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________________ आचार्य पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' के आधार पर एक लकार शैली में दर्शाया है जबकि आधुनिक विद्वान् द्विलकारीय पद्धति का प्रयोग करके इनका विचार, विवेचन करते हैं अर्थात् सायणादि पण्डितों ने एक पद का समाधान माधारणतया लङादि दस लकारों में से किसी एक लकार में करने का प्रयास किया है। परन्तु आधुनिक विद्वान् एक क्रियापद विवेचन दो लकारों में करते हैं जिसमें एक कालवाचक और दूसरा क्रियाप्रकार वाचक को धोतित करता है। वेदों में प्रयुक्त क्रियापदों का स्वरूप तथा उन पर पाश्चात्य अनुचिन्ता को देखकर इतना कहा जा सकता है कि साधारणतया तीनों वर्ग (Present, Perfect, Aorist system) तथा लुङ वर्ग के साधारण क्रियाप्रकारवाची (Future Indective) के पदों में प्रायतः मतान्तर दिखाई नहीं पड़ता है। परन्तु विचारों में असमता लेट, वि.मू. (पाश्चात्य Injunctive, भारतीय अड़ागम रहित लङ /लुङ) तथा अ-लुङ आदि पदों के साधन में मिलती है। त्रयोदश-चतुर्दश शताब्दी से प्रचलित प्राचीन वेद व्याख्यान और ऊनविंश शताब्दी के आधनिक विचार-विवेचन चाहे यह वेदों का गूढार्थ हो या भाषातात्त्विक विश्लेषण हो उसके विवेचन में अन्तर होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है और इसीलिए सायण जैसे भाष्यकार के भाष्य में वैदिक पदों का अधिकतर समाधान व्यत्यय नियम के आधार से ही हुआ है। फिर भी, वेदों के क्रियापदों का गठनात्मक स्वरूप जानने के लिए आधुनिक विचार पद्धति अधिक ग्रहणीय लगती है। संदर्भ : १. महाभाष्य पस्पशा (निर्णयसागर प्रेस-बाम्वे का पुनः मुद्रण) वाराणसी १९८७, पृ० ७१ 2. Early History of India, V. Smith, 4th.ed. 1957, P. 193 3. The Journal of Roval Asiatic Society. Voll-II 1911. p. 801-2 4. Vedic Grammar, for student, macdonell, 1916, P. 145, Ft No-3 5. Vedic Grammar, macdonell, 1910 ६. इसी विषय पर कर्ल होफमैन का Vedishe namen-Kapva Auf satz zur Indoiranistik, Bond-I wiesbaden, 1975 P. 15 भी द्रष्टव्य है। तथा अन्य ग्रन्थ (द्र. प्रबन्ध में मैकडोनल, हिट्नी आदि नाम के पश्चात् जो संकेत है वह उनके द्वारा रचित ग्रंथों का प्रकाशन काल और पंक्ति/पृष्ठ का द्योतक ७. अथर्ववेद, शौनकीय, सं. विश्वबन्धु १९६०-६४ , पप्पलादीय , सं. डॉ० दीपक भट्टाचार्य, यन्त्रस्थ, एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता ८. ऋग्वेद (सायणभाष्य) सं. सोनटक्के, पूना १९३३-५१ ९. महाभाष्य रोहतक १९६१-६४ १०. मुग्धबोधं व्याकरम्, सं. देवेन्द्र सेनगुप्त, बं० सन् १३२३ साल, पृ. ६८८ २२ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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