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वैदिक क्रियापद : एक विवेचन
सुबोध कुमार नन्द
संस्कृत भाषा की प्रमुख दो धाराओं-वैदिक तथा लौकिक संस्कृत में एक मौलिकता होते हुए भी दोनों के शन्दगठन, वाक्यसंयोजन आदि में भन्तर दिखाई पड़ता है।
यह अन्तर साधारणतः परम्परागत शाकल, आत्रेय, शाकटायन, यास्क, पाणिनि, पतञ्जलि आदि भारतीय विद्वानों की विचारधारा तथा बिनो, ओलउमवर्ग, ह्वाकरनगेल, ग्रासमैन, मैकडोनल, रनु, टोफमैन् प्रभृति ऊनविंश शताब्दी के प्रारम्भ में प्रचलित पश्चिमों की नई दृष्टि के कारण ही अधिक स्पष्ट हुआ है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मुख्यतः कृ धातु से निष्पन्न पदों पर तुलनात्मक चर्चा होगी।
क्रिया, किसी भी भाषा का एक महत्त्वपूर्ण अंग होती है। क्रिया भाषा की धुरी है। इसके बिना वाक्य अधूरा तो रहता ही है उसके साथ-साथ पाठकों के लिए वाक्यार्थ बोध भी दुलह हो जाता है। क्रियापद या आख्यातपद में मुख्यत: भाव की प्रधानता रहती है : भावप्रधानमाख्यातम् (नि. १.१)। संस्कृत-साहित्य में क्रिया की भूमिका सर्वदैव गुरुत्वपूर्ण है । क्योंकि संस्कृत में अधिकांश शब्द किसी न किसी प्रकार क्रिया के साथ जुड़े हुए हैं।
क्रिया या क्रियापद केवल वाक्य संरचना का मुख्य आधार नहीं होते हैं अपितु यदि वैदिक और लौकिक संस्कृत का सूक्ष्मतया अध्ययन किया जाए तो देशभेद से भाषा का अन्तर या भाषा-विकास में इनका गुरुत्व उपलब्ध किया जा सकता है। आचार्य पतञ्जलि शव् (१.७२५ प) गती धातु के प्रयोग पर कहते हैं
"शवति गतिकर्मा कम्बोजेष्वेव भाषितो भवति ।
विकारएनमार्या भाषन्ते शव इति ॥" अर्थात् शिव धातु कम्बोज देश में गति के अर्थ में प्रयोग होता है किन्तु आर्य लोग इसका विकार मृतशरीर (शव) के अर्थ में' व्यवहार करते हैं। महाभाष्यकार का यह कथन यास्क (नि. २.२) वचन का पुनर्विश्लेषण मात्र है। वी.ए. स्मिथ एवं चालर्स इलियट के अनुसार प्राचीन कम्बोज देश तिब्बत या हिन्दुकुश प्रदेश के अन्तर्गत में था और वहां की भाषा ईरानी थी। गोयर्सन पतञ्जलि के कथन के आधार पर कम्बोज देश को उत्तर-पश्चिम भारत का एक जनपद मानते हैं। तदनुसार ये लोग जनजाति थे और ये संस्कृत-ईरानी मिश्र एक भाषा का व्यवहार करते थे अथवा
बण्ड २२, अंक १
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