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अंश था । इस समय भी जब सांचोरवासी जोधपुर या उसके उस पार से लौटता है, तो वह पूछने पर बतायेगा कि 'मारवाड़' गया था । दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि सांचोर निवासी स्वयम् को आज भी मारवाड़ में होना नहीं मानता । ऐसा इसलिये है कि सांचोर एक लम्बे अर्से तक गुजरात में रहा । सोमेश्वर ने अपने ग्रन्थ 'सुरथोत्सव' में मूलराज को 'गुर्जर क्षिति-भुज' लिखते हुए उसे चौलुक्य - भूपाल कुल में होना बताया है । स्पष्ट है कि मूलराज चौलुक्य वंश का था और गुर्जर प्रदेश पर राज्य करता था । इससे यह भी साफ हो जाता है कि गुजरात नाम इसलिये नहीं पड़ा कि इसका चिरकाल तक सम्पर्क चौलुक्य वंश से था ।
डॉ० मजूमदार ने चौलुक्यों के पुरखों के संबंध में लिखा है, " सम्भवतः राजि के पितृ मधुपद्म नाम से पुकारे जाने वाले नगर के अल्प- प्रभावी राजा थे । (डॉ० ) एम० एम० मिराशी का मत है कि यह मधुपद्म, मधुवेणि ( आधुनिक मथुवर) नदी, जो बेटवा की सहायक है, पर स्थित था। लेकिन यह पहिचान कई कठिनाइयों से घिरी हुई है और प्रयोग के लिये हम कल्पना करें कि मथुरा ही मधुपद्म था । इस प्रकार हम स्थिर करना चाहेंगे कि राजि गुजरात के बाहर, संभवतः मथुरा से आया था । "
हता नैणसी ने टोडा, (टोंक जिला) को सोलंकियों (चौलुक्यों) का आदिस्थान बताया है। महाकवि बांकीदासजी ने भी टोंक-टोडा को सोलंकियों का वतन कहा है ।" सोलंकियों के एक चौपड़ा (पुस्तक) में सोलंकियों की पहली राजधानी सौरमगढ़ (सामनगढ) और फिर संवत्सर ८८४ में टोंक- टोडा में उनका राज्य लिखा है ।" टोंक जिला में सोलंकियों का प्राचीनतम साक्ष्य है- "देवली से १२ मील के करीब, (पूर्वी) बनास नदी के किनारे एक प्राचीन ऐतिहासिक गांव का राजमहल जो पूर्व जयपुर राज्य के दूनी ठिकाना में सम्मिलित था । इस जगह सोलंकी राजपूतों द्वारा बनाया हुआ एक प्राचीन किला भी है ।"
मधूपद्म के सोलंकी
श्री जयसिंह सूरि ने सोलंकियों का मूल स्थान 'मधूपद्म' नामक नगर लिखा है और वहां चालुक्य वंश के अनेकों राजाओं (भूधनाघनाः ) के बाद सिंह विक्रम क्षितिभृत् के होने की सूचना दी है जिसने महेश्वर के प्रसाद से सुवर्णसिद्धि पाई और पृथ्वी को अनृण ( कर मुक्त ) करके अपना संवत्सर चलाया। उसके उत्तराधिकारी ८५ राजाओं के पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम राम की भांति चालुक्य वंश में राजा राम हुए जिसकी प्रतापाग्नि को दृढ़ शक वंश के राजा भी सहन नहीं कर सके और उसके पुत्र सहजराम ने तीन लाख अश्वों के स्वामी शकपति को मारकर कीर्ति पाई ---
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य: ( चुलुक्यः ) सांग्रामिककर्म कर्मठमतिर्दैत्यानिव प्राणिनां । रौद्रोपद्रवकारिणोऽरिनिकरानुज्जास्य तीक्ष्णासिना || निर्मायाप्यकुतो भयं कुवलयं स्वराज्यवैहासिकश्रीकं राज्यमतिष्ठियत् किल मधूपद्माभिधे पत्तने ॥
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तुलसी प्रज्ञा
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