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उनकी ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने का विनम्र प्रयास किया है।
छ अङ्कों के 'अविमारकम्' नाटक में प्राकृतभाषा का काफी प्रयोग हुआ है । मात्र चौथे तथा छठे अंक को छोड़कर बाकी के अंकों में तो संस्कृत-प्राकृत दोनों समान रूप से प्रयुक्त हैं । यहां प्रकृतभाषा/प्राकृतभाषाओं में अनेक अव्यय पदों में ध्वनिविषयक असंगतियां बार-बार दिखाई देती हैं । तद्यथा-...
(१) जैसा कि पिशल महोदय ने लिखा है कि ध्वनिबल की हीनता के प्रभाव से अव्यय (जो अपने से पहले वर्ण को ध्वनि बलयुक्त कर देते हैं, तथा स्वयं बलहीन रहते हैं) बहुधा आरंभ के स्वर का लोप कर देते हैं। जब ये शब्द उक्त अव्ययरूप में नहीं आते तो प्रारंभिक स्वर बना रहता है। इस नियम के अनुसार अनुस्वार के बाद आने पर अपि' का 'पि' रूप हो जाता है और स्वर के बाद यह रूप 'वि' में परिणत हो जाता ।
यह नियम सभी प्राकृत भाषाओं में समान रूप से लागू होता है। इसके शिलालेख आदि के विविध स्थानों के उदाहरण भी पिशल महोदय ने दिए हैं। इस नियम के परिप्रेक्ष्य में 'अविमारकम्' पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि वहां यह नियम पूरी तरह से स्वीकृत नहीं हुआ है। उदाहरण के तौर पर प्रथम विदूषक की ही उक्तियां लें, तो----
(क) विदूषक-चन्दिए ! चन्दिए ! कहिं कहिं चन्दिआ। हा बञ्चिदो ह्मि । गण्डभेददासीए सीलं जाणन्तो वि अत्तणो भोअण विस्सम्भेण छलिदो लि। (परिक्रम्य) भोअणं वि अलिअं** चिन्तेमि । (अग्रतो विलोक्य) हन्त एसा धावइ ।""जाव अहं वि धावामि । ०। (अंक-२)
. विदूषक की उपर्युक्त एक ही उक्ति में तीन स्थानों पर 'अपि' के आदि स्वर 'अ' का लोप हुआ है और अवशिष्ट 'पि' का 'वि' में परिवर्तन हुआ है। परन्तु प्रचलित नियम के अनुसार 'जाणन्तो' इस स्वरान्त पद के बाद आने वाले 'पि' का 'वि' में ध्वनि-परिवर्तन ठीक है; पर 'भोअणं' तथा 'अहं' इन दो व्यंजनान्त पदों के बाद में भी 'वि' ध्वनि ही प्रयुक्त की गई है, जो उचित नहीं लगती।
(ख) अब मागधिका के भिन्न-भिन्न दो संवाद देखें। चौथे अंक के प्रारंभ में, प्रवेशक में निम्न संवाद है१. मागधिका-अहो परिजणस्स पमादो।
आसुय्योदरं पि ण किदा पासादरअणा""०॥ २. मागधिका-उम्मत्तिए ! णणु पुप्फ वि वासीअदि ।
यहां दोनों संवादों में अनुस्वार के बाद एक बार 'पि' ध्वनि है, तो दूसरी बार 'वि' ध्वनि है।
(ग) इसी प्रकार विभिन्न पात्रों के संवादों में भी विसंगतिया मिलती हैं। जैसे कि१. विलासिनी-तह एव भट्टिदारिआ भट्टिदार विणा खणमत्तं वि ण रमदि ।
-अंक-४, प्रवेशक
तुलसी प्रज्ञा
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