७,२९,४९०९६ है जो १२९६००००+१९६०८५३०९६ से ८६४००० वर्ष बढ़ जाता है । यह वढ़ा हुआ समय गणना में दोष माना जा सकता है; किन्तु इसका समाधान सांख्य सप्तति ( ईश्व कृष्ण ) की २२वीं आर्या के ऊपर लिखी युक्ति दीपिका टीका- केचिदाहुः प्रधानादनिर्देश्य स्वरूपं तत्त्वान्तरमुत्पद्यते तत्तो महत्-अर्थात् प्रधान से पूर्व ऐसा तत्त्वान्तर उत्पन्न होता है जिसका स्वरूप निर्देश नहीं हो सकता, उसके बाद महत् उत्पन्न होता है - से सुझाया जा सकता है । इससे यह माना जा सकता है कि सृष्टि उत्पत्ति संवत् आद्यक्षोभ से शुरू है जिसमें ८६४००० वर्ष अनिर्देश्य स्वरूप के हैं और शेष जीवोत्पत्ति से पूर्व का काल । अनिर्देश्य स्वरूप को निरुक्त (१४.४ ) में प्रतिमा और मनुस्मृति (१.८) में आपस् कहा गया है । अन्यत्र जैसे ऋग्वेद (१०.१२१.७) में भी एतत्संबंधी उल्लेख हैं । जैन दृष्टि से सृष्टि का आदि अन्त नहीं है । -- परमेश्वर सोलंकी ] ३५ - प्रो० प्रताप सिंह १३६, सहेली नगर उदयपुर- ३१३००१ तुमसी प्रशा Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक निर्युक्ति [ समणी कुसुमप्रज्ञा आगमों की सबसे प्राचीन पद्यबद्ध व्याख्या निर्युक्ति है। सूत्र के साथ अर्थ का नियोजन एवं निर्णय करना नियुक्ति का प्रयोजन है । निर्युक्ति-साहित्य की यह विशेषता है कि इसमें मूल सूत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या न करके केवल पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या एवं विश्लेषण ही प्रस्तुत किया गया है । निर्युक्तियों के रचनाकार के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। मुनि पुण्यविजयजी ने भद्रबाहु द्वितीय को नियुक्तिकर्त्ता के रूप में सिद्ध किया हैं लेकिन अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया जा सकता हैं कि मूल नियुक्तिकार भद्रबाहु प्रथम थे और भद्रबाहु द्वितीय ने निर्युक्ति-साहित्य का विस्तार कर उसे व्यवस्थित रूप प्रदान किया । आवश्यक नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने १० नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की । उसमें दशर्वकालिक नियुक्ति की रचना का क्रम दूसरा है । दशवेकालिक नियुक्ति की रचना आचारांग, सूत्रकृतांग तथा उत्तराध्ययन आदि की नियुक्तियों से पूर्व हो गई थी इसके अनेक प्रमाण उत्तरवर्ती नियुक्तियों में मिलते हैं । कालिक नियुक्ति की उपलब्धि के तीन स्रोत हमें प्राप्त हैं- १ हस्तलिखित प्रतियां २. चूर्णि साहित्य ३. हारिभद्रीय टीका । हस्तलिखित प्रतियों में नियुक्ति एवं भाष्य की गाथाएं साथ में लिखी हुई हैं अतः उसके आधार पर गाथाओं का सही निर्णय संभव नहीं हो सका । चूर्णि एवं टीका में भी गाथा संख्या में बहुत अन्तर है । अगस्त्यसिंह चूर्णि में प्रथम अध्ययन की नियुक्ति में ५७ गाथाएं हैं जबकि हारिभद्रीय टीका में १५१ गाथाएं हैं। हमने पाठ संपादन में गाथाओं के बारे में पादटिप्पण के माध्यम से पर्याप्त चिन्तन किया है। कहीं-कहीं एक ही गाथा को चूर्णिकार निर्युक्ति की तथा टीकाकार उसके बारे में 'आह भाष्यकार:' का उल्लेख करते हैं । कुछ गाथाएं टीकाकार ने अन्य कर्तृकी या उद्धृत गाथा के रूप में स्वीकृत की हैं किन्तु चूर्णि में वे निर्युक्ति-गाथा के रूप में व्याख्यायित हैं । ऐसी विवादास्पद गाथाओं के बारे में भी * हमने पादटिप्पण में समालोचना प्रस्तुत की है। तथा यह खोजने का प्रयत्न किया है कि मूल निर्युक्ति में कितनी गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई हैं । प्रस्तुत संकलन में अन्य ग्रन्थों की कुछ गाथाएं भी प्रसंगानुसार साथ में जोड़ दी गयी हैं । जैसे २५।१, २ ये दोनों गाथाएं विशेषावश्यक भाष्य ( ९५८, ९५९ ) की हैं किंतु हरिभद्र के समय तक ये इस नियुक्ति का अंग बन गईं क्योंकि हरिभद्र गाथा के प्रारम्भ में 'आह नियुक्तिकारः का उल्लेख करते हैं । गा० १८३ निशीथ भाष्य की है । प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह गाथा बाद में प्रक्षिप्त हुई है । - संकलन कर्तृ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिक निर्युक्ति १. सिद्धिगतिमुवगयाणं, कम्मविसुद्घाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसका लियनिज्जुत्ति कित्तइस्सामि' ।। २. आई मज्झवसाणे, काउं मंगलपरिग्गहं विहिणा । नामाइ मंगलं पि य, चउव्विहं पण्णवेऊणं ॥ ३. सुयनाणे अणुयोगेणाऽहिगयं' सो चउव्विहो होइ । चरणकरणाणुयोगे, धम्मे 'गणिए य" दविए य ॥ ४. अपुहत्तपुहत्ताइं, निद्दिसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरणकरणाणुयोगेण, तस्स दारा इमे होंति । ५. निक्खेवेगट्ट - निरुत्त-विही- पवित्तीय केण वा कस्स । तद्दार भेय लक्खणं, तदरिहपरिसा य सुत्तत्थो || ६. एयाइं परूवेडं, कप्पे वण्णियगुणेण गुरुणा उ । अणुयोगो दसवेयालियस्स विहिणा कहेयव्वो । ७. दसकालियं ति नामं, संखाए कालओ य निद्देसो । दसकालिय- सुयबंध, अज्झयणुद्देस निक्खिविरं ।। १. प्रारंभ की सात गाथाएं दोनों चूर्णियों (अगस्त्य सिंहस्थ विरकृत तथा जिनदास महत्तर कृत) में निर्दिष्ट नहीं हैं । ये गाथाएं भद्रबाहु के बाद जोड़ी गई हैं, किन्तु टीकाकार हरिभद्र के समय तक ये निर्युक्तिगाथा के रूप में प्रसिद्ध हो गई थीं इसलिए प्रायः गाथाओं के आगे टीकाकार ने 'आह नियुक्तिकार : ' लिखा है । इन गाथाओं को बाद जोड़ने का एक प्रमाण यह है कि गा. ६ 'कप्पे' शब्द बृहत्कल्प भाष्य की ओर संकेत करता है । गा. ५ निक्खेवेगट्ठ • बृहत्कल्पभाष्य (गा. १४९ ) की है। इसकी व्याख्या बृहत्कल्पभाष्य की पीठिका में विस्तार से की गयी है । निर्युक्तिकार बृहत्कल्पभाष्य का अपनी गाथा में संकेत नहीं करते क्योंकि वे भाष्य से पूर्ववर्ती हैं। अतः ये गाथाएं बाद में जोड़ी गयी हैं, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है । २. ०गेण अहि० ( अ ) । ३. काले य (हा, रा), टीका में 'काले य' पाठ की व्याख्या है - 'काले चेति कालानुयोगश्च गणितानुयोगश्चेत्यर्थः ' (हाटी प. ४) । ४. अपुहुत्तपुहु० (हा, जिच्) । खंड २२, अंक १ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. नाम ठवणा दविए, माउगपद-संगहेक्कए चेव । पज्जव भावे य तहा, सत्तेते एक्कका होंति' ॥दार।। ९. नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य । ___ एसो खलु निक्खेवो, दसगस्स उ छव्विहो होति ।। ९।१. बाला 'मंदा किड्डा", बला य पण्णा य हायणि पवंचा । पब्भारमुम्मुही सायणी य, दसमी उ कालदसा ।। १०. दव्वे अद्ध अहाउय, उवक्कमे देस काल काले य । तह य पमाणे वण्ण, भावे पगयं तु भावेणं ।। ११. सामाइय अणुकमओ, वण्णेउं विगयपोरिसीए ऊ । निज्जूढं किल' सेज्जंभवेण दसकालियं तेणं ।। १२. 'जेण व जंव पडुच्चा", जत्तो जावंति जह य ते ठविया। सो तं च तओ ताणि य, तहा य कमसा कहेयव्वं ।।दा।। १३. सेज्जभवं गणधर, जिणपडिमादंसणेण पडिबुद्धं । मणगपियरं दसकालियस्स निज्जूहगं वंदे ।। १. भणिया (जिचू)। २. यह गाथा अचू और जिचू में व्याख्यात है किन्तु अचू की भूमिका में इस गाथा को नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं माना है । (अचूभूमिका पृ. ८) ३. किड्डा मंदा (रा, हा)। ४. टीका में यह गाथा नियुक्ति के क्रम में है किन्तु जिनदासचूणि में यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप में उल्लिखित है। यह गाथा मूलत: 'तंदुलवेयालिय' (गा ३१) प्रकीर्णक की है किन्तु बाद में यह नियुक्तिगाथा के रूप में लिपिकारों या टीकाकार द्वारा जोड़ दी गई है, ऐसा प्रतीत होता है। हमने इसे निगा के क्रम में नहीं रखा है । दश्रुनि ३, पंकभा २५२, निभा ३५४५ । ५. आवनि ६६० । ६. पोरसीए (अ), सीओ (रा)। ७. किर (हा)। ८. यह गाथा अचू में संकेतित नहीं है किन्तु टीकाकार इस गाथा के लिए 'चाह निर्यक्तिकारः' लिखते हैं । किन्तु इसके पूर्वापर संबंध को देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह गाथा अन्य आचार्यों द्वारा रची गई है क्योंकि इस गाथा की विषयवस्तु का ही पुनरावर्तन अगली गाथाओं में हुआ है। इस गाथा के बाद जिनदासकृत चूर्णि में 'इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो अज्झप्पस्साणयणं ..", अहिगम्मन्ति व.", जह दीवा'.", अट्ठविहं"इनका उल्लेख है लेकिन हस्तप्रतियों में ये गाथाएं आगे (गा २६,२७,२८,३०) इस क्रम में मिलती हैं। ९. जेणेव जं च पडुच्च (जिचू)। तुलसो प्रशा Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. मणगं पडुच्च सेज्जंभवेण निज्जूहिया दसऽज्झयणा । वेयालियाइ ठविया, तम्हा दसकालियं नामं ॥ दारं ॥ १५. आयप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होइ धम्मपण्णत्ती । कम्मपवायपुब्वा, पिंडस्स तु एसणा तिविधा || १६. सच्चप्पवायपुव्वा, निज्जूढा होति 'वक्कसुद्धी उ । अवसेसा निज्जूढा, नवमस्स उ ततियवत्थूतो ।। १७. बितिओविय आदेसो, गणिपिडगातो दुवालसंगातो । एयं किल निज्जूढं, मणगस्स अणुग्गहट्ठाए || १८. दुमपुप्फियादओ खलु, दस अज्झयणा सभिक्खुयं जाव । अहिगारे वि य एत्तो, वोच्छं पत्तेयमेक्केक्के ' ॥ दारं ।। १९. पढमे धम्मपसंसा, सो य 'इह जिणसासणे न अन्नत्थ" । fafar factऍ सक्का, काउं जे' एस धम्मो त्ति ।। १. दसवेयालियं ( स ) । २. १३, १४ ये दोनों गाथाएं दोनों चूर्णियों में संकेतित नहीं हैं किन्तु भावार्थ कथानक के रूप में है। पंडित दलसुखभाई के अनुसार ये हरिभद्रकृत हैं क्योंकि इनमें शय्यंभव को नमस्कार किया गया है । किन्तु इन गाथाओं के बारे में विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि ये गाथाएं स्वयं हरिभद्र द्वारा रचित होतीं तो १३वीं गाथा के प्रारंभ में वे स्वयं 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं निर्मुक्तिकार एव यथावसरं वक्ष्यति' ( हाटी प १० ) तथा १४वीं गाथा के प्रारंभ में 'चाह नियुक्तिकारः' का उल्लेख नहीं करते। इसके अतिरिक्त गाथा १२ में जेण, जं, जत्तो और जावंति इन चार द्वारों के कथन की प्रतिज्ञा की है । इनमें जत्तो का उल्लेख करने वाली तीन गाथाएं १५,१६,१७ दोनों चूर्णियों में प्राप्त हैं, फिर 'जेण' का निरूपण करने वाली गाथाओं को निर्युक्तिगाथा क्यों नहीं मानी जाए ? संभव है कथानक देने से गाथाओं का संकेत चूर्णिकारों ने नहीं किया हो अथवा लिपिकर्त्ताओं द्वारा गाथाओं का संकेत लिखना छूट गया हो या फिर जिन प्रतियों के आधार पर मुद्रित चूर्णि का संपादन किया गया उसमें संकेत नहीं दिये गये हों। सभी हस्तप्रतियों में ये गाथाएं मिलती हैं । ३. ० सुद्धि ति ( ब ) । ४. किर (हा, अचू) । ५. ० याइया (हा ), ० याइओ ( अ ) । ६. इस गाथा में गा. १ के 'जावंति' में व्याख्यायित न होने पर भी इसे टिप्पण गा. १३,१४) । ހ द्वार का स्पष्टीकरण है अतः अचू और जिचू निर्युक्तिगाथा के क्रम में रखा है। (देखें ७. इहेव जिणसासणम्मि त्ति (हा, अचू), हरिभद्र ने टीका में 'जिनशासने धर्मो नान्यत्र ' ऐसा उल्लेख किया है इसी आधार पर टीका और चूर्णि का मुद्रित पाठ स्वीकृत न करके आदर्शों का पाठ स्वीकृत किया है । ८. जे इति पूरणार्थी निपात: (हाटी प. १३) । खंड २२, अंक १ ५. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. ततिए आयारकहा उ, 'खुड्डिया आय-संजमोवाओ'। तह जीवसंजमो वि य, होति चउत्थम्मि अज्झयणे ।। २१. भिक्खविसोधी तव संजमस्स गुणकारिया तु पंचमए। छठे आयारकहा, महती जोग्गा' महयणस्स ।। २२. वयणविभत्ती पुण, सत्तमम्मि पणिहाणमट्रमे भणियं । ___नवमे विणओ दसमे, समाणियं एस भिक्खु त्ति ।। २३. दो अज्झयणा चलिय, विसीययंते थिरीकरण मेगं । बितिए विवित्तचरिया', असीयणगुणातिरेगफला ।। २४. 'दसकालियस्स एसो' पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि । २५. पढमज्झयणं दुमपुप्फियं ति चत्तारि तस्स दाराई। वण्णित्तुवक्कमाई', धम्मपसंसाइ अहिगारो॥ २५॥१. ओहो जं सामन्नं, सुताभिहाणं चउन्विहं तं च । अज्झयणं अज्झीणं, आयज्झवणा य पत्तेयं ।। १. खुड्डियायार संजमो० (ब) २. जोग्गो (अ, ब)। ३. ० हाण अट्ठमे (अ)। ४, बीए (ब)। ५. विवत्त० (अ)। ६. दसवेयालियस्स उ (जिचू), दसकालियस्सेह (अचू)। ७. वनइ० (जिचू)। प्रस्तुत गाथा दोनों चूणियों में उपलब्ध है। किन्तु मुनि पुण्यविजयजी ने अगस्त्यसिंह चूणि के संपादन में इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में न रखकर उद्धृत गाथा के रूप में प्रस्तुत किया है। पंडित दलसुख भाई मालवणिया के अनुसार यह गाथा उपसंहारात्मक और संपूर्ति रूप है । टीका तथा आदर्शों में यह गाथा मिलती है। हमने इस गाथा को नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है क्योंकि अन्य नियुक्तियों में भी ऐसी उपसंहारात्मक गाथाएं मिलती हैं--- उत्तरज्झयणाणेसो, पिंडत्थो वण्णितो समासेणं । एत्तो एक्केक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥ (उनि २७) ८. वनिउ० (अ), वण्णेउ० (हा)। ९. दोनों चूणियों में प्रस्तुत गाथा उल्लिखित नहीं है, लेकिन इसका भावार्थ दोनों चूणियों में मिलता है। कुछ पाठांतर के साथ उत्तराध्ययन नियुक्ति में भी ऐसी गाथा मिलती है। (देखें उनि २८) १०. उनि २८।१। सुलसी प्रज्ञा Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५॥२. नामादि चउन्भेयं, वण्णेऊणं सुयाणुसारेणं । दुमपुप्फिय आओज्जा, चउसु पि कमेण भावेसु ॥ २६. अज्झप्पस्साणयणं, कम्माणं अवचओ उवचियाणं । अणुवचओ य नवाणं, तम्हा अज्झयणमिच्छति ।। २७. अधिगम्मति व अत्था, इमेण अधिगं च नयणमिच्छति । अधिगं च साहु गच्छति, तम्हा अज्झयणमिच्छति ।। २८. जह दीवा दीवसयं, पदिप्पए" सो य दिप्पती' दीवो। दीवसमा आयरिया, दिप्पंति परं च दीवेंति ।। २९. नाणस्स दंसणस्स य', चरणस्स य जेण आगमो होई। सो 'होइ भावआओ'", आओ लाभो त्ति निद्दिट्ठो ।। ३०. अट्ठविधं कम्मरयं, पोराणं जं खवेइ जोगेहिं । एयं भावज्झयणं, णायव्वं" आणुपुवीए॥ १. २५॥१,२ इन दोनों गाथाओं का चणियों में कोई उल्लेख नहीं है। केवल 'तत्थ उवक्कमो जहा आवस्सए' मात्र इतना ही उल्लेख है। ये गाथाएं विशेषावश्यक भाष्य (गा. ) की हैं। हस्तलिखित आदर्शों में ये गाथाएं मिलती हैं । किन्तु ये गाथाएं व्याख्या के प्रसंग में बाद में जोड़ी गई प्रतीत होती हैं अतः इन्हें निगा के क्रम में नहीं रखा है। टीकाकार हरिभद्र ने इनके लिए 'चाह नियुक्तिकार:' ऐसा उल्लेख किया है । २. उनि ६, अनुद्वा ६३१।१ । ३. य (जिच) ४. उनि ७। ५. पइप्पई (रा)। ६. दिप्पई (हा), दिप्पए (अ, रा)। ७. अनुद्वा ६४३।१, उनि ८, चंदा ३० । ८. वि (हा)। ९. होई (हा)। १०. होई भावाओ (अ)। ११. नेयव्वं (अ, हा)। १२. २६-३० तक की गाथाओं का अचू में कोई उल्लेख नहीं है। जिनदासचूणि में 'अज्झप्पस्साणयणं गाहाओ पंच भाणियव्वाओ' इतना उल्लेख है वहां १२वीं गोथा के बाद भी गा. २६, २७, २८ और ३० का संकेत दिया है तथा 'इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो' इतना उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि जिनदास के समक्ष ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के रूप में थीं। टीकाकार ने इन पांचों गाथाओं की व्याख्या की है तथा आदर्शों में भी ये गाथाएं मिलती हैं। इनमें कुछ गाथाएं अक्षरशः उत्तराध्ययन नियुक्ति में मिलती हैं। बण २२, अंक १ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. नामदुमो दवणदुमो, ‘दव्वदुमो चेव होति भावदुमो' । एमेव य पुप्फस्स वि, चउव्विहो होति निक्खेवो ।। ३२. दुमा य पादवा रुक्खा, 'विडमी य अगा तरू' । कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगा भंजगा वि य ।। ३३. पुप्फाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि तहेव होंति पसवाणि । सुमणाणि य सुहुमाणि, य 'पुप्फाणं होंति एगट्ठा" ।। ३४. 'दुमपुफिया य५ आहारएसणा-गोयरे तया उंछे । मेस जलोया' सप्पे, वणऽक्ख 'इसु-गोल-पुत्तुदए । ३५. कत्थइ पुच्छति सीसो, कहिंच पुट्ठा कहंति आयरिया । सीसाणं तु हितट्ठा, विपुलतरागं तु पुच्छाए ।। ३६. नामं ठवणाधम्मो, दव्वधम्मो य भावधम्मो य । एतेसिं नाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए' ।। ३७. दव्वं च 'अत्थिकायो, पयारधम्मो य भावधम्मो य । दव्वस्स पज्जवा जे, ते धम्मा तस्स दव्वस्स ।। १. खेत्त काल भाव दुमे (जिच)। २. अगमा विडिमा तरू (हा), अगमा विडवी तरू (अ), अगमा विडिवा तरू (रा)। ३. रुंजगा (हा), जम्भगा (अ)। ४. एगट्टा पुप्फाणं होंति णायव्वा (अ, ब), प्रस्तुत गाथा दोनों चूणियों में गाथा रूप में उल्लिखित नहीं है। पुष्प के एकार्थक दोनों चूणियों में मिलते हैं अतः पंडित मालवणियाजी का कहना है कि चूणि के एकार्थक शब्दों के आधार पर हरिभद्र ने उसे पद्यबद्ध कर दिया हो, किन्तु ऐसा संभव नहीं लगता क्योंकि स्वयं हरिभद्र अपनी टीका में 'पुष्पैकाथिकप्रतिपादनायाह' ऐसा नहीं कहते तथा चूणि में तो मात्र तीन-चार एकार्थक शब्द हैं, गाथा में कुछ अन्य एकार्थक भी हैं । प्रथम अध्ययन का नाम 'दुमपुफिय' है । अतः द्रुम शब्द के एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक प्रासंगिक हैं। उसके बाद ३७वीं गाथा में प्रथम अध्ययन के एकार्थक हैं अतः प्रस्तुत गाथा नियुक्तिकार द्वारा ही रचित प्रतीत होती है। सभी हस्त प्रतियों में यह गाथा उपलब्ध है। ५. ० फियं च (अच), • प्फियाइ (ब)। ६. जलूगा (जिचू, हा) । ७. उसु-पुत्त-गोलुदए (अचू)। ८. कहिंति (अ, रा, अचू)। ९. तु० सूनि १००। १०. ० कायप्पयार० (हा) । तुलसी प्रज्ञा Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०. ३८. धम्मत्थिकायधम्मो, पयारधम्मो य विसयधम्मो य । लोइय- कुप्पावयणिय', लोगुत्तर लोगऽणेगविहो || ३९. गम्म-पसु-देस-रज्जे, पुरवर-गाम-गण-गोट्ठि - राईणं' । सावज्जो उकुतित्थियधम्मो न जिणेहि तु पसत्थो || • दुविहो लोगुत्तरिओ, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मो सज्झाओ, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ ४१. दव्वे भावे वि' य मंगलाणि दव्वम्मि पुण्णकलसादी । धम्मो उ भावमंगलमेत्तो 'सिद्धि त्ति" काऊणं ।। ४२. हिंसाए पडिवक्खो, होइ अहिंसा चउव्विहा 'सा उ" । दवे भावे य तहा, अहिंसऽजीवाइवाओ" ति" ॥ ४३. पुढवि-ग-अगणि मारय, वणस्सइ" बि ति चउ पणिदि अज्जीवे । पेहोपेह - पमज्जण, परिठवण मणो-वई काए ॥ ४४. अणसणमूणोयरिया, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ । arefrain संलीया, य बज्झो तवो होइ" ।। १. ० वयणे (हा ) । २. गुट्टि ( अ, ब ) । ३. राई ति ( जिचू) । ४. जिणेसु (अचू) । ५. मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अचू में प्रस्तुत गाथा को नियुक्तिगाथा के रूप में स्वीकृत नहीं किया है। इसका भावार्थ गद्य रूप में दोनों चूर्णियों में उपलब्ध है । टीका तथा आदर्शों में भी यह नियुक्तिगाथा के क्रम में है नहीं माना जा सकता । विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से प्रासंगिक लगती है । ६. x (जिचू ) । ७. ० लाई (हा) । ८. सिद्धति ( ब ) | ९. हिंसा ( अ, ब ) । १०. ० अज्जीवा० ( ब ) | ११. ४२ से ४५ तक की गाथाएं टीका तथा सभी हस्तप्रतियों में उपलब्ध हैं। दोनों व्याख्या मिलती है । हैं किन्तु अगस्त्य सिंह संयम और तप चूर्णियों में गाथा का संकेत न होने पर भी इनकी विस्तृत कुछेक विद्वानों के अनुसार ये गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त हुई चूर्णि (पृ. ११) की २०वीं गाथा की व्याख्या में कहा है कि निर्युक्ति विशेष से कहे जाएंगे अतः यहां इनका उल्लेख नहीं है । इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये गाथाएं चूर्णिकार के सामने निर्युक्तिगाथा के रूप में थीं । १२. वणसई (हा), वणसइ ( अ, ब ) । १३. होही (हाटी), तु० उसू ३०१८ । खण्ड २२, अंक १ अतः इसे प्रक्षिप्त भी यह गाथा यहां Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५. पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गोवि य, अभितरओ तवो होइ ।। ४६. जिणवयणं 'सिद्धं चेव', भण्णए' कत्थई उदाहरणं । आसज्ज उ सोयारं, हेऊ वि कहिंचि भण्णेज्जा ।। ४७. कत्थई पंचावयवं, दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं । न य पुण सव्वं भण्णति, हंदी सवियारमक्खातं ।। ४७।१. तत्थाहरणं दुविहं, चउव्विहं होइ एक्कमेक्कं तु । हेऊ चउव्विहो खलु, तेण उ साहिज्जए अत्थो । ४८. 'णातं आहरणं ति य, दिद्रुतोवम्म निदरिसणं तह य । एगळं तं दुविहं, चउब्विहं चेव नायव्वं ।। ४९. चरितं च कप्पितं या, दुविहं तत्तो चउविहेक्केक्कं । आहरणे तद्देसे, तद्दोसे चेवुवन्नासे ॥दारं।। ५०. चउधा खलु आहरणं, होति अवाओ उवाय ठवणा य । तह य पडुप्पन्नविणासमेव पढमं चउविगप्पं ॥ १. उसू ३०३० । २. सिद्धमेव (जिचू)। ३. भण्णती (अचू), भण्णइ (ब), भण्णई (अ)। ४. कत्थ वि (जिचू), कत्थति (अचू)। ५. इस गाथा का दोनों चूणियों में कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह गाथा प्रक्षिप्त प्रतीत होती है क्योंकि आगे की गाथा में पुनः इसी विषय की पुनरुक्ति हुई है यहां यह गाथा विषयवस्तु की दृष्टि से भी अप्रासंगिक लगती है । ६. नायमुदाहरणं (हा)। ७. च (जिचू), वा (हा)। ६. भवे चउहा (अ,ब), ५० से ८५ तक की गाथाओं का दोनों चूणियों में कोई संकेर नहीं है किन्तु व्याख्या और कथानक मिलते हैं। मुनि पुण्यविजयजी ने ५६,७३ और ८२ इन तीन गाथाओं को उद्धृतगाथा के रूप में माना है। ऐसा अधिक संभव लगत है कि चूणि की व्याख्या के अनुसार किसी अन्य आचार्य ने इन गाथाओं की रचना की हो किन्तु गाथा ५०वीं की व्याख्या में टीकाकार हरिभद्र स्पष्ट लिखते हैं कि'स्वरूपमेषां प्रपञ्चेन भेदतो नियुक्तिकार एव वक्ष्यति' (हाटी प. ३५) तथा गा. ५२ की व्याख्या में 'प्रकृतयोजना पुननियुक्तिकार एव करिष्यति, किमकाण्डः एव नः प्रयासेन' (हाटी प ३६)। इसके अतिरिक्त गा. ७९ की व्याख्या में भी भावार्थस्तु प्रतिभेदं स्वयमेव वक्ष्यति नियुक्तिकारः (हाटी प. ५५) कहा है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि टीकाकार के सामने ये गाथाएं नियुक्तिगाथाओं के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी थीं। अतः हमने इनको नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है। तुलसी प्रज्ञा Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१. दव्वावाए दोनि उ, वाणियगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएक्क मेक्कं, दहम्मि मच्छेण निव्वेओ ।। ५२. खेत्तम्मि अवक्कमणं, दसारवग्गस्स होइ अवरेणं । दीवायणो' य काले, भावे मंडुक्कियाखवओ' ।। ५३. सिक्खगअसिक्खगाणं, संवेगथिरट्टयाइ दोहं पि । दवाइयाइ एवं दंसिज्जते 'अवाया उ" | ५४. दवियं कारणगहियं, विगिचियव्वमसिवाइ खेत्तं च । बारसहिं एस्सकालो, कोहाइविवेग भावम्मि || ५५. दव्वादिएहि निच्चो, एगतेणेव 'जेसि अप्पा" उ । होति अभावो तेसिं, सुह- दुहसंसारमोक्खाणं ॥ ५६. सुहदुक्खसंपओगो', न 'विज्जई निच्चवाय पक्खम्मि" । एगंतुच्छेयमय, सुहदुक्खविकप्पणमजुत्तं ॥ ५७. एमेव चउविगप्पो, होइ उवाओ वि तत्थ दव्वम्मि । 'धातुव्वाओ पढमो", नंगलकुलिएहि खेत्तं तु ॥ ५८. कालो य नालियाइहिं", होइ भावम्मि पंडिओ अभओ । 'चोरनिमित्तं नट्टिय'", वड्डुकुमारि परिकहेति ॥ ५९. एवं तु इहं" आया, पच्चक्ख" अणुवलब्भमाणो वि । सुहदुक्खमादिएहि, गिज्झइ हेऊहिं अस्थि ति ।। १. देवा० ( अ, ब ) । २.० खमओ (ब) । ३. अवायाओ (अ) । ४. एस० ( अ ) । ५. जेसिमप्पा ( अ ) । ६. ० दुह० (हा ) । ७. संभवति णिच्चपक्खवातम्मि (अचू ) । ८. . मुद्रित अचू में यह गाथा उद्धृत गाथा के रूप में हैं । ९. पाठांतरं वा - धातुव्वाओ भणिओ (हाटी) । १०. ०याईहि (ब, रा) । ११. चोरस्स कए नट्टिय (रा), चोरस्स कए नट्टि (हा), टीकाकार ने इस पद की व्याख्या न कर 'चोरनिमित्तं नट्टिय' पद की व्याख्या की है । हमने इस पाठ को मूल मानकर टीका के मुद्रित पाठ को पाठांतर में दिया है । १२. अहं ( अ ) । १३. प्रत्यक्षमिति तृतीयार्थे द्वितीया (हा ) । खण्ड २२ अंक १ ११ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०. जह वऽस्साओ हत्थि, गामा नगरं तु पाउसा सरयं । ओदइयाउ उवसम, संकंती देवदत्तस्स ।। ६१. 'एवं सउ' जीवस्स वि, दवादी संकम पडुच्चा उ । अत्थित्तं साहिज्जइ, पच्चक्खेणं परोक्खं पि । ६२. एवं सउ जीवस्स वि, दव्वादी संकमं पडुच्चा उ। परिणामे साहिज्जति, पच्चक्खेणं परोक्खे वि' ।। ६३. ठवणाकम्म एक्कं, दिळंतो तत्थ पोंडरीयं तु । अहवा वि सन्नढक्कण, हिंगुसिवकयं उदाहरणं ।। ६४. सव्वभिचारं हेतुं, सहसा वोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं, सामत्थं चऽप्पणो नाउं ।। ६५. होंति पडप्पन्नविणासणम्मि गंधव्विया उदाहरणं । सीसो वि कत्थवि जइ, अज्झोवज्जिज्ज तो गुरुणा ।। ६६. वारेयव्वु उवाएण, जइ य वाऊलिओ वदेज्जाहि । सव्वे वि नत्थि भावा, किं पुण जीवो स वत्तव्वो" ।। ६७. जं भणसि नत्थि भावा, वयणमिणं अत्थि नत्थि ? जइ अत्थि । ___'एव पइण्णाहाणी', असओ णु निसेहए को नु ?।। ६८. नो य विवक्खापुव्वो, सहोऽजीवन्भवो त्ति न य सावि। जमजीवस्स उ सिद्धो, पडिसेहधणीओ तो जीवो।। १. अस्साओ (ब)। २. च (ब)। ३. एवस्स उ (अ)। ४. अन्ये तु द्वितीयगाथापश्चाद्ध पाठान्तरोऽन्यथा व्याचक्षते । (हाटी प. ४३) ! ५. यह गाथा रा और ब प्रति में नहीं है। ६. ० ढंकणेहि (ब)। ७. सविभि० (ब)। ८. कत्थइ (अ,ब)। ९ वा (हा), व (रा)। १०. वेऊलिओ (रा)। ११. वोत्तव्वो (हा)। १२. एवं पइन्नहाणी (ब)। १३. उ (रा)। १२ तुलसी प्रज्ञा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९. आहरणं तद्देसे, चउहा अणुसट्ठि तह उवालंभो' । पुच्छा निस्सावयणं, होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ॥ दारं ॥ ७०. साहुक्कारपुरोगं, जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । arraoचाई वि एव जयंतेववू हिज्जा ।। ७१. जेसि पि अस्थि आया, वत्तव्वा तेवि अम्ह वि स अस्थि । किंतु ' अकत्ता न भवइ, वेययई जेण सुहदुक्ख ॥। ७२. उवलम्भम्मि मिगावइ, नाहियवाई वि एव वत्तव्वो । नत्थि त्ति कुविण्णाण, आयाऽभावे सइ अजुत्तं ॥ ७३. अस्थि त्ति जावितक्का, अहवा नत्थि त्ति जं कुविण्णाणं । अच्चतमभावे पोग्गलस्स, एयं चिय 'न जुत्तं " ॥ ७४. पुच्छाएकोणिओ खलु, निस्सावयणम्मि गोयमस्सामी । नाहियवाई पुच्छे जीवत्थित्तं अणिच्छंतं ।। ७५. केणं ति नत्थि आया, जेण 'परोक्खो त्ति' तव कुविण्णाणं । होइ परोक्खं तम्हा, नत्थि त्ति निसेहए को णु ! ।। ७६. अन्नावदेसओ नाहियवाई जेसि नत्थि' जीवो उ । दाणाइफलं तेसि, न विज्जई " 'चउह तद्दोस " ॥ ७७. पढमं अधम्मजुत्तं, पडिलोमं अत्तणो उवन्नासं । दुरुवणियं तु चउत्थं, अधम्मजुत्तम्मि नलदामो" || दारं ॥ ७८. पडिलोमे जह अभओ, पज्जोयं हरइ अवहिओ संतो । गोविंदवायगो वि य, जह परपक्खं नियत्तेइ ॥ १. उवलंभो ( रा ) 1 २.० सिट्ठीए ( रा ) । ३. जयंते वि बूहिज्जा (ब), जयंतेणुवोहेज्जा (रा, हा) । ४. जीव ( रा ) । ५. जं तु (ब) । ६. अजुत्तं ( अ, ब ), प्रस्तुत गाथा अचू में उद्धृत गाथा के रूप में प्रकाशित है। ७.० वायं (ब) । ८. पक्खं ति ( अ ) । ९ न अस्थि ( रा ) । १०. विज्जइ (हा ) | ११. चतुर्धा तद्दोष इति, अनुस्वारस्त्वलाक्षणिक : (हाटी प. ५२ ) १२. नलदाहो (अ), • ETAT (TT) I २२, अंक १ १३ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९. अत्तउवन्नासम्म य, तलागभेयम्मि पिंगलो थवई । अणिमिसगिण्हण' भिक्खुग', दुरूवणीए उदाहरणं ।। ८०. चत्तारि उवन्नासे, तव्वत्थु तयन्नवत्थुगे चेव । 'पडिनिभउम्मिय तत्थ होंति" इणमो उदाहरणा || ८१. तव्वत्थुगम्मि पुरिसो, सव्वं भमिऊण साहइ अपुव्वं । तदअन्नवत्थुगम्मि वि, अन्नत्ते होइ एगत्तं ॥ ८२. तुज्झ पिता मह पिउणो, धारेति अणूणगं पडिनिभम्मि' । किं नु जवा किज्जते ? जेण मुहाए न लब्भति' ।। ८३. ' अहवा वि इमो हेऊ, विष्णेओ तत्थिमो चउविगप्पो" । जावग थावग वंसंग, लूसग हेऊ चउत्थो उ ॥ दारं ॥ ८४. उभामिगा य महिला, जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई " | लोगस्स मज्झजाणण, थावगहेऊ' उदाहरणं ॥ ८५. सा सगडतित्तिरी " वंसगम्मि हेउम्मि होइ नायव्वा । तउसग - वंसग-लूसग, हेउम्मि य मोयगो य पुणो ॥ ८६. धम्मो गुणा अहिंसादिया उ ते परममंगलपतिष्णा" । देवा वि लोगपुज्जा, पणमंति" सुधम्ममिति हेऊ ॥ १. अणमि० ( ब ) । २. भिच्छुग ( रा ) । ३. पडिनभए उम्मि य होंति (हा ) । ४. सय सहस्सं ( ब ) । ५. किज्जती (अ) । ६. दोनों चूर्णियों में यह गाथा निगा के क्रम में नहीं है। किंतु कुछ पाठभेद के साथ उद्धृत गाथा के रूप में प्रकाशित है तुज्झ पिता मज्झ पिऊ, धारेति अणूणतं सतसहस्सं । जदि सुतपुव्वं दिज्जतु, अह ण सुतं खोरयं देहि ॥ ७. अन्ने त्वेवं पठन्ति - हेउ त्ति दारमहुणा, चउव्विहो सो उ होइ नायव्वो (हाटी) । ८. उंट लिडाई (हा) । ९. ० हेउ ( अ ) । १०. ०तित्तरी ( अ, ब ) । ११. इन हेतुओं के तुलनात्मक अध्ययन के लिए देखें ठाणं ४ ४९९-५०४ । १२. ० पइन्नो ( रा ) । १३. पणमति (जिचू) । १४ तुलसी प्रशा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७. दि©तो अरहंता', अणगारा य बहवे उ जिणसिस्सा। वत्तणुवत्ते णज्जति, जं नरवतिणो वि पणमंति ।। ८८. उवसंहारो देवा, जह तह राया वि पणमति' सुधम्म । 'तम्हा धम्मो मंगलमुक्किट्ठ निगमणं एवं ।। ८९. बितियपइण्णा' जिणसासणम्मि साहेति साहवो" धम्म । हेउ जम्हा 'सब्भाविएसु हिंसादिसु जयंति ।। ८९।१. जह जिणसासणनिरया, धम्म पालेंति साहवो सुद्धं । न कुतित्थिएसु एवं, दीसइ परिपालणोवाओ । ८९।२. तेसु वि य धम्मसद्दो, धम्म नियगं च ते पसंसंति । नणु भणिओ सावज्जो, कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं । ८९१३. जो तेसु" धम्मसद्धो, सो उवयारेण निच्छएण इहं । जह सीहसदु सीहे, पाहण्णुवयारओऽनत्थ ।। १. अरि ० (अ)। २. य (अचू, जिचू)। ३. ० सीसा (रा, हा, जिचू)। ४. पणमंति (जिच)। ५. तम्हा मंगलमुक्किट्ठमिति निगमणं होति णायव्वं (जिचू), • मंगलमुक्किट्टमिइ अ निगमणं (हा), • मंगलमुक्कट्ठमिइ निगमणं च (अ, रा)। ६. बीय ० (ब) बिइयपइन्ना (हा)। ७. साहुणो (अ, ब)। ८. साभाविएसु अहिंसा दिसु (जिचू), साभावियं अहिंसादिसु (अचू), अन्ये तु व्याचक्षते-- सम्भाविएहिं० (हाटी)। ९. गा० ८९ के बाद ८९।१,२,३---इन तीन गाथाओं का दोनों चूणियों में कोई उल्लेख नहीं है । टीका मे ये गाथाएं नियुक्तिगाथा के क्रम में प्रकाशित हैं किन्तु पूर्वापर सम्बन्ध को देखते हुए ये गाथाएं भाष्य की प्रतीत होती हैं। ये तीनों गाथाएं ८९वीं गाथा की व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। दूसरी बात यह है कि गा. ८९ के बाद ९० की गाथा का सीधा सम्बन्ध जुड़ता है। मुद्रित टीका में प्रथम भाष्यगाथा के रूप में ‘एस पइण्णासुद्धि'.''गाथा हैं । इस गाथा में हेतुविश द्धि का वर्णन है तथा प्रतिज्ञाशुद्धि की बात बताई जा चुकी है, इसका उल्लेख है । हाटी गा. ९३-९५ (८९/१-३) इन तीन गाथाओं में प्रतिज्ञाशुद्धि का वर्णन है । भाष्यकार के उक्त कथन से ८९/१-३ - इन तीनों गाथाओं को भाष्य गाथा मानने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं होती। १०. तेसि (ब)। खण्ड २२, अंक १ १५ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०. जं भत्त-पाण-उवगरण - वसहि सयणासणादिसु जयंति' । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसित भोई' 11 ९१. अप्फासुयौं- कय-कारित अणुमय- उद्दिट्टभोइणो हंदि ! | तस - थावर हिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पंति' ।। ९२. जह 'भमरो त्ति" य एत्थं, दिट्ठतो होति आहरणदेसे । चंदमुहिदारिगेय", सोमत्तवधारणं ण सेसं ॥ ९३. एवं भमराहरणे, अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहणं दिट्ठतविसुद्धि, सुत्त भणिया इमा चन्ना' ।। ९४. एत्थ य भणेज्ज कोई, समणाणं की रए" सुविहियाणं । पाकोवजी विणो त्ति य, लिप्तारंभदोसेणं ॥ १. जयंती ( अ ) । २. फासूय-अक- अकारिय- अणणुमयाणुदिट्ठभोई य (हा ) • मकय अकारिय अणुमयमणुदिट्ठभोइ य ( रा ) । ३. अफासुय (हा), न फाय (जिचू ) । ४० भोयणो (हा ) । ५ ९०,९१ ये दोनों गाथाएं दोनों चूर्णियों में निर्युक्तिगाथा के रूप में निर्दिष्ट हैं । हरिभद्र ने अपनी व्याख्या में इन गाथाओं के विषय में 'भाष्यकृद्' या 'निर्युक्तिकृद्' - ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया है । किन्तु मुद्रित टीका की प्रति में इन गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है । हमने इन्हें निगा के क्रम में रखा है । ६. भमरा तू (जिचू) । ७. ० दारुकेयं ( रा ) । 5. सुत्ते (रा) । ९. इस गाथा के बारे में दोनों चूणियों में कोई उल्लेख नहीं है किन्तु विषयवस्तु की दृष्टि से यह पूर्व गाथा से जुड़ी हुई है अत संभव है चूर्णिकार ने सरल समझकर इसकी व्याख्या न की हो। इसके अतिरिक्त इसी गाथा की 'इमा चन्ना' शब्द की व्याख्या में टीकाकार कहते हैं कि 'इयं चान्या सूत्रस्पर्शिक नियुक्तिाविति, (हाटी प ६५) अत स्पष्ट है कि यह निर्युक्तिगाथा है । १०. तत्थ (जिचू ) । ११. की रई ( अ, ब ), कीरती ( अचू ) । १२. पागोव ० ( हा, ब) पावोव ० १६ (रा) । तुलसी प्रज्ञा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ English Section Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SCIENCE EDUCATION AND SPIRITUALITY (An Experiment in School Education) Deepika Kothari Let me begin with the most inspiring words which so lucidly defines and cmphasises the need and importance of values in education "The most important human endeavour is the striving for mora. lity in our actions. Our inner balance and even our very existence depend on it. Only morality in our actions can give beauty & dignity to life. To make this a living force and bring it to clear consciousness is perhaps the foremost task of education. The foundation of morality should not be made dependent on myth nor tied to any authority lest doubt about the myth or about the legitimacy of the authority imperil the foundation of sound judgement and action."1 "A serious defect in the school curriculum is the absence of provision for education in social, moral and spiritual values. In the life of the majority of Indians, religion is a great motivating force and is intimately bound up with the formation of character and the inculcation of ethical values A national system of education that is related to the life, needs and aspirations of the people cannot afford to ignore this purposeful force. We recommend, therefore, that conscious and organised attempts be made for imparting education in social, moral and spiritual values, with the help, wherever possible, of the ethical teachings of great religions.''S The importance of value education and the need for its implementation in education has been felt not only in India but world over. Various education commissions of this country have recommended its inclusion in school curriculum again and again, but the fact remains that till now not a single effective and sustained curriculum has been evolved which caters to the needs & aspiriations of school system as a whole. However few attempts were made by NCERT, private and religious organisations but for some reason or the other it could not find its proper place in the present day school curriculum. The main reason for its failure, in our opinion, was that value education (soeial, moral & spiritual) was treated as a separate subject in schools & not interwoven with the already existing curri. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA culum and other activities of the school. Since value education demands a lot of thinking, practicing, attitudinal change and behavioural modification, to begin with, similtaneously dealing with all the subjects and other school activities is not possible. Therefore, sincere, sustained and step by step efforts are required to be made to achieve the goal. In view of the above we designed a project and through this project we are making a humble & modest beginning to weave in social, moral & spiritual values with Science and Environmental education for primary and upper primary classes. 1. For this project science and environmental education is our natural choice. Perhaps it is right to clarify here, why Spirituality with Science ? Generally people, more so scientists believe that it is not to right to mix science and spirituality. Yes, it is true. But it is proper if we say that science & spirituality are the two faces of the same coin. How, lets see. Why Spirituality with Science ? Science and Religion (here religion means Spirituality or Universal Consciousness) seems two different things. Science is the study of External world-nature, Universe and its laws. Religion deals with the Internal worldsoul, spirit, psyche, or mind. Thoughts, feelings, emotions, pleasure, beauty, pain, purpose. goal etc., all belong to the Internal world. The aim of Science and Religion is search for Truth. In the former, it is the truth which is revealed in the world of nature and its phenomenon whereas in the latter it is the truth which is revealed in the world of experiences and perception. Scientific facts are based on observations and experimentations. Values and perceptions of religious feelings are also based on observations, experimentations, experience & practice. Scientific experiments unveil the secrets of the External World and Religious experiments unveil the secrets of the Internal world. The reliability and strength of science lies in its objectivity. Religion is subjective. Witnin Science there is no place for questions like-why flower is so beautiful ? Why do I feel happy seeing a dancing peacock? What is the purpose of people coming to Gurudev Tulsi ? These are moral/ human questions. These are not questions within science. These are questions beyond science. Beyond science is the world of spirituality, psyche' & soul. The fundamental distinction between the two is clear. Yet man cannot do without either of them. Both are cqually significant for human life. Today Science & Technology is playing an important role in the Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No.-1 life of modern society. Science & Technology is the most challenging field of knowledge today. It has greatly improved our quality of life in the External World. On the other hand its application for the destructive purposes not only involve innumerable cost and effort but also put the human survival at stake. Scientists in the light of true objective scientific pursuit often land up inventing dangerous technologies which can distrub the social, political and economical stability of the globe. Modern science has actually destroyed our environment, traditional cultures and indigenous technologies. Therefore, it is necessary that science, if it is to bi a living force, must derive its strength from moral and spiritual values. Today because of the external pressure created by modern living our loner World seems so perturbed, distorted, uncertain, fearful, dissatisfied and full of tension and anxiety. It is, therefore, very important and essential to pay substanitial attention & divert our efforts to revitalize our Inner World. The need is to awaken the Inner vital force to balance it with the External force for the peaceful and meaningful existence of mankind. Why Spiritual Education with Science ? Man alone has the capability and potential to unveil the mysteries of Nature. The curiosity, human experience, feelings, power of logical thinking have inspired man for scientific & artistic pursuits. These qualities of human being which can only be experienced and perceived are divine, spiritual and cosmic feelings and can be brought out and developed through systematic study in Spiritual Education. Einstein has rightly said “The most beautiful experience we can have is the mysterious. It is the fundamental emotion which stands at the cradle of true art and true science. Whoever does not know it and can no longer wonder, no longer marvel, is as good as dead, and his eyes are dimmed.” The Project The project will have two major components which will go hand in hand simultaneously. i) Science Education (Environmental Education) and ii) Science of Living i) Science education will have the contents in accordance with NCERT/Raj. Govt's primary & upper primary education. The only difference in terms of innovation will be in the redesigning of chapters & teaching technique. ii) Science of living is a practical process through which man's inherent powers are awakened & developed The technique of science of living helps in balanciog the physical, mental, emotional and spiritual levels in a person. Yoga, Asanas, Pranayam, Kayotsarga Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA (Relaxation). Preksha Dhyan and Anupreksha are its major steps which will be systematically & scientifically practiced, We believe that these two components when learned & experienced will bring about the most beautiful human experience between teacher & young pupils. Why children ? The most absorbent, curious and adaptable mind is that of a child. The sense of wonder is the strongest and most prominent in a child. It is, therefore, easy & appropriate to nature & develop this quality of human being when he/she is still a child. hen child looks up at the night sky he/she observes stars, moon, constellations, sbooting stars etc., thousands of questions come to his/her mind. He/She wonders, marvels, fantacises, dreams and his/ her heart is filled with sense of beauty, amusement, curiosity, vastness and much more. These feelings and experiences are the first step vards knowledge, civilization, human values and spirituality. They open up new horizons and dimensions for man. As a result wholeness, oneness comes in man's personality. Our aim is to bring in these qualities in education and revive them through various joyful exercises taking science education as a basic means. We propose to pick up a few topics from science curriculum and redesign the chapters & teaching technique so that moral and spiritual values are very logically, systematically and scientifically nurtured. "It is no exaggeration to say that the future of civilization depends on the degree to which we can balance the forces of Science & Religion.'' Foot note : * This paper was presented at the 4th World Environment Congress on Eco-Philosophy and Eco-Dharma, New Delhi, 10-13th Jan. 1996. 1. Albert Einstein, The Human Side (1950) 2. A Report of Kothari Commission (1964-66)— Education and National Development. 3. A. N. WHITEHEAD, 1925. -Dr. Deepika Kothari Project Officer Jain Vishva Bharati Institute Ladnun--341306 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VIDYAS IN THE VASUDEVAHIMDI Rant Majumdar The central focus in Gunadhya's lost paisaci Vaddhakahā (Skt. Bshatkatha) are the Vidyadharas. Not only do Vidyadharas and Vidyadharts occur in many of its stories, but the goal of the narrative itself is the protagonist Naravābapadatta becoming the overlord of the Vidyadharas. Who are these Vidyadharas ? The Amarakosa merely declares that these are semi-divine beings (devayonayah) like the Gandharvas, Siddhas, Yaksas, Kinnaras etc., but surely the Vidyādbaras must be distinguished by the Vidyas they possess. What are these vidyās ?a The various Sanskrit versions of the Vaddhakabā do not offer any help here. But fortunately the earliest Jaina version, namely the Vasudevahimdi' by Sapgbadasagani Vacaka (5th century A.D) and also the Vasudevahimdi Majjhima Khamdaby Dharmasenagapi Mabattara (7th century A.D.) throw much light on the vidyās of the Vidyadharas. The word vidyâ, from the root-vid jñāne, means 'knowledge', 'learning' or 'science'. In the upadişads also the word vidyā occurs several times. Here it has a deeper meaning. It represents adhyātma vidyās or Brahma vidyā, i.e., spiritual knowledge. It is an antethesis to ignorance (aññāna). In the upanişads, Vidyā mostly occurs along with avidyā. In various principal upa nişads, the two terms Vidyā and avidyā are referred to as śreyas and preyas, para-aparā', akşarā and ksarā etc. But the vidyās related to the Vidyadharas are entirely different. These are mostly unusual, superhuman powers. According to the Vasudevahtrdi these vidyās number forty eight thousand. There is an interesting story about Nami and Vinami, who hailed from the family of Usabha. Before his renunciation, Usabha distributed his kingdom amongst his hundred sops. But at that time Nami and Vinami were not present. Afterwords they served Usabha with deep devotion, while he was practising penance. The lord of serpents, Dharanendra, pleased with their dedication gave them overlordship of the two rows of mount Veyaddha (skt. Vaitadhya). But no one could ascend these places on foot, therefore Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA he bestowed upon them several Vidyās. These vidyās were forty eight thousand in number. These vidyās, it is said, make them capable of moving in the sky. 10 But of these forty eight thousand vidyās only a few are mentioned by name. In some cases, a little information is furnished about the particular vidyā. The main vidyās occurring in detail are as follows: 1. Paņņattiu: The most important of all the vidyās is Pannatti (skt. prajñapti). A vidyadhari, Kanakamālā by name had abducted Kroņa's son Pradyumna in his childhood. She had bestowed upon him the Pannatti viijā.19 Consequently Pradyumna had full mastery over it. With the help of the Pannatti, a person could change one's form, he could get all information whatever he wanted to know. Pannatti enabled Pradyumna to play various tricks. Sometimes he assumed tbc from of a Brahmin and entered Satyabhama's palaceus and later on, disguising himself as a young monk (Khuddaga) went to Rukmini14. Finally be used to reveal his real identity. Once Samba also assumed the form of a girl with the help of Pannatti which was given to him by Pradyumna, 18 Pannatti is superior even to kingdom, because one who accepted this vidya could automatically become the king also. 16 In the VHM, one of the vidyadharis called Hemayaśā tells Vasudeva that she possessed two mahāvidyās namely gori and mahāpannatti 17 Now Prabhāvati, yet another wife of Vasudeva, had lost her vidyās while rescuing Vasudeva from a wicked vidyadhara. At Vasudeva's request Hemayaśā agrees to teach her the vidyā. Prabhāvati learns mahapannatti from her." Ahoginio (akt Abhogini) : With the help of this vidyā, the whereabouts of a desired person could be traced, even if he was at a far-off place. Vasudeva's wife PrabhāvatI was able to know through this vidsā what Vasudeva was doing at a particular time.20 Mabājāla" : It is also called mahājāliņi22 jālavanti.28 This vidyā was used during war-fare. It occurs in two sub-stories of the VHP. In both the stories this vidyā is said to be superior to all the other vidyās, because it could make other vidyās ineffective. 24 In the first story which is based on the Rāmāyana, Rāvana's main warriors were destroyed. Therefore, wishing a victory over Rāma, Ravana started severe penance to obtain jälavamti višjā. In the second story,26 there is a war between a king Srivijaya and Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 the vidyadhara king Ašanighosa. Ašanighoşa had abducted queen Sutārā, the wife of Srivijaya, Sriviyaja asks his friend Amitateja for help. Amitateja acquires mahājalini višja od Hrimoota mountain and comes back to Camaracañca country where the fierce battle was going op. Afanighosa and his fellow vidyādharas start running away on seeing Amitateja 'the siddhavilja'. Amitateja employed the mahājāla vijja so that the enemies could not run away. In return Aganighosa also employed Viijamuhi vijjaz to make mahājāla ineffective. But even then the vidyadharas were unable to run away and surrendered them selves to Amitateja. From the above story it appears that the mahājālutija was a sort of a magic web in which the enemies could be trapped. Tirakkharani" (Skt. Tiraskarini) With the help of this vidyā, as the name suggests, one could become invisible. He could easily roam anywhere without being scen by anybody. It is said that a vidyadharī called Kanakamala had concealed her pregnancy through Tirakkharani vījjā.0 In the VHM, Prabhāvatı had assumed the form of a śālabhañjika with the help of the Tirakkharini vijja.si Mabārobiņi" : Mahārohiņi is also an important vidya. With the help of this vidya a male or a female could assume the form of a cowherd or a kāpalika. Prabhāvati had once disguised herself as a handsome young kāpalika.83 Quite often the vidyās are mentioned in pairs, either complementary or contrasting. They are as follows: 1. Osovuņi and Talugghadapi34 : (Skt. avasvāpinitālodgbāțani), These vidyās were useful to the thieves. The chief of the thieves Prabava along with his friend Jambu, once entered a house for robbery. First of all, he opened the locks with Tālugghādani vijjā, then with the help of Osovani, he made all the members of the house fall asleep. Afterwards he robbed them off all their belongings.85 In the VHM also. a yogini called Sulasă who was adept in mirculous vidyās possessed these two vidyas which were beneficial to the thieves. 86 2. Thambhini-Moyani87 (Skt. sthambhini-Mocani) These two vidyās were used to stupefy anybody. While committi og theft, thieves made people senseless through Thambhini and after finishing their work brought them back to senses by Moyaņi. Thambhini seems similar to Osovani. In the VHM again both these vidyās occur together but in place of Moyani it is Vimokkbani Vimokşani). 88 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 3. Pabaravarani-Bandhanamoyaṇi” (Praharāvaraṇi-Bandhanamocani): In a war with the wicked vidyadhara king Asanighosa, king Śrivijaya had acquired these two vidyās by performing severe penance, 40 But how these vidyas helped him is, however not mentioned. 4. Sumbha-Nisumbha": TULSI-PRAJNĀ Another interesting pair of vidyas is Sumbha-Nisumbha. Unlike other vidyas, these could be easily obtained. A vidyadhara, in the guise of a magician, is recognized by Vasudeva and who in turn wants to bestow upon Vasudeva these two vidyas. He does so because Vasudeva is a deserving person. These two vidyas are said to be the source of happiness. The Sumbhā helped one to ascend and Nisumbha to descend in the air. Not only this, the person who had acquired these vidyas would find a flying car in front of him and then he would be able to ascent and descend.42 Thus we see that on one hand, some vidyas like Sumbhā-Nisumbhā are said to be easily accessible,43 the mahavidyas, on the other hand are difficult to obtain.44 All the vidyadharas had to follow strictly certain rules and regulations laid down by Usabha, Samjayanta and the serpent king Dharana. If they killed a man near a monk, a Jain shrine or if he was in the company of his wife or while he was sleeping, he was bound to loose his vidyas. Besides this, if any vidyadhara molested any maiden against her wish he would also be deprived of his vidyās. Moreover, anyone who violated a Jaina temple, a monk or a couple he would be deprived of these vidyas.45 In order to obtain or regain the lost vidyas, vidyadharas and even human beings had to observe severe penance. In order to acquire the sumbhā-nisumbha vidyas, Vasudeva had to go alone on the fourteenth day of the dark fortnight to a lonely place. Having fasted on that day and after making the offerings, Vasudeva had to repeat the vidya i.e. the sacred syllable one thousand and eight times.46 Vasudeva performed severe austerities to acquire Rohini vidya.47 In another instance Prabhavati, in order to regain mahāpaṇṇatti had to stand in chest deep water of a pond called Avaria (Skt. Aparajita) in the Nandanavana for seven nights.48 In this way the acquistion of Mahāvidyas was not easy. However, the easiest way of acquiring vidyas was marriage. Syamali, the third wife of Vasudeva bestowed upon him two vidyās namely Bandhanavimokkhaṇī i.e. getting release from bondage and Pattalahuja i.c. Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 making oneself tight as a leaf. Veruliamála, another wife of Vasudeva gave him Mahāmånasi vidyā after she married him.50 Moreover, the vidyādharas could also regain their lost vidyās before due time on seeing a noble man like Vasudeva, Arhantas, the cakravartins etc.51 Prabhāvati regained her lost vidyā on beholding Vasudeva.52 Vidyadhara Harivega also obtained his lost mahavidyās when a great man like Vasudeva sat on his back while the former had assumed the form of a lion due to a curse, 53 From the various stories of VHP and VHM, it becomes clear that the vidyās are not related to Vidyadharas only. Even human beings could acquire these vidyas The salakāpuruşa Vasudeva is also a human being, Pradyumna, Samba, some of the wives of Vasudeva and even the chief of the thieves Prabhava and his friend Jambu are also human beings. Thus the Vasudevahiņdi abounds in stories which deal with Vidyās in detail. Besides these above mentioned Vidyāas, there are many other Vidyås occurring in the Vasudevahimdi. An alphabetical list of such Vidyās is given below: Kālagi VHP p. 164 Kaliyă VHP 164 Kesigā VHP 164; Kesiyā VHM 27 Gamddhavva VHP 164 Gandbāri VHP 164; VHM 27,208,212,213 Gori VHP 164 Chhādani VHM 153 Pamsumüliga VHP 164 Pamdugi VHP 164 Pannaga VHP 164 Pavvai VHP 164 Bahuruva VHP 164 Bbāmari VHP 319 Bhūmitundagā | 164; VHM 27 Maņu VHP 164; VHM 27 Mahāgors VHM 33,75 Mabāpannatti VHM 33,92 Mabārobini | 164; VHM 27,28,163 Månavi VHP 164; VHM 27 Māyamgi VHP 164; VHM 167 Mülaviriya VHP 164; VHM 27. Rukkhamūliga VHP 164 Rohiņi VHM 147 Varsalayā VHP 164 Vijjamubi VHP 319 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 TULSI-PRAJNA Veyāla VHP 317,319; Vedāli, Veyali in VHM 81 Saṁkuya VHP 164; Samkugã in VHM 27,154,156 Sihamuhi VHP 208,212,213 Selakarani VHM 104 Notes and References : 1. Amarakosa, svarga varga. I, 11, Vidyādharo'psaro yakşa rakṣo gandharva kinnarāḥ / piśāco guhyakaḥ siddho bhūto’mi devyaonayaḥ || see also Trikāndasesa ed. C.A. Seelakhandha Maha Thera, Bombay 1916, p. 12 : Vidyadharah Kamarūpi Khecarāḥ sthirayau vanāh 2. Ludwig Alsdorf, "Zur Geschichte der Jaina-Kosmographie and Mythologie' in: Kleine Schriften, wiesbaden 1974, p. 71-101 has discussed the nature and organisation of the Vidyadhara extensi vely but did not go into the question of their Vidyās. 3. Vasudevahimdi Prathama Khanda, ed. Caturvijaya Muni and Punyavijaya Mudi, Bhavnagar 1933, reprint: Gandhinagar 1989, Henceforth VHP. 4. Vasudevahimadı. Madhyama Khanda, part I, ed. H.C Bhayani and R.M. Shah, Ahmedabad, 1987, Henceforth VIAM. 5. Gita, X, 32 adhyātmavidyā vidyanain vadah pravadatam aham 6. Kathopanişad, II.1.2 7. Mundakopanişad, 1.4,5 8. Svetāśvataropauişad, V. 1 9, VHP. p. 164, ...... tato tena ganddharva-pannagâņam adatālisaṁ sahassani dinnāni. 10. Ibid, p. 164, gaganagamanajoggão vijjão 11. VHP. pp. 92-94, 96-100, 108-124, 164,240,308,329,330; VHM, pp. 50,92,93,97. 12. VHP, p. 92 13. Ibid, p. 95 14. Ibid. 15. Ibid, p. 108 16. Ibid, p. 124, ...... pannaitiṁ ginnhi jāhijo vijjahiko so rajjasami 17. VHM, p. 92 18. Ibid. 19. VHP, p. 330. It reads ābhogant; VHM, p. 15,104 20. VHM, p. 40. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 13 alam tāva annäe parikahäe jāņāhi yāya vijjā pahāvenaṁ kir sampayan atjautto karet ? tti / tao mayā samāhūyā āhogini vijjā / 21. VHP, p. 164 22. Ibid, p. 318 23. Ibid, p. 244 24. Ibid. ......sayvaviijâcheyanim / see also p. 244; p. 318 fn. 9 25. Ibid, p. 244 26. Ibid, p. 318 27. lbid, p. 319 28. Ibid, viijāhara ya gatimalahamână mahājālaviijā-mohiya saranāgayavacchalaṁ amitateyar saranaṁ uvagayā // 29. VHP, p. 84,161 it reads tirikkahamani; VHM, p. 98,104 30. VHP, p. 84, Kanagamālāe devie tirikkoaraņī vijijāe puvvam pacchālo gabbho... / 31. VHM, pp. 98-104 32. VHP, p. 164; VHM, pp. 27 33. VHM, p. 27, esa kannā mahārohiniye vij)āe puraccaranam padivanna maha kaväliya-rūvenam/ 34. VHP, pp. 7,279 (talugghadan only); VHM, 138 35. Ibid, p. 7 36. VHM, p. 138 37. VHP, p. 7, VHM, p. 138, 139 38. VHM, P, 138, 139 9. VHP, p. 318 40. Ibid. 41. Ibid, p. 195 42. Ibid. 43. Ibid, atthi me duve viijão suhasāhanão sumbhā nisumbhāo uppaya-nippaya niyo, tão tava demi / 44. VHM, p. 93 ......aho dukkarar mahāviijão sådhu...... 45, VHP, p. 227, io anagāre Jinagharasaṁsie vă avarajhai, mihune vā akāmar paraju vati nigenhati so bhajthavijo hohiti'tti / sec also p. 125,264 46. VHP, p. 195 47. VHM, p. 107; see also, A.P. Jam Khedkar, The Vasudevahird, A cultural study, Delhi. 48. VHM, pp. 92-93 49. VHP, p. 125 20 II Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 TULSI-PRAJNA 50. VHM, p. 168 51. Ibid, p. 27 arahang-cakki-bala-vasudeva-carima-sarirãnak anayārāna ya mahānubhāvānam annesim cauttamapurisavaṁsa-pabhavanaṁ piti-sutabnātina ya damsanena vă akāle ceva vijijā-sidhi bhavati / cf. VHP, p. 264 52. Ibid, p. 28 53. Ibid, pp. 211-213. - Dr. Rani Majumdar Lecturer Deptt. of Sanskrit Aligarh Muslim University Aligarh-202001 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BUDDHISTS' VIEW ON UNIVERSAL LOVE AND TOLERANCE* Narendra K. Dash The spiritual abodes or the heavenly abodes in Buddhist thoughts are four universal values as : (i) loving mankindaess (metta) (ii) com passion (karunā); (iii) sympathetic joy (mudita) and (iv) equaminity (upekkha). These four perfect state are technically called brahmavihāra in the Buddhist literature. In the Visuddhimagga, Buddhaghosa describes in detail about the brahmavihara in the Ixtb cbapter. In the earliest available literary work of our country also we trace the compounds of the brahmavihāra. The Rgveda declares that They are pure from their very birth. They are all equal. Nobody is high or low...... Let all human beings come to me from all quarter."1 This very verse of the Rgveda is a clear instance of love for mankind. It also again suggests that love does not limit itself to a particular sect, or a particular community or rank or race and pation. Love serves as the basis of tolerance. Where there is real love, there must be tolerance and therefore love in which there is no tolerance is narrow and selfish. Again the Buddhists think that tolerance is the vital and premier quality of a Buddhist viz., "khānti paramam tapo titikkha nibbānam paramam vadanti buddha /'2 The same text also declares that: Khăntibalam balänikam, tamaham brumi brāhmanam // Thus love is always accompanied by tolerance. Tolerance is the special characteristic of love. Love that flows spontaneously like a stream benefiting all who are far and near. high and low, pure and impure, is the Universal love (mettă or maitri). Here in this paper, we however, restricts us to say some words on the Universal love, which is the main and first compound of brahmavihara, and its associate tolerance. Realising the importance of love and tolerance, Bhagavan Buddha adviced his followers to be affectionate towards the creatures. He realised that without love for each other it is not possible to protect the human race from destruction. Thus he adviced : no paroparam nikubbetha, natimannetha katthaci na kañci / byarapana patighasanja, nannamannassa dukkhamiccheyya // Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 TULSI-PRAINA mata yathă niyam puttam. ayusā ekaputtamanurakkhe / evampisabbabhutesu manasam bhavaye aparimānam 1,5 and mettam ca sabbalokasmin, manasam bhavaye apanimanam / uddham adha ca tiriyam ca, asambadham averam asapattam / In these suttas Bhagavan Buddha adviced his followers that one must cultivate in the consciousness and in the heart, the feeling with which a mother defends with her life an only son. As a merchant on a householder loves an only son who is meritorious from the very core of his heart, in the same way, the compassionate Boddhisattva loves all living creatures from the very core of his heart, The Boddbisattva who is encompass with this mahāmaltri or Universal love, sacrifies his body. life and the very root of his good action for the sake of this Universe without desire of any recompense.? According to the description of the Suttani puta as long as we live in this world we should love others and it is called the real brahmavihara viz; tittham caram nisinno vā, sayano vā yavatassa vigatarnidoho/ atam satim adhittheyya brahmanetam viharam idhamahu // The Buddhists not only verbally advice about the mahamaitri, but they suggest the path that how to cultivate this metta in our practical life. The Siksasa muccaya, contains that_to cultivate this metta, we have to think of maitri for the person to whom we love best. We have to think about his happiness, comfort and whatever good can be added to. Then we have to consider likewise for him who is next dear to us; and then for him who is just dear In this process, we, gradually began to love our neighbours, fellow-villagers, neighbouring villages and then for fellow country.men. Thus it is possible to think maitri in relation to all those who live in any direction from us. Guiding our thoughts in this manner, we will so train our mind and heart that we will begin to feel for all living things the tender affection of a father for a son viz, purvam priya sattve hitabukhopasmharanna dhyanamabhyasya / tatsame maitrinupasamharet / tatah paricitesu / tath udāsinesu / tatah samipavasisu / tatah svagramavasisul evam paragname ca / evam yavadekam disamadhimucya sparityapasampodya viharati / evam dasasudiksu / This maitri or mahamaitri is the life and soul of Buddhism. This great idea of universal love inspired thousands of men and women who dedicated their lives, not only for the suffering humanity but for all sentient beings. Buddhists who imbibed the maitri also crossed the Himalayas and the Sea, went to other countries and established their hospitals for both human beings and animals. They imported Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No.-1 17 medical herbs and even maintained botanical gardens for cultivation of medical plants 10 Thus, the Buddhist king Asoka spread maha. maitri and mahākarvna as early as 3rd century BC., which constitute the spirit of every true religion. Again in the separate Kalinga Edict also we find striking instances of Universal love and tolerance viz., "All men are my children, just as in regard to my owo children I desire that they may be provided with all kinds of welfare and happiness in this world and in the next, the same I desire in respect of all men." This Edict of Asoka clearly suggests that though the king was pro-Buddhist, still he was never against of any other religion and this was only possible for his practice of this metta. It is a remarkable fact here that in the remote past, in such an early age of the history of mapkind, also tolerance, specially tolerance for other religious sects atained its highest degree in the Buddhist culture. Tolerance was practised by the Buddhist to such an extreme point that they used to forgive even those miscreants who destroy the images of Buddhas, the relics and even the Good law viz. - pratimāstupasaddharmanasa kakrosakesu ca/ na yujyate mama dveso buddhadinam na hi vyatha //11 For the better understanding of this verse, we would like to give here the english translation of the very verse as : "should others talk badly of or even destroy Holy images, reliquaries and the sacred Dharma, it is improper for me to resent it, for the Buddhas can never be injured". This verse is the brightest example of toleranee among the Buddhists. Now even more utterance of any single word against any particular religion invites mass agitation, but we should remember that such types of worldly affairs will never reach to the God or Allah whatever it may be and religion will never affected by these activities. Therefore the Bundhists believe that the worldly activities as mentioned above do not hurt the Buddhas on the Bodhisattvas and we should not be angry with the outragers. . As a father or mother does not get angry with own mischievous children, the Buddhists also do not get angry with the enemies. They also not cherish any spirit of Vengeance for them. They firmly believe that their unconditioned boundless love for enemies will ultimately change them. Their tolerance reached the last degree when they declare that a Boddhisattva should bear all kinds of pain and even also the pain of their body being turn into pieces viz; evam dharmaganavistah sagaramate bodhisattvah sarvasatvapidam sahate // Yah kayasyotsargah kayaparityagah kayanaveksa iyamasya dānapāramita // Yatkaye chidyamane ya evasya kayam chindati tesameva pramokşartham kşamate //11 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNĀ Now I would like to narrate a story about a Buddhist sage who expounded the Sunya Doctrine. It is known from the chinese translation of the story of Arya Deva that he was stabbed while he was absorbed in meditation in a lonely forest. When he was at the point of death, he advised his enemy to flee away in the guise of a monk. He also offered his assailant a pair of his robes and the begging bowl, This story narrates an incomparable tolerance of the a Buddhist sage who not only forgive his assailant but helped him to escape safely. 13 Buddhists consider the whole world as a single unit and therefore they are not against any country, caste or religion. As a without the development of limbs, out body will never develop, this world need the develop of all the countries, race and the religious sects. In this connection Santideva remarks that as you protect the hands, the feet, etc., assuming them to be members of one body, you should, in the same way, protect all living creatures and as the suffering of the hands, feet, the head, etc; is considered by you, not isolated but integral, so the suffering of the whole world is to be considered as integral viz., hastadibhedema bahuprakarah kayo yathaika paripalaniyah | tatha jagadbhinnamabhinnaduhkha sukhatmakam sarvamidam ththaiva //14 Buddhists consider that the Bund has are seen in the form of sentient beings in this world. Therefore if we love the Bundhas, we must love the sentient beings, honour them and serve them. In the Bodhicaryavatara, Santideva says that we should be like a helper to the helpless, a guide to the wayfarer, a boat or a bridge to him who desires to cross over to the other shore. It is known from the same source that a Boddisattva should serve like a doctor, medicine and nurse for all the sick beings in this world until everyone is healed viz; 18 glananamasmi bhaisajyam bhaveyam valdya eva ca tadupathayakascaiva yavadrogapunarbhavah ||15 Again a Bodhisattva should always think about the betterment of all the creatures. According to Santideva-"May a rain of food and drink descend to clear away the pain of thirst and hunger and during the famine may I myself change into food and drink." Above all Santideva declares that "without any sense of loss I shall give up my body and enjoyments as well as all my virtues of the three times for the sake of benefitting all. By giving up all, sorrow is transcended and my mind will realise the sorrowless state. It is best that I give everything to all beings."17 Without love for the sentinent beings the Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 19 said thinkingness should not come to our mind. Therefore, from the saying of Santideva it is proved that Buddhists main aim is to love the creatures and for this cause it has been described as the first compound of the Brahmavihara. The same text i e. Bodhicaryavatara, also describes that cvon ihe enemy is to be served honoured and worshipped like the Good law because forgiveness is the highest virtue. It leads to Buddhahood. viz., duhkham pravestukamasya ye kapatatvamagatah / buddhadhistanata iva dveşasteșu katham mama 18 It is known from the 8th chapter of the Bodhicaryavatara that to a Buddhist, wealth, knowledge, virtues and the like are of no use, if they are not shared by the common men or the community 19 Lastly we will end this short paper discussing an important spiritual discipline called parātma-parivartana. It means the exchange of one's 'self' with that of others According to the belief of the Buddhists he, who is honoured, learned and virtuous and who possesses spotless character should practise the Discipline' and he should exchange his 'self' with one who is the most dispised and degraded in socicty. After such an exchange he should strive to uplift himself". Tbis is a peculiar spiritual thinking of the Buddhists. This idea is fully reflected in the following verse of the Buddhicaryavatara. The verse is : bdag-ñid-skyon-bcas-gshan-la yan / yon-tun-rgya-mtson-shes-byas-nas // bdag-'trin-yons-su-dor-ba-dan / gshan-blan-ba-ni-bsogan-par-bya // (VIII-113) This very verse may be reconstructed into Sanskrit as follows: jñatva sadosamatmanan paranapi gunodadhin / ātmabhavaparityagam paradanam ca bhāvayet // Thus the tender heart of the orientation Buddhist Acaryas was "always full of compassion for the lowest and the lost. They came down from the elevated position to the ground and they lifted as their shoulders those who were in the dust, Religious tolerance of these Acaryas was also remarkable. They had no quarrel with the Vedists, Sevaites. Jainas and the other minor religions. They practised the mettă or the Universal love to give shelter to all mankind. At the present days this Universal love should be practised in that way like that of ancient and middle days so that undesired religious quarrel may be avoided. Therefore, in my personal view the teachings of our ancient thinkers are fully relevant in the present society to guide us and to lead us in a correct and proper way. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 Notes and References: 1. Cf; te ajyeṣthā akaniṣthāsa udbhido 'madhyamāsa mahāsa vivyavṛdhuh | sujataso janusā pṛṣṇimataro divo manya a no accha jigatana || The Rgveda; Ed. Vaida-samsodhona Mandala; pt. 2; Pune; Saka 1858; Verse VI-59-5; p. 922. 2. Refer the Visudhi Marga of Acarya Buddha-Ghosa, pt. 1; Ed. with Hindi translation by Bhiksu Dharma-raksite; Sarnath; 1956; p. 263. TULSI-PRAJŇA This very verse suggests that the Buddhists think that tolerance is the highest way of life and nirvana is the highest goal (paramatapa) of human beings. 3. lbid. p. 263. 4. Compare: sabbe satta avera avyapajjha anidha sukhi attanam parihantu sobbe pana. sabbe bhuta....... sabbe puggata sabbe attabhava-pariyapanna avera avyapajjha anidha sukhi attaram pariharntu'ti // Ibid: p. 264. and also: mettasahagatena cetasa ekam disam pharitva viharati. tatha dutiyam tatha tatiyam, tatha catutthim iti udhamadho tiriyam sabbadhi sabbattataya sabba Vantam lokam mettasahagatena cetasa vipulena mahaggatena appamanena averena avyapajjhena pharita viharati || Ibid; p. 275. 5. Refer Suttnnipäta's Mettä-suttam; Ed. & translated into Hindi by Dr. Bhiksu Dharmaraksita; Delhi; 1977; p. 36. 6. Ibid; Verse; p. 36. 7. Refer; katama bodhisatvanam mahamaitri aha yatkayajivitam ca sarvakusalamulam ca sarvasatvanam niryatayanti na ca pratikaram kanks anti | aha katama bodhisatvanam mahakaruna yatpurvataram satvanam bodhimichanti natmana iti // The Siksasamuccaya of Santideva, ad. by Cecil Bendall; Mruton and co.; 1957 (Reprint); Chapter Seven; p. 146. 8. The Sultani pata; Metta-sutiam verse No. 9; p. 36. 9. The Siksasamuccaya; pp. 212-213 and also p. 19. 10. Refer the Second Rock Edict: Girnar Version; Select Inscriptions; Pt. 1; Ed. D.C. Sircar, University of Calcutta; 1965; p. 17. 11. The Separate Rock Edict of Asoka: Dhauli version; Ibid; pp. 40-44. 12. The Siksasamvccaya; p. 187. 13. The story of Deva or Aryadeva which is preserved in the chinese translation (Najjio's catalogue Sl. No. 1462;) Title :-Thi-pho Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol, XXII, No. 1 21 phu-sa-kwhan-I have not consulted the original chinese text, but I have taken this from the English translation done by Late Sujit Kumar Mukhopadhyaya. The English translation is however, remains unpublished. 14. The Bodhicaryavatāra, Ed. by Vidhusekhara Bhattacharga, The Asiatic Society, Calcutta; 1960; chapter VIII; verse 91; p. 159. 15. Ibid; III/7; p. 32. 16. Cf; zas-dan-suom-gyi-char-phab-ste | bures-dan-suom-pa'i-gnod-pa-bsal || mu-ge'i-bskal-pa-bar-ma'i-tshe/ bdag-ni-zas-dan-skom-du-gyur || It may be restored into Sanskrit as: kṣutpipāsāvyathām hanyāmannapānapravarṣaṇaiḥ | durbhikṣantarakalpeşu bhaveyam pānabhojanam || Ibid; III/; p. 32. 17. Ibid; III/10-11; pp. 32-33. 18. Ibid; VI/101; p. 105.. 19. Ibid; VIII/141-161; pp. 173-178. The paper was read in the Seminar on Buddhism and Global Chaos condicted by International Centre for Buddhist Studies Research, Siliguri in March, 1995. and -Dr. Narendra K. Dash Deptt. of Indo-Tibetan Studies Vishva-Bharati Santiniketan-731235 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOME UNIQUE FEATURES OF THE JAINA SCHOOL OF ASTRONOMY Sajjan Singh Lisbk 1. There existed in Atharva Veda Jyotişa, a thirty-fold division's system of time-units which may be conveniently called as "Trigesimal system'. Jaina astronomical system rendered a great role in the profitable conversion of Trigesimal system into Sexagesimal system of time-units, There existed three unique systems of length-units viz. åtmā, utscdha and Pramana systems. The mystery of diversity of relationship between a yojana and the number of British miles is revealed out. Besides, Jainas had evolved a system of arc division or graduation of the zodiacal circumference. It was divided into poezi days and then 588 muhartas of a nakşatra month (lunar sidercal month) and subsequently in 54900 gagana-khandas (celestial parts) and 360 saura days leading to the concept of 360 modern degrees of arc. 2. Jainas had regarded earth as made up of concentric rings of land masses alternatively surrounded by ocean rings. The two suns, two moons etc move diameterically opposite about the mount Meru placed at the centre of Jambudvipa (the isle of Jambu tree), the central island of earth. The tentative astronomical model af Meru was purposefully designed such that its dimensions fit into certain astronomical constants e.g. obliquity of ecliptic. 3. The time of day was measured and the seasons were determined through the science of sciatherics. 4. Kinematical studies of sun and moon were distinctly made and the notion of declination was developed as implied in the concent of mandalas (diurnal circles) of sun and moon. 5. Jainas had attempted to reform the Vedanga Jyotişa quinqu. ennial cycle. An extensive study of zadkiel (pancanga or five pa: ts viz. tithi i.e. lupar day, day. karana i e. half lunar day. pakşatra i.e. asterism and yoga i.e. combination) was also made. Nakşatras (asterisms) were classified into kula category), upkula (sub-category) and kulopakula (Sub-sub-category) nakşatras dependiog upon their positions with respect to moon's position among asterisms at syzygies. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 TULSI-PRAJNA 6. The phenomena of heliacal rising and setting of venus were keenly, observed. The concept of yfthis (lanes) of venus among the different parts of lunar zodiac is peculiar to Jaina School of astronomy. Such kinematical studies of venus are parallel to those of planetary ephemerides of Seleucid and Menomides periods. 7. Jaina's cycles of eclipses viz. 42 eclipse months cycle of lunar eclipses and 48 eclipse years cycle of solar eclipses, are absolutely free from any foreign influence of Chaldean Saros or Metonic cycle. 8. Directions of lunar occultations with nakşatras indicate a notion of celestial latitude of moon. Chatraticatra yoga (lunas occultation with Citra i.e. Virginis) has been illustrated in detail. Probably that was the time when reckoning of the first point of zodiacal circumference was shifted from winter Solstice to Verbal equinox. 9. Jainas had a set theoretic approach, e.g., in classification of Jyotişikas (astral bodies). 10. Jainas used zigzag functions parallel to their use in Babylonian astronomy of Seleucid period. 11. Jainas had developed a technique of measuring celestial distances in terms of corresponding distances projected along the surface of earth. Variation of declination, celestial latitude of moon and diurnal paths of sun and moon were measured in an alike manner. 12. Astronomical instruments like gnomon, water-psydra etc. were in use. Obviously, irrespective of certain resemblances between Vedānga Jyotişa and Jaina astronomy, the latter represents a far advanced astronomical system over Vedānga Jyotisa. In the absence of knowledge of Jaina astronomy, a confusing link between Vedānga Jyotişa and Siddhantic astronomy has been the product of certain similarities between Vedanga Jyotisa and Paitāmaha Siddhānta. Our findings in Jaina School of astronomy have opened up many new vistas of research in this field and thus the task of bridging the gap between Vedānga Jyotisa and Siddhāntic astronomy has been initiated on its progress N. B.: For more details, see SS. Lishk's PhD thesis entitled Mathematical Analysis of Post-Vedānga Pre-Siddhāntic Data in Jaina Astronomy' Panjabi University, Patiala (January, 1977). Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEVELOPMENT OF STUDIES IN PRAKRIT GRAMMER AND LINGUISTICS Bhagchandra Jain 'Bhaskar' and Prakrit has been considered one of the most ancient languages of Indo-Aryan Group. It was a Vedic dialect which was gradually Prakrit reached to the status of Pali, developed and Apabhramsha and modern Aryan languages. It is therefore not impropar to state that the modern dialects are directly related linguistically to these ancient languages. It does not matter if their cultured forms are available in circimference of a circle or nerve of Sanskrit language and grammar. The scholars like Dr. Katre have divided the Vedic dialects into three Groups on the basis of Panini's Ashtadhyayt, i.e. (1) Pracyā (Eastern dialect), Udicya (Northern dialects) and Madhyadestyä (Middle dialects). The Pracya dialect was used by non-Vedic people of Bihar and adjoining areas. That was called Mägadht during the period of Mahavira and the Buddha. Udicya was the dialect of Vedic or Brahmanic people who developed it from Chandasa to Sanskrit. Thus both, the Prakrits and Sanskrit are the sister languages which are derieved from a lively source of Chandasa In later period Chandasa was developed, refined, cultivated and denoted by the name of Sanskrit. Panini was the leader of these ancient Sanskrit Grammarians. Magadhi or Pali, Ardhamagadi or Arsa, Maharastri, Sauraseni, Paisaci, Niya and Apabhramsa are the principal Prakrit dialects which got the status of languages in due course and Sakari, Canda'i, Savari, Abhiri, Dravid, Odra etc. are the sub-dialects. Of these Prakrit and Sanskrit, which is earlier is a big question which has been a controvertial point since inception. The answer to the question may be divided into mainly two divisions, viz. i) Those who are of the view that Prakrit is derieved from Sanskrit, ii) those who considered and treated Prakrit as the original source of Sanskrit. The first group of scholars is led by Hemacandra, Markandeya etc. and second one is guided by Namisadhu, Rajasekhara and others. Hemacandra and his followers accepted Sanskrit as the Prakriti or basis of Prakrit, while Namisadhu. the Commentator of Rudrat's Ravyalankara is of the view that the basis Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJŇA or Prakriti of these languages or dialects is the natural language of the people (Prakrita), the uncontrolled by the rules of the grammarians. Namisadhu's view appears to be linguistically correct. The fundamental problem is that nothing is available which could prove the existence of Prakrit prior to that of Sanskrit except some of the Prakrit forms like vikrta, kikrita, nikrita, dandra, andra etc. Panini cultured the Chandasa by framing the rules and regulations, which could hardly be changed till today. But on the other hand, Prakrits were constantly under changing and linguistically developing. Sanskrit was used by higher communities while Prakrits became the media for expression of common people. On the basis of linguistic studies Dr. Pichel refuted the view of Horefer, Lassen, Jacobi, Bhandarkar etc. that Prakrit is derieved from Sanskrit. He supported the view of Senart stating that the rudiments of Prakrits are deeply rooted into the dilects. Their prominent characteristics are borrowed from the living languages of earlier period. But these dialects are developed into different stages of literary languages. In later period the Prakrits were cultivated into literary Prakrits and influenced by Sanskrit grammer, language and style. The same trend may be perceived into the basement of Prakrit Grammar writings. 26 Development of Studies in Prakrit Grammar and Linguistics The rudements of Prakrit grammar are available in the Sthananga and other Prakrit Agamas. In early period some Prakrit grammar Granthas like Aindri, Saddapahuna, Samantabhadra Vyakarana, Panini Prakrit Vyakarana, Svayambhu Vyakarana etc are mentioned here and there but they could not be traced out so far. Afterwards some of the Prakrit Vyakarana Granthas were written by Indra (?), Samantabhadra, Panini, Svayambhu and others which are not available in any Bhandaras. On the basis of these texts the later Acaryas would have written their Granthas which became substratum for further linguistic studies. We shall discuss in brief the development of Prakrit studies in Grammar and linguistics under the following heads: 1. Studies in Prakrit Vyakarana texts 2. Linguistic studies of Prakrits 3 New Prakrit Grammars 4. Comparetive studies of Prakrits, and 5. Prakrit dialects used in Sanskrit dramas The Indian and foreign scholars worked in the field and enriched the Prakrit studies with their literature contribution. We would strive to submit the research work done in the field accord inclu Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 1. STUDIES IN PRAKRITA VYAKARANA TEXTS I) The Eastern School of Prakrit Grammarians There are two sects of Prakrit Vyakarana texts. One is eastern and the other one is Western. The eastern sect is led by Vararuci and the Western sect is guided by Hemacandra. Bharata was predecessor Prakrit grammarian to Vararuci. Markandeya remembers Sakalya and Kohal along with Bharata in his Prakrti Sarvasva. It is said that Panini composed the "Prakrit Laksana" which is also not available. Therefore Vararuci may be accepted as the earliest Prakrit grammarian. The following Indian scholars did the work on it and its Tikas: 1899 Varanasi edited the text only Baldev Upadhyaya 1. Rama Sastri Telanga 2. Batuknatha Sharma & 1915 Nirnaysagar edited with Katyanitika "Prakrit Manjari" edited with Vṛttis of Katyayan and Bhamah with Bengali translation edited with Tikas of Vasantaraj & Sadanand edited with English translation 3. Basantkumar Sharma 1914 Calcutta Chattopadhyaya 4. do 5. P.L. Vaidya 6. Udyotan Shastri 7. D.C. Sarkar 8. Kunahan Raja 9. K.B. Trivedi 10. Jagannath Shastri 11. D.C. Sarkar 12. Udayaram Davaral 1927 Varanasi 1931 Poona 1940 Varanasi 1943 Calcutta 1946 Madras 27 1957 Navasati (Gujarat) 1959 Varanasi edited with Manorma of Bhamah English translation published in Grammar of the Prakrit language edited with introduction and Vritti of Ramapanivada edited with English 1970 Varanasi 1977 Varanasi (V.S.) Vararuci belongs to about 4th c. A.D. He was a great Prakrit grammarian who composed the Prakrit Prakash in twelue chapters describing the characteristics of Maharastri, Magadhi, Paisaci and Sauraseni. It bears a number of commentaries written by Bhamah (Manorama), Katyayana (Prakrit Manjari), Narayana Vidyavinoda (Prakritapada), Vasantaraja (Prakrita Sanjivani), Sadanand (Prakrit translation another edition with Hindi translation Revised and enlarged ed. edited with Manorma Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 TULSI-PRAINA Subodhin'), Ramapanivad (Sanskrit Vịtti) etc. The western scholars led by CI. Lassen worked on the Prakrit Prakasa of eastern wing He published in 1837 A.D. the "Institutions Linguae Pracritieae" from Bonnae in three volumes. The first volume considers the Prakrit grammarians and prakrit dialects. The second part is devoted to first four chapters of the Prakrit Prakasa and the third part is dealt with Magadhi, Paisaci, Apabhramsa etc. Another book entitled "Radices Pracritcae" was published by N, Delius in 1839 from the same place. Then E.B. Cowell edited the Prakrit Prakasa on the basis of six Manuscripts and got it published with the Manorama commentory from Hertwhrd in 1854. Its second and third editions were out from Hertwbard and Calcutta in 188 and 1962 respectively. It carries the English translation with five appendeces. According to some scholars the Prakrit Laksana of Canda is composed prior to Vararuci Dr. Hiralal Jain consideres it the work of 2nd or 3rd c. A.D. It was first edited by H. Hoernle in 1880 published from Calcutta undar the title "The Prakrit Lakshanam or Chand's Grammer of the ancient (Arsa) Prakrit. Pt 1 Text with a critical Introduction and Indexes on the basis of four manuscripts. Hoernle was of opinion that Canda's period is earlier than that of Vararuci which was refuted by Block in his paper "Vararuci Unt Hemachandra''. Pischel criticised the view of Block and said that Canda cannot be contemporary to Hemacandra as he himself pointed out that his work is based on the earliar work (Vrddha mata.) Jagannatha Shastri made available the Hoarnle edition into Hindi (Varanasi, 1959) which was re-edited by Devakikanta in 1923 (Calcutta) and in 1929 (Satyavijaya Jain Granthamala, Ahmedabad). Prakrit Kamadh nu or Prakrit Lankesvara Ravana was first edited by Manamohan Ghosa which was published along with Prakrit Kalpataru. The Samksiptasara of Krmadisvara (12-13th A.D.) was first edited by Kassen in 1839 and then it was published by Rajendera Lal Mitra in the Bibliothika Indica (Calcutta 1877, 1879). Prakrita Prakasa and Sanksiptasara are closely connected with cach other Sabdanusasana of Purusottama (12th C.) was first edited by Nitti Dolci in 1938 from Peris in which she refuted several views of Pichel. She clarified that the Prakrit Grammarians used to mention the lessar number of Prakrits. She also reviewed some of the opipions of Cowell and Offrest. Dolci accepted the reading Siddha" in place 0;" Hugga" and said that the original source of the Sutras of Hema. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No.-1 29 candra is stili not fully known to us. Manamohan Ghosh properly edited the Prakrit Kalpataru of Ramatarkavagisa (17th C.) and published it in 1954 from Asiatic Society. Calcutta. He added in the appendix the Prakrit Sabdanusasana with English translation along with other small Prakrit Grammar texts. Vasantaraj of 14th15th A.D. wrote a commentary on the Prakrit Sabdanusasana. The studies of tbe Prakrit Kalpataru were made by Lassen and Grierson and then the text was edited by E. Hultzsch in 1909 Published by Royal Asiatic Society, Hertferd. Prakrit Sai vasva of Markandya (16th A.D.) was first edited by Bhattanath Svami and published by Grantba Pradarshini, Vijagapatam in 1927 and than its second edition with critical introduction was made by Dr. KC Acharya and published by Prakrit Society, Ahmedabad in 1968 Markandeya divided Prakrit into four types, Bhasa, Vibhasa, Apabhramsa and Paisaci. Bhasa is furtber divided into five types, Maharastri, Sauraseni, Pracya, Avanti and Magadhi. Vibhasa is of five kinds-Sakari, Candali, Savari, Abhiri and Dbakki. Apabhramsa is of three types – Nagar, Bracada, and Upanagara and Paisaci is also divided into several kinds. It is the reason why Dr. Pichel stressed the study of Prakrita Sarvasva for understanding the rules of other Prakrits.8 11) The Western School of Prakrit Grammarians The Western school of Prakrit Grammarians may be charted as follows: 1. Valmiki (?) : Some sutras 2. Namisadhu : Commentary of Rudrata's Kavya lankara II. 2 3. Hemacandra (1088-1172 A.D.) Prakrtavy a karana 4. Commentaters and Followers : (0) Udaya Saubhagya Gani : Vyut pattidipika (ii) Narendra Candrasuri : Prakrta Prabodha (iii) Simhadeva Gani : Commentary of Vagbhattalankara II .. Trivikrama (13th C.) 6. Narasimha 7. Simbaraja (15th C.) 8 Laksmidhara (1 5th C.) 9. Appayadiksita (1553-1636 A.D.) 10. Srutasagara (V.S. 1575) 11. Balasarasvati : Prakrita Vyakarana : Prakrita Sabda Pradipika : Prakrita Rupavatara : Sadbhasacandrika : Prakrita Manidipika : Audaryacintamani : Sadbhasavivarana Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 TULSI-PRAJNA 12. Bhamakavi : Sadbhasacandika 13. Durganacarya : Sadbhasaru pamalika and Sadbhasamanjari, Sadbhasasuvantadarsa, Sabdhasavicara (?) 14. Subhacandra (V.S. 1605) : Cintamani Vyakarana mentioned in the Pandava-Purana Prasasti 15. Raghunath Kavi (18th C.) : Prakrtananda Of these, Hemacandra is the prominent Prakrit grammarian amongst the Western school grammarians He wrote Prakrita Vyakarana in the eighth chapter of the Siddhahemasabdanusasa na on the basis of preceding Vyakaranas like Prakritalaksana of Canda, Prakrit Prakasa of Vararuci. Dr R. Pischel edited it into two parts, First consists of original text with word-index and the second one had the German translation with explanation and critical and comparetive study. Both the volumes were published under the caption Hemchandra's Grammatik der Prakrit Sprachen (Siddba Hima. candra Adhyaya VIII) published from Halle in 1877 and Theil (Uber Setzung and Erlauterungen), 1880 (in Roman script). Prior to this edition, Krishna Mahabal wrote "Introduction to the Hemachandra Vyakarana" which was published from Bombay in 1872. It was reedited by S.P. Pandit and amassed it as an appendix to the Kumara palacarita (B.S P.S. (XX), Bombay 1900) and then another edition was made by Dr. P.L. Vaidya in 1 28 (Poona) and 1936 and 1958 (Poona). Upadhyaya Ratna Muni translated it into Hindi in two parts (Byavar, V.S. 2020 and 2024) and Dulichandra Pitambardas translated it into Gujarati (Miyagam, V.S. 1961). Bbimasimha Manek edited it with Dhudhika Tika (Nirnaya Sagar Press, Bombay, 1903, The famous commentaries on the Prakrit Vyakarana of Hemchandra are : (i) Tattva-Prakasika written by Hemachandra (Bombay, V.S. 1929), (ii) Harmadipika or Prakrita-Vrtti-dipika Haribhadrasuri second, (iii) Dipika of Jinasagarasuri, (iv) Prakrit-Dipika of Hariprabhasuri, (v) Haimaprakrita-Dhundhika of Narachandra suri (V.S. 1591), Prakrita-Vyavrtti of Vijaya Rajendra Suri, Dhokavrtti of (Hemachandracharya Jain Sabha, Patan) and Haimadodhakartha. Prakrita Sabdanusasana of Trivkrama was partly (First chapter) published in 1896 from Vijaga pattam and then fully edited by T.B. Laddu in 1912. It was further edited by Batuknatha Sharma and Baldeo Upadhyay (Varanasi), Dr. P.L. Vaidya (Jiyaraj Granthamala, Solapur, 1954) and Jagannatha Shastri (Varanasi 1950) On the basis of Prakrit Sabdanusasana, Simharaj wrote the Prakrit Rupavatarå Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol, XXII, No. 1 31 and Laksmidhar composed the Sadbhasacandrika which was edited by Kamalasankar Pranashankar Trivedi (Bombay Sanskrit Prakrit Series, 1916). Trivedi explained in detail in the introduction the peculiarties of Maharashtri. Sauraseni, Magadhi, Paisaci, Culika Paisaci and Apabhramsa Prakrit Manidipika of Appaya Diksit was edited by Shri Nivas Gopalacharya (Oriental Research Institute Publications, University of Mysore, 1954) with critical notes and Prakrtanand was edited by Muni Jinavijay, Singhi Jain Granthamala, Bombay. 2. Linguistic Studies of Prakrits The Prakrit languages drew the attention of Western scholars in the middle of 19th century. A Hoefer is perhaps first scholar who worked on Prakrits linguistically and published "De Prakrita Dialecto Libri Duo" from Beretini in 1836. He tried to Prove that Sanskrit is the original sowrce of Prakrit. The same view was supported by J. Beams in the 'outliness of Indian Philosophy (Second edition, 1868) with the help of examples of Sauraseni. Afterwards G. Goldschamidt studied the passive voice of Prakrit in "Bildungen Passtive Stammen in Prakrit (Seitscrhift. der deutschen morgenlanсlischen Gsellschrift Vol. XXIX, PP. 492-495; Vol. XXX. p. 779, Leipzig, 1875-1876) and Der Infinitive des passive in Prakrit, ZDMG. Vol. XXVIII, p. 491-493, Leipzig, 1874). E. Muller stressed the importance of Prakrits and submitted the pecularties of their morphemes (Beitrage, Zer Grammarik des Jaina Prakrit, Berlin, 1876). In this context the book A Sketch of the History of Prakrit Philology (CR. LXXI. Art. 7. 1880) of AF. Rudolf, Hoernle may also be mentioned. In the mean time Wilson delivered lectures on Prakrit and Modern Indian languages" at the Bombay University and John Beams published some volumes which explained the impect of Prakrits on the development of Iryan languages. The works of Jacobi "Uber Unregelmassige Passive in Prakrit (Kuhne's Zeitschift fur deutcsshen morgenlandischen cesellschaft, Vol. XXXIII, p. 249-259, Gutersloh. 1887) and Uber das Prakrit in der Erzahlungs-Literatur der Jainas (Revista degli studi Orientali, Vol. II PP. 231-236, Roma, 1908-9) may also be mentioned which explained the contribution of Prakrits to understand the Linguistic impertence. He also studied the Prakrits of Samaraicca kaha and Paumacariya in this respect. R. Pischel published "Grammatik der Prakrit--Sprachen (Grundriss der indosarischen Philologic un Altertums Kunde, Band I, Heft 8) from Strassburg in 1900 and inspired the study of Prakrits. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 Sten Konow (IR. A. S. 1901), T. Burrow (Sanskrit Language, London), J. Block (L Arda Area), M. Joseph Vendreyes (Le Language", Paris), John Lyons (Introduction of Theoretical Linguistics, Cambridge). Bloomfield (Language, London, 1988) Aladorf (Origins of New Indo-Aryan Languages) etc may also be mentioned who did comparative study of Prakrits. Inscriptional Prakrits were also linguistically studied by Hulsh (Inscriptions of Ashok (Oxford, 1925), Bulhar (Ashoka's Text and Glossary (Calcutta, 1924), Bloch (Ashoka a la Magadhi (BSOS, Vol VI. 2.1932) who tried to prove that the inscriptions had a great influence of Prakrits. The Indian scholars too edited the works of Prakrit and Apabhramsa and discussed their characteristics in the introductions. Some articles and books have also been written on the subject. The articles on "Magadhi Prakrit and Bengali (IHQ. 1925) of M, Shahidulla, "Locative from in Paumacariya (BBRAS, 1957) and Maharashtri language and literature (JBU., 1936) of Dr. Ghatage." The Relation between Pali and Ardhamagadhi" (IHQ. Vol. VI. 1928) are related to Magadhi, Ardhamagadhi and Maharashtri Prakrits. Likewise, the articles untitled" Paisaci Prakrit (IA XLVIII, 1919, P. P. 211-213) of M P.V. Ranganath Swami, Hemachandra and Paisaci Prakrit (IA. Li. 1922 pp. 51-54) of P. V. Ramanuja Svami, ("Paisaci Language and literature" of A.N. Upadhye (Annals of the B.O.R I. XXI. 1-2, pp. 1-37, Poona. 1940)are related to Pasaci Prakrit. TULSI-PRAJNĀ Some more articles may be mentioned in this respect :-"The text of the Jainendra Vyakarana and the Priority of Candra to Pujyap da (ABORI. Vol XIII, 1931-32, pp. 25-36) of K B. Pathak," Joinder and his Apabhramsa works" (ABORI. Vol. XII. 2. pp. 132168, Poona, 1931), Subhacandra and his Prakrit Grammer (ABORI, Vol. XIII, 1931-32, pp. 37-58), The Prakrit Dialect of Pravacanasara of Jaina Sauraseni JUB. II. Bombay, May, 1934), Prakrit Studiestheir latest progress and future (A.I.O C., Haidarabad, 1941), A Prahrit Grammer attributed to Samantabhadra (III Q. XVII, pp. 511-16, Calcutta, 1952), Language and Dialects used in the Kuvalaya. mala (Summary of papers, A.I.D.C. XXII Session, Gauhati, 1965). Dr. Bhayani. Dr. Hiralal Jain, Muni Nathmal, K. Rishabh Chandra, Muni Nagaraj, also wrote some papers on the Prakrits. Our Indian scholars have also discussed Prakrits from linguistic standpoint. Some of their papers m y be mentioned here: Introduction to Modern Indian Linguistics with special reference to IndoAryan and Assamese (Dr. S.M. Katre, University of Gauhati, 1941), Historical languistics and Indo-Aryan Languages (Dr. S M. Ghatage, University of Bombay, 1962), Prakrit Bhasha (Dr. Brabodh Pandit, Varanasi, 1954), Middle Indo-Aryan Reader (Dr. S.K. Chatarji and Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 33 Dr. Sukumar Sen, University of Calcutta, 1957), Introduction to Comparative Philology, Apabhramsh literature and its importance to Philology (Poona, 1919 A.I.OC.) Dr. P.D. Gune), On the etimology of the Prakrit Vocable Pore (S.N. Ghosal, VIG. Hoshiyarpur, Bhargav, March, 1967, p. 38-40), Magadhibhasasu Kriyapadanam Vislesanam (Gurusevi Sharma, A.I.O.C: Aligarh), Desi works in Kalidasa's Prakrit (Ibid), Dialect and Sub-Dialects of Prakrit), (Dr. Satya Rajnan Banerjee, Ladnun), 1977, Apabhramsa ke vikasakrama men Pascimi Rajasthani" (Kaushik Jagadish Prasad, 1970), Mahapurana etc. (P, L. Vaidya). The editors of the Prakrit and Apabhramsa texts have also dealt with the Prakrit languages used by the authors. Some of them are: Dr. Hiralal Jain, Dr. A. N. Upadhye, Dr. Rajaram Jain. Dr. Hiralal Jain's works are: 1) Nayakumaracariu-Karanja, 1931, 2) Pahuda Doha-Karanja, 1933, 3) Savayadhamma loha-Karanja, 1932, 4) Karakanducariu-Kajanja, 1934,5) Satkhandagama Vols. 1-16, Vidisha, 1939-58, 6) Sudansanacariu- Varanasi, 1970,7) Sugandhadasamikaha-Varanasi, 1962,8) Mayana parajaya - Varanasi, 1962,9) Kahakkosu-Ahmedabad, 1969,10) Jasaharacariu-Delhi, 1973, Virajinindacariu-Delhi, 1975. Dr. A.N Upadhye, the closest friend of Dr. Jain edited the Prakrit texts; For instance: 1) Pancasutra-1934, 2) PravacanasaraAgas, 1935,3) Paramatma Prakasa and Yogasara-1937, 4) Kamsavaho-Bombay, 1940,5) Dhurtakhyana-Bombay, 1944,6) Lilavai1949, Baroda, 7) Ananda Sundari-Delhi, 1955, 8) UsaniruddhaBombay, 1941,9) Kuvalayamala-Baroda, 1959.10) CandalehaBombay, 1945, 11) Singaramanjari-Poona, 1960,12) Kattigeyanupekkha-Agas, 1960,13 Tiloya pannatti-1943, 1951 in two parts, Jambudivapannatti-1957 etc. Muni Nathamalji (Acharya Mahaprajna) re-edited the Agamas and discussed the characteristics of Prakrits there in the introductions. Some more works may be mentioned which are edited by scholars with detailed introductions; for instance, Mahapurana of Puspadanta, Paumacariu and Ritthane micariu of Svayambhu, Sudansanacariu of Nayanandi, Bhavisayattakaha of Dhanapala, Paumasiricariu of Dhahal (Dr. Bhayani) Jasaharacariu of Raidhu (Dr. Rajaram Jain), Jambusmicariu of Vira (Dr. V.P. Jain, Candappahacariu of Yasabkirti (Dr. Bhagchandra Jain), Vaddhamanacariu of Vivudha Sridhara (Dr. Rajaram Jain) etc. 3. New Prakrita Grammars On the basis of Prakrit texts the Western scholars wrote some Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 TULSI-PRAJNA Prakrit Grammars with modern techniques. Some of them we have already mentioned during the discussion of linguistic study of Prakrits. The following Prakrita modern Grammars may be mentioned : 1. Howffar, Berlin, 1836 : De Prakrita Dialects Libric Duc 2. C.L. Lassen, Bonnae, 1917 : Institutions Linguae Pracriticas 3. R. Pischel, Vratislaciae, 18 4: De Grammaticis Pracriticis 4. E. Muller, Berlin, 1876 : Beitrage Zur Grammatik des Jaina Prakrit 5. S. Goldschmidt : Strassburg, 1879 : Prakritica 6. Do Leipzig, 1878-83 : Zeitschrift der deutschen morgen. dischen Gesellschaft, Vol. XXXII, pp. 99-112; Vol. XXXVII, pp. 457-8, Leipzig, 1878-83. 7. H. Jocobi, Berlin, 1881 : Das guantitatsgestz in den Prakritsprachen (Kuhn's Zeitschrift fur vergleichende Sprachfors chung, Vol. XXXV, pp. 292-98) 8. R.F. Pavolini Rome, 1872 : Le Novello Prakrit de Mandia edi Aglaladatta 9. Alfred C. Woolner, Lahore, 1917 : Introduction to Prakrit, two vols. 10. S. Jeorge Abrahma, Calcutta 1924 : Prakrit Dhatvadesa Of these, the Prakrit Grammar of Pischel and Introduction to Prakrit of woolner became more and more popular, Some scholars then worked on a particular Prakrit dialect. For instance: 1) Maharashtri and Ardhamagadhi-Weber, (2) Ardhamagadhi Adverd Mullar, (3) Maharashtri-H. Jacobi, (4) Short Introduction to the ordinary Prakrit of the Sanskrit Dramas with a list of Common irregular Prakrit words-Cowell, London, 1875,5) Elemen. tarbuch der Saurasepi-Schmidt, Hannover, 1924.6) Materialen Zur Kenntris des Apabhramsa --Pischel, Gottingen, 1902,7) Ein Nachtrag Zur Grammatik der Prakrit sprachen-Pischel, Berlin 1902. Our Indian scholars have also prepared some Prakrit grammars based on the original texts. Their important works may be mentioned here : 1. Rishikesh Shastri, Calcutta, : Prakrit Vyakarana in Sanskrit 1883 with English translation 2. Banarasidas Lohore, 1933 : Prakrit Praveshika (Hindi trans lation of Woolner's Introduction to Prakrit) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 ?S 3. Bechardas Dosi, Ahmedabad, Prakrit Vyakarana in Gujarati 1925 which was translated into Hindi by Sadhvi Suvrata and published by Motilal Banarasidas, in 1968 4. P.L. Vaidya, Poona, 1934 A Mannual of Ardhamagadhi 5. Banarasidas, Lahore 1923 Ardhamagadhi Reader 6. A M. Ghatage, Kolhapur 1951 Introduction to Ardhamagadhi which deals with the developmen. tal stages into Prakrit linguistically 7. D.C. Sarakar, Calcutta Grammar of the Prakrit Languages 8. MA Mahindale, Poona, 1948 Historical Grammer of Inscriptio pal Prakrits 9. Tagare, Poona 1943 Historical Grammer of Apabh ramsa 10. Davane, Poona, 1959 (i) Nominal Composition in Middle Indo-Aryan 11. Do Calcutta, 1953 (ii) Comparative Syntax of Middle Indo-Aryan 12. Sarayu Prasad Agrawal, Prakrit Vyakara na Varanasi 1960 13. Prabodh Pandit, Varanasi, 1950 Prakrit Bhasha 14, Madhusudan Prasad Mis ara, Prakrit Vyakarana Varanasi 1960 15. Sukumar Sen, Linguistic Comperative Grammar of Indo Society 1960, Lokabharati Aryan which was Hindi translaPrakashan, Allahabad, 1969 ted in 1969 "Tulanatmaka Pali. Prakrit-Apabbrmasa Vyakarana 16. S.M. Katre, Bombay, 1945 Prakrit languages and their conJaipur, 1972 tribution to Indian Culture. Hindi Version "Prakrit Bhasaen aur Bharatiya Samskrti men unaka Avadana 17. Nemichandra Shastri, (i) Abhinava Prakrita Vyakarana Varanasi 1931 (ii) Prakrit Bhasha aura Sahitya ka Alocanatmaka Itihasa 18. Devendra Kumar Jain Apabbramsa Vyakarana Varanasi 1955 19. Devendra Kumar Shastri Apabhramsa Bhasa aur Sahitya Delhi 1966 20. Komal Jain, Varanasi, 1964 Prakrit Praveshika on the basis of Wolner's Introduction of Prakrit Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 21. Shrivastava Virendra, Patna, 1964 4. Comparetive Studies in Prakrits Along with general studies the scholars worked on the Prakrits with a comparative approach. They wrote books and papers as follows: 1. H. Jacobi, Berlin, 1877 Berlin, 1879 Berlin, 1881 Berlin, 1883 Leipzig, 1893 Gutersloh, 1887 2. S. Goldschmidt Berlin, 1881-1885 TULSI-PRAJŇA Apabhramsa Bhasa ka Adhyayana Ueber Vocaleinschub und Vocalisirung des Y in Pali and Prakrit (Kuhn's Zeitschrift fur Vergleichends Sprachfor Schung, Vol. XXIII, pp. 594-599) (ii) Uber den clocka in Pali and Prakrit (ibid). Vol. XXIV, pp. 610-614. (iii) Zur genesis der Prakritsprabhen ibid. Vol. XXV. pp. 603-609) (iv) Noch einmal das Prakritische guantitatsgesetz (ibid. XXV pp. 314-360) (v) Uber die Betonung in Klassischen Sanskrit und chen Morgenlandischen Cesellschaft, Vol. XLVII, 574-582) (vi) Ueber unregeimassige passiva in Prakrit (ibid. ZEVSS. Vol. XXX. VIII, pp. 249-256) (i) Prakritische miscellen (Kuhh's Zeitschrift fur vergleichende Sprachforschung, Vol. XXV. pp. 436-438. (ii) ibid. pp. 610-617. (iii) ibid. Vol. XXVI. pp. 103-112; (iv) ibid. 327-328 (v) ibid. Vol. XXVII, p. 336. some Pali and Jain Prakrit words (The academy, 1892, pp. 217-18, 242-3; 318 Vararuci Und Hemachandra Der Akzent des Prakrit (Kuhn's Zeitschrift fur Vergleichende Sprachforschung, Vol, XXXIV, pp. 568-576; 3. R. Morris, London, 1882 (i) Notes on 4. Th. Bloch, Gutersloh, 1893 5. R. Pischel, Gutersloh, 1896-7 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 37 (ii) ibid. Vol. XXXN. pp. 140-150 6. Z. Wikrama Singhc Bombay, Index of all the Prakrit words 1905-1909 occurring in Pischel's Grammatic der Prakrit-Sprachen" (Indian Antiquary, Vol. XXXIV) 7. G. A Grierson, Calcutta, (i) Paisachi and Chulika paisachi 1925 (J.A Lii, 1923, pp. 161-167) (ii) The Eastern School of Prakrit (Sir Ashutosh Mukherji Silver Jublee Volumes, Vol. III, pt. II, Orientals, Calcutta 1925, pp. 119-141 8. W.E. Clerk Magadhi and Ardhamagadhi (JAOS, pp. 44,1925) 9. J. Block Ashoka's et la Magadhi (BSOS,W) 10. Alsdorf BSOS, 1939 Vasudevahindi, a specimen of Arctric Jaina Maharashtri 1. Crierson JRAS, 1921 (i) Rajashekhar on the Home of Paisachi IA. 1923 (ii) Paisachi and Culika paisachi 12. Know, ZDMG, 1910 Home of Paisachi (ZDMG. 1910) 13. Grierson, JRAS. 1918 Prakrit Bibhasha 14. F.B.J. Kuiper I.I.J.I I. 1957 Paisachi fragment of the Kuvalaya. mala 15. P.D. Gune, Poona, 1919 Introduction to Comparative Philology 16. P.V. Vapat, IHQ. Vol. 1928 The relation between Pali and Ardhamagadhi 5. Prakrita Dialects used in Sanskrit Dramas According to Sanskrit tradition, women children and downtrodden classes speak in Prakrits in the Dramas. Therefore various types of Prakrits can be viewed in Sanskrit dramatic works. E.B. Çowell is perhaps the first scholar who drew the attantion of the academic world and wrote a paper on "A Short Introduction of the ordinary Prakrit of the Sanskrit dramas (London, 1875). Then while editing the Sakuntalam of Kalidasa, Pischel explained its Prakrits. Printz's "Ehasa's Prakrits (Frankfut, A.M. 1921) and Luder's "The Fragments of Asvaghosa's Dramas (Berlin, 1911) may also may be mentioned in this context. Ds. Keith proposed a good study of the Prakrits used in the Sanskrit Dramas in his learned book “Sanskrit Drama". He informs that Bhasa and Asvaghosa used Sauraseni. Ma gadhi and Ardba Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA magadhi. It is perhaps the Mrcchakatikam which uses the highest numbers of Prakrits. Kalidasa applies in his dramas ordinarily Sauraseni in prose and Maharashtri in verses. Bhavabhuti exercises Sauraseni in Uttararamacaritam; Vishakhadatta emploies Sauraseni and Maharashtri in Mudraraksasa; Bhattanarayan avails Sauraseni and Magadhi in Venisamhara and Rajasekhar disposes Sauraseni in Karpuramanjari. Levi and Grill also worked in the field, The Indian scholars also discussed the Prakrits of Sanskrit dramas. S.B. Pandit analyses the Prakrits in the introduction Vikramorvasiya (BSS. 1889); Godavole did it in the introduction Mrcchakatikam (BSS. 1896), Telanga syathesised it in Mthe introduction to Mudraraksasa (1900) and R.G. Bhandarakar considered it in the introduction to Malatimadhava (1905). Ganapati Shastri (1910 1915) and Sukhatankar (JAOS. 40-42) worked on the dramas of Bhasa, Todaramall studied the Prakrits of Bhavabhuti's Mahavira. caritam, (Oxford, 1928), Dalal and Velankar analysed the Prakrits of Maharajavijaya (Baroda, 1918) and Vikramorvasiya (Sahitya Akadami, 1961) respectively. They have explained the Magadhi Sauraseni, Paisaci and other kinds of Prakrits used in these Sanskrit dramas. 38 Through the survey of researces done in the field of Prakrit grammars it may be observed that our Indian scholars got the inspiration and light to work in the field from western scholars. They have now their own capability and capacity to conduct the researches on their own accord. Let us hope to unearth the hidden treasures of Prakrit language and literature and contribute in enriching our culture. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXII, No. 1 39 Notes and References : 1. Prakrtih Sanskrtam, tatra bhavam tata agatam va Prakrtam Hemachandra prakrtasya tu sarva meva Sanskrtam yonih-Vasudeva etc. prakrteti sakalajagajjantunam vyakaranadibhiranahitasamskarah sa hajovacanavya parah prakrtih tatra bhava va prakrtam prak purvam kstam prakkstam. Namisadhu. Yap yonih kila sanskrtasya sudrsam jihvasu yadmodate ********* Rajasekhara 3. Achārāņga, 2.4.1.035; Sthānāņga, 8; Anuyogadvarasutra, 12-5, 130 etc. 4. prakrit Saravasya, 1.62 X. strata fe À GAUR #1 OTTEIT—ET. KITTENTAT fa, p. 182 6. Pischel, p. 87 9. T a. verses 2-5 8. Pischel--ibid p, 86 -Dr. Bhagchand Jain 'Bhaskar Head of the Department of Pali and Prakrit, Nagpur University, New Extension Area, Sadar, NAGPUR-440001 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कर्मवाद' विशेषांक पर प्रतिक्रियाएं तुलसी प्रज्ञा के कर्मवाद-विशेषांक पर सुधी पाठकों की प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई हैं। इन प्रतिक्रियाओं में कुछ ऐसे महानुभावों से हैं जो 'तुलसी प्रज्ञा' से चिरकाल से जुड़ें हैं । केवल चार प्रतिक्रियाएं प्रकाशित की जा रही हैं। १. ७८ वर्षीय सुधी पाठक शां० के० शहा (सांगली) लिखते हैं-"यह अंक हमारे जैसे सामान्य श्रावकों के लिए एक बड़ा उपहार है। सिर्फ यह अंक मनःपूर्वक पढ़ा जाय तो कर्म-सिद्धान्त की पूर्ण माहिती हो जाएगी। यह कृपा के लिए सर्व सामान्य श्रावकों के तरफ से आपको धन्यवाद ।" २. सेवा-निवृत प्रधानाचार्य रामस्वरूप सोनी (डीडवाना) लिखते हैं ---"सामान्य विषयों पर प्रकाशित पत्र-पत्रिकाएं कुकुरमत्ते के छत्ते की भांति यत्र तत्र बिखरी पड़ी हैं जिनके सम्पादक भी भारी मात्रा में उपलब्ध होते रहते हैं, परन्तु 'तुलसी प्रज्ञा' जैसी त्रैमासिक पत्रिका टेक्निकल विषयो पर जिस शान से अपने उद्देश्यों को सार्थक कर रही है और पत्रकारिता में नूतन आयाम स्थापित कर रही है, उससे आपकी संपादन कला में चार चांद लग रहे हैं।" ३. वयोवृद्ध जैन दर्शन मर्मज्ञ पं० अमृतलालजी जैन (वाराणसी) लिखते हैं : "आपकी विद्वत्ता आपकी याद दिला रही है और इस जीवन के अन्त तक दिलाती ही रहेगी। आप अपने ढंग के एक ही विद्वान् हैं - यह मैंने वहां १३३ वर्ष रहकर अनुभव किया।" ४. जैन केन्द्र, रीवा के निदेशक, डॉ० नंदलाल जैन लिखते हैं ---"यह अंक कर्मवाद के विविध पक्षों पर अच्छा प्रकाश डालता है। कर्मवाद के संबंध में ऐसी महत्त्व पूर्ण सामग्री के तुलसी प्रज्ञा में प्रकाशन के लिए बधाई स्वीकार करें।" ---प्राप्त पत्रों से संकलित Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India : 28340/75 TULSI-PRAJNA 1996-97 Vol. XXII Annual Subs. Rs 60/ ____Life Membership Rs. 600/प्रकाशक-संपादक : डॉ० परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया। For Private & Personal use only