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________________ इनकी बोलियों में इन्दो-आर्यान् तथा ईरानी भाषा का प्रभाव था। उनका मानना है कि 'शवति' वास्तव में एक संस्कृत क्रियापद नहीं बल्कि यह एक ईरानीय भाषा का क्रियापद है : Savati does not occur in sanskrit, but it is a good Eranian word. There is the old persian Siyav-i and the Avesta v Sav. Savaite to go if persian Sudam, Skt. cyav. In their words Kambajos. a barbairous tribe of North-western India cither Spoke Sanskrit with an infusion of Eranian words to which. They gave Indian inblexions, or else spoke a language partly Indo-Aryan and partlyEranian' (The language of the Kambojas). देशभेद के कारण उपर्युक्त धातु जिस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रदेश में पृथक्-पृथक् रूप में प्रयुक्त होता था वैसे ही सम्भवतः इस निबन्ध में विचार्य कृ का असामञ्जस्य रूप देश और काल के कारण ही अलग प्रतीत होता है। २. वैदिक संस्कृत में कू से निष्पन्न कृणु/कुरु अंग की स्थिति धातुपाठ के अनुसार स्वादि और तनादि गण में कृ धातु पढ़ा गया है । स्वादिगणीय कृ (५.१२५३.३) हिंसा तथा तनादिगणीय कृ (डुकृत्र ८.१४७२.३) करना अर्थ में प्रयोग होते हैं। वेद में स्वादिगणीय कृ का जितने वार प्रयोग हुआ है। तदनुरूप तनादिगणीय कृ का नहीं हुआ है। ऋग्वेद में कृणु अंग से बने क्रियापदों का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है । इस वेद के दशम मण्डल में कुरु/करो अंग से बने कुर्म ऋ १०.५१.७ और कुरु ऋ १०.३२.९, ३३.४ दो पद पाए जाते हैं। लेकिन अथर्ववेद (अ. वे.) में इसकी संख्या में वृद्धि हुई है। ____ मैकडोनल के अनुसार अ. वे. में कृणु से बने रूप कुरु/करो से बने क्रियापदों की अपेक्षा छः गुना अधिक है : "But the froms made from Kong are still six times as common in the A.V. as those from karo, kuru, which are the only seems used in Brahmana."" वास्तव में अ.वे. (शौनक, पप्पलाद) में कृणु से बने रूप कुरु/करो से बने रूपों की अपेक्षा दसगुना अधिक, मैंने इस वेद के पैप्पलाद (प) और शौनक (शौ) शाखा में कृणु अङ्ग से बने लगभग ७७५ (पं. ४००, शौ. ३७५) से कुछ अधिक रूप देखे हैं और कुरु/करो अङ्ग से लगभग ७५ पद पाये जाते हैं। जिनका अनुपात दस है। इस प्रकार ब्राह्मण और भारण्यक में स्वादि । कृ (कुरु/करो) धातु का प्रयोग ब्राह्मण और आरण्यक में अपेक्षाकृत अधिक हो गया है एवं उपनिषदों में इसका व्यवहार और भी घट गया है परन्तु कृ (कुरु/करो) धातु का प्रयोग ब्राह्मण और आरण्यक में अधिक हो गया है। स्वादि अङ्ग से बने हुए क्रियापद ब्राह्मण, आरण्यक में लगभग २० बार प्रयुक्त हुए हैं जबकि करो/कुरु अङ्ग से बने रूपों की संख्या १२५० से अधिक है । उपनिषदों में कृणु अङ्ग से बने पदों की संख्या मात्र आठ है और कुरु/करो १२५ से अधिक होते हैं। तुलसी प्रमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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