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________________ भट्टिदारिआ च लज्जाभअमअणेहि अभितालिअमाणा सन्दावेण मुद्धा अवअदचेदण विअ संवत्ता ।। -अंक-४ इतना ही नहीं धात्री के जिस एक ही संवाद में 'जदि' और 'जइ' जैसे रूप हम देख चुके हैं; उस संवाद में ही एक बार 'च' ध्वनि है तो एक बार 'अ'। प्राकृत में अव्यय अनुस्वार के बाद 'च' मिलता है, पर यहां तो शब्दरूप के बाद भी 'च' अव्यय आया है, जो विचित्र सा लगता है। इस प्रकार 'अविमारकम्' में अव्ययों के प्राकृत रूपों में एकरूपता नहीं है। जब त्रिवेन्द्रम् नाटकों को रंगावृत्ति भी कहा जाता है तब यह और भी आश्चर्यकारक बात हो जाती है कि एक ही पात्र थोड़े-थोड़े अन्तर में अलग-अलग रूपों का उच्चारण करें। हमने तो यहां मात्र अव्ययों का ही अध्ययन प्रस्तुत किया है, वैसे अन्य प्रयोगों में भी ऐसी विसंगतियां दिखाई पड़ती हैं । जिन विद्वानों ने त्रिवेन्द्रम् नाटकों की प्राकृत को संशोधित किया है और उसके अनुसार भासनाटकचक्रम् का संपादन किया है उन दो प्रसिद्ध सम्पादकों के सम्पादित अंशों में भी उपर्युक्त विसंगतियां मिल रही हैं। इससे ऐसा लगता है कि उनका परिमार्जन नहीं किया गया, या तो हो सकता है इस ओर सम्पादकों का ध्यान ही नहीं गया हो।" प्रो० उन्नी ने" इन नाटकों की कई अन्य हस्तलिखित पाण्डुलिपियों की सूचना दी है। उनके पाठों का मिलान करके कोई निष्कर्ष निकालना भविष्य में संभव बनेगा, परन्तु आज उपलब्ध सम्पादनों में संशोधन का उद्घोष होने के बाद भी ये विसंगतियां चल रही हैं तब हमारा निवेदन है कि त्रिवेन्द्रम् नाटकों का जब भी समीक्षित आवृत्ति के रूप में सम्पादन हो, तो इन विसंगतियों को दूर करके सर्वत्र एक समान संगतिवाले रूपों का प्रयोग किया जाना चाहिए। हां, एक ही कृति में पात्र के भेद से प्राकृतभाषा में भेद हो सकते हैं यह अलग बात है। परन्तु एक ही पात्र की एक या अनेक उक्तियों मे भाषा की संगति रहे, यही उपयुक्त लगता है। सन्दर्भ : * अखिल भारतीय प्राच्य विद्या परिषद् के ३७वें अधिवेशन में (२६,२७,२८ दिसम्बर १९९४, रोहतक-हरियाणा) प्राकृत एण्ड जैनिज्म विभागान्तर्गत पढ़ा गया लेख । इस लेख के तैयार करने में प्रो० डॉ० के० आर० चन्द्र, अहमदाबाद का मूल्यवान् सहयोग प्राप्त हुआ है; तदर्थ मैं उनका आभारी हूं। ** प्राकृत में यद्यपि 'ल' ध्वनि नहीं है; पुनरपि प्रो. देवधर के पाठ के अनुसार हमने भी ऐसा ही लिखा है। १. द्रष्टव्य : Studies in Bhasa इस लेख में छ8 मुद्दे में 'On the Prakrit of the Dramas' इस शीर्षक के अन्तर्गत उपर्युक्त थीसिस का रीव्यू किया गया है-.. S.K. Suk-thankar Felicitation Volume (Vo. I-II PP 159-169). तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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