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________________ कारक लगता है । जैसे कि १. विषक- -जइ एवं किदो णिच्चओ संपदि णअरं पविसामो । तहि मम अत्थि मित्तो । तस्स आवासे कालं पडिवाला ॥ २. विदूषक - हा हा कहि कहि तत्तभवं । भो वअस्स ! सावेण साविदो सि, जदि अत्ताणं छादेसि ॥ ३. विदूषक - आम भोदि ! जण्णोपवीदेण ब्रह्मणो चीवरेण रत्तपडो । जदि वत्थं अवणेमि समणओ होमि ॥ ४. विदूषक - जइ भोअणं देसि, तदो गच्छामि अहं । इटं आअन्तुस्स भोअणदाणं ॥ इसी प्रकार स्त्री पात्र धात्री के एक स्थान पर तो एक ही संवाद है जैसे संवाद में भी विसंगति दृष्टिगोचर जिसमें दो भिन्न-भिन्न ध्वनियां अंक-४ १. घात्री — अहो सङ्कदा कय्यस्स । जइ एवं करीअदि, राअऊलं दूसिअं होइ । जदि ण करीअदि, अवस्सं सा विवज्जइ । मए अणेएहि उवाएहि विआरिदं च । ॥ - अंक - २ - अंक - ५ — अंक- ५ होती है । मिलती हैं । जबकि निम्न संवाद में 'जदि' रूप ही मिलता है । २. धात्री - जदि सी सन्देहो णत्थि को अण्णो अदिरितगुणो जामादुओ भवे ॥ " अंक - २ Jain Education International इस प्रकार 'यदि' अव्यय के प्राकृत रूप में भी असंगतियां मिलती है। प्रो. देवधर तथा प्रो. रामजी उपाध्याय के संस्करणों में भी ये पूर्वकथित विसंगति वाले रूप मिलते हैं। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने भी संशोधन नहीं किया । ( ५ ) इसी तरह संस्कृत 'च' और 'एव' के प्राकृत रूपों के विषय में भी कुछ स्थानों पर विसंगतियां दिखाई पड़ती हैं। यद्यपि इन दोनों अव्ययों के क्रमशः 'अ' अथवा 'च' और 'एव' अथवा 'एव्व' ऐसे दो विभिन्न रूप मान्य होने से विसंगति-दोष माना नहीं जा सकता, तथापि जब एक ही पात्र एक ही उक्ति में दो भिन्न-भिन्न रूपों का प्रयोग करें, तो वह विसंगति ही मानी जानी चाहिए। यहां मात्र एक ही उदाहरण देखेंगे नलिका - सच्चो खु लोभप्पवादो बहुविग्धाणि सुहाणि ति । एसो बु खण्ड २२, अंक १ लिनिका - भणिदं हि मम मादाए - गच्छ एवं वुत्तन्तं भट्टिदारिआए कहेहि । ... अह असा वि मं पेक्खन्ती सव्वं विस्सत्थं ण भणादि '॥ For Private & Personal Use Only - अंक - ३ ३३ www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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