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________________ 'अविमारकम्' में प्रयुक्त प्राकृत-अव्ययपदों में ध्वनिविषयक असंगतियां ल कमलेशकुमार छ. चोकसी त्रिवेन्द्रम् नाटक जब से प्रकाश में आये हैं, तब से एक या दूसरे विवाद में फंसे रहे हैं । पक्ष-विपक्ष और समन्वयात्मक तर्क प्रस्तुत करके उन पर विविध समस्याओं के विषय में विचार होता रहा है । इसी परंपरा में इन नाटकों की प्राकृत भाषा के विषय में भी अनेक संशोधनात्मक कार्य हुए हैं । सन् १९१२ में इन त्रिवेन्द्रम् रूपकों का प्रकाशन हुआ। इसके थोड़े ही समय के बाद डॉ० विल्हम प्रिन्ट्स नामक जर्मन विद्वान् ने भास की प्राकृत भाषा को लेकर एक थीसिस लिखा, जो युनिवर्सिटी ऑफ फ्रेंकफर्ट में प्रस्तुत करने पर सन् १९१९ में स्वीकृत किया गया। परन्तु इसका प्रकाशन सन् १९२१ में हुआ । भास की प्राकृत के विषय में सबसे प्रथम संभवतः यही कार्य था। __ इस थीसिस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया है कि त्रिवेन्द्रम् नाटकों की प्राकृतभाषा बिना कोई मिश्रण के है । पर इस थीसिस का रीव्यू करते हुए प्रो० एस० के० सुकथंकर ने उपर्युक्त थीसिस में प्रस्थापित निष्कर्षों को अस्वीकार्य बताया है।' उधर प्रो० लोन्सी ने सन् १९१८ में तुलनात्मक अध्ययन के द्वारा ऐसा निष्कर्ष निकाला कि ये रूपक अश्वघोष के बाद के तथा कालिदास के पूर्व के हैं। तो प्रो० देवधर ने इन रूपकों का अध्ययन करके यह कहा कि इन रूपकों में आर्ष रूप तथा प्रशिष्ट काल खण्ड के रूप एक साथ प्रयुक्त हुए हैं । और ऐसे द्विविध रूप अन्य दक्षिणात्य रूपकों में भी (जैसे कि - मत्तविलास) दिखाई देते हैं । विदेशी विद्वानों के द्वारा जो संशोधन हुए उनका उतना लाभ नहीं हुआ, जितना होना चाहिए था। क्योंकि ये संशोधन होने पर भी संशोधन ही रह गये । इन अनुसंधाताओं ने अपने निष्कर्षों का त्रिवेन्द्रम् नाटकों का सम्पादन करके प्रकाशन नहीं किया और दूसरे विद्वानों के द्वारा इनके उत्तरवर्ती संस्करणों में उस संशोधन का उपयोग नहीं हो पाया । इधर स्वदेश में इन त्रिवेन्द्रम् नाटकों की प्राकृतभाषा को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रो० देवधर तथा प्रो० रामजी उपाध्याय ने प्रयत्न किये हैं। परन्तु इन संस्करणों में भी कई असंगतियां आज भी दृष्टिगोचर होती हैं। विशेषतः ध्वनि परिवर्तन के विषय में। यहां हमने मात्र भास कृत 'अविमारकम्' को लेकर उसकी प्राकृत के अव्ययपदों में ध्वनिपरिवर्तन विषयक जो असंगतियां मिलती हैं, बड २२, अंक १ २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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