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सम्पादकीय
'शौरसेनी' कहने का आग्रह क्यों ?
पिछले दिनों दिल्ली से प्रकाशित 'प्राकृत विद्या' (७.४ अंक) में उद्घोषणा की गई है कि "श्रमण-साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के 'तिपिटक' आदि हों, श्वेताम्बरों के 'आचारांग सूत्र', 'दशवैकालिक सूत्र' आदि हों अथवा दिगम्बरों के 'षट्खण्डागम-सूत्र', 'समयसार' आदि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे।"
"शौरसेनी-प्राकृत ही प्राचीनकाल में सामान्यतः 'प्राकृत'-संज्ञा से व्यवहृत होती थी। न केवल नाट्यशास्त्र अपितु प्राचीन आगम-साहित्य की भाषा भी शौरसेनी प्राकृत ही थी।"
इस उद्घोणा के लिए कोई आधार अथवा प्रमाण आदि प्रस्तुत नहीं किए गए। मार्कण्डेय के 'प्राकृत-सर्वस्व' से कुछ सूत्रों को कतिपय निदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया गया है कि लोक भाषाओं पर शौरसेनी का प्रभाव रहा है किन्तु कवीन्द्र मार्कण्डेय साधारणतया (ईसवी सन् में १४९०-१५६५) सोहलवीं सदी के माने जाते हैं। उनके द्वारा दी गई व्याकरण की व्यवस्थाएं आगम और पिटक ग्रंथों के लिखे जाने के बहत अधिक बाद के भाषा-प्रयोगों के लिए ही मान्य हो सकती हैं।
खण्ड २२, अंक ४
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