SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३) अविमारक में 'किन्तु खलु' इस संस्कृत का प्राकृत रूप विभिन्न रूप में मिलता है। विभिन्न पात्र विभिन्न प्राकृतों का प्रयोग करते हैं, इसलिए उन-उन पात्रों की ध्वनिगत विसंगतियों के बारे में कोई आश्चर्य नहीं होता। परन्तु एक ही पात्र अमुक अन्तर पर अलग-अलग प्रकार से उच्चारण करें, तो अवश्य ही आश्चर्य होगा। जैसाकि धात्री के संवादों में हम देख सकते हैं। १. धात्री-किण्णु हु भवे ॥ -अंक-२ २. धात्री-अहो अणवत्था किदन्तस्स, जं राअदारिआ पढम महाराएण सोदीरराएण तं विहणुसेणं उद्दिसिअ वरिदा । किणु खु एवं भविस्सदि । -अंक-६, प्रवेशक ३. धात्री---किण्णु खु भवे ॥ __---अंक-६ धात्री के उपर्युक्त तीन संवादों में प्रथम में 'खलु' का प्राकृत 'हु' तथा अन्य में 'खु' है, जो स्पष्ट रूप से ही अव्ययों की प्राकृत ध्वनियों में विसंगति का सूचक है । दूसरे और तीसरे संवाद में अनुस्वार और परसवर्ण रूप विसंगति भी है; पर उससे उच्चारण में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता, अतः उसकी ओर ध्यान देना उचित नहीं समझते । मात्र धात्री के संवादों में ही नहीं नलिनिका के संवादों में भी इसी प्रकार की विसंगति दिखाई देती हैं । देखिए१. नलिनिका -किंणु खु ईदिसो तादिसेहि गुणविसेसेहि अकुलीणो भवे ॥ -अंक-२ २. नलिनिका -एआइणि भट्टिदारि उज्झिअ कहं गमिस्स । ण हुएत्थ की विजणो। ३. नलिनिका-अज्ज किदसङ्केदा विभ'। किण्णु हु एसा मम मादा वसुमित्ताए सह किं वि चिन्तेदि ।""०॥ -अंक-६ नलिनिका की अन्य अनेक उक्तियों में 'खलु' के लिए 'ख' ध्वनि का प्रयोग हुआ है; पर यहां उपर्युक्त दो स्थानों में 'हु' ध्वनि है । ___सामान्य रूप से यह समझा जाता है कि 'खु' यह प्राचीन रूप है; जबकि 'हु' यह परवर्ती है। तो प्रश्न यह है कि एक ही पात्र की उक्ति में क्वचित् प्राचीन और क्वचित् परवर्ती पाठ कैसे आ गया ? संभव है यह लिपि-दोष से या संपादकों की असावधानी से ऐसा हुआ होगा। (४) इसी परंपरा में आगे देखें तो विदूषक की उक्तियों में सं. 'यदि' के प्राकृत में 'जइ' तथा 'जदि' दो रूप प्रयुक्त हुए हैं। 'जदि' यह शौरसेनी-मागधी में प्रयुक्त होने वाला रूप है और 'जइ' महाराष्ट्री में। इस दृष्टि से देखें तो एक ही विदूषक का पात्र कभी शोरसेनी और कभी महाराष्ट्री भाषा का प्रयोग करता हुआ आश्चर्य तुलसी प्रशा ३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy