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२. हरिणिका-जेदु भट्टिदारिआ । भट्टिदारिए ! भट्टि भणादि-सम्पदि कीदिसी सीसवदेण त्ति । एवं वि ओसधं लिम्पेहि किल ।।
अंक-५ इन दोनों स्थानों में व्यंजन के पश्चात् 'वि' ध्वनि मिलती है। जबकि "पि' होना चाहिए था। यहां हरिणिका के संवाद में जो ‘एदं वि' प्रयोग है, उसकी संस्कृत छाया 'एतदपि' की गई है । अविमारक में इसके अतिरिक्त अन्य तीन स्थानों पर 'एदं पि' ऐसा नियमानुसार प्रयोग ही मिलता है; यह ध्यातव्य है ।
(२) संस्कृत 'अहमपि' की प्राकृत ध्वनियों में भी विसंगतियां हैं। खुद विदूषक अकेला ही कहीं 'अहं पि' बोलता है और कहीं 'अहं वि'। नीचे दिये गये विदूषक के विभिन्न संवादों से यह स्पष्ट प्रतीत होगा।
१. विदूषक-भो ! ण जाणन्ति अवस्थाविसेसं इस्सरपुत्ता णाम । 'अहं पि दाव बाह्मणपरिवादं परिहन्तो बह्मणकुलेसु परिभमिअ पच्छण्णो तत्तहोदो आवासं एव्व गच्छामि ।।
--अंक-२, प्रवेशक २. विदूषक --- चन्दिए ! चन्दिए ! कहिं कहिं चन्दिआ । ..."जाव अहं वि धावामि ।'।।
--अंक-२, प्रवेशक ३. विदूषक-तुमं दाव आमन्तणविप्पलद्धो विअ बह्मणो अहोरक्तं चिन्तेसि । अहं पि दाव दिअसे णअरं परिभमिअ अलद्धभोआ पाअडगणिआ विअ रत्ति पस्सदो सइदं आअच्छामि ॥
-अंक-२ ४. विदूषक-अहो तत्तहोदो सुगहीदणामहेअस्स सोवीरराअस्स अधण्णदा,...॥ कुमारं वा कुमारस्स सरीरं वा पेक्खिस्सामि दाव सव्वलो परिब्भमिअ ।..॥
----अंक-४ ५. विदूषक--अच्छरीअं अच्छरी । अहं पि दाव अदिस्सो। मम सरीरं अस्थिवा णत्थि वा । उच्छिठें करिस्सं । थु थु॥
-~-अंक-४ ६. विदूषक-भो ! णिच्चपरिचएण मं परिहससि । अपुवो जणो मम बुद्धि अजाणन्तो अहिअदरं पसंसेदि। अहं पि तं जाणिअ एदस्सि णअरे केण वि विस्सम्भं ण करेमि ।।
---अंक-५ ७. विदूषक-कहं रोदिदं आरद्धा। अलं अदिमत्तं सन्दावेण । अहव अहं वि रोदामि । ।
--अंक-५ __ उपर्युक्त सात स्थानों में से चार स्थानों पर 'अहं पि' का प्रयोग है और तीन स्थानों पर 'अहं वि' का प्रयोग है । इस प्रकार यहां भी स्पष्ट रूप से विसंगति दिखाई देती है।
खण्ड २२, अंक १
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