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इनके अनुसार धातु का अर्थ फल तथा व्यापार है।
भर्तृहरि ने केवल भाव को ही धात्वर्थ नहीं माना, बल्कि क्रिया को भी धात्वर्थ माना है । उन्होंने सत्ता को सर्वव्यापक बताकर सिद्धान्ततः 'सत्ता' को ही धातु का अर्थ बतलाया। उन्होंने तर्क दिया कि भाव के छः विकारों-उत्पन्न होना, अस्तित्व, परिवर्तन होना, बढ़ना, घटना तथा नष्ट होना-आदि भेदों में अन्ततः सत्ता ही अवशिष्ट रह जाती है । शेष सभी नष्ट हो जाते हैं। अतः सत्ता ही वस्तुतः धातु का अर्थ है।
इस प्रकार संक्षिप्त रूप में आख्यात पद की दार्शनिक व्याख्या की जाय तो वह इस प्रकार होगी कि आख्यात-क्रियापद, धातु और तिङ् के संयोग से निष्पन्न रूप है। धातु-क्रियापदों की मूल प्रकृति है। फल व्यापार-धातु के अर्थ और तिङ्-क्रियापदों के प्रत्यय हैं। सन्दर्भ १. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च' । निरुक्त-१.१२.२. २. डॉ भोलानाथ तिवारी, भाषा विज्ञान, पृ० २९. ३. उ० सू० १.६९. ४. धातुर्दधातेरिति । निरुक्त १.२०. ५. गोपथ ब्राह्मण, प्रथम प्रपाठक १.२४. ६. तदाख्यातं येन भावं स धातुः । ऋ० प्रा० १.२.१९. ७. वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी, पृ ४१. ८. भाप्रधानमाख्यातम् । निरु० १.१.१. ९. क्रियावाचकमाख्यातम् । ऋ० प्रा० १२.२५. १०. निरु० १.२.८. ११. निरु० १.२.९ १२. निरु० १.१.९ पर दुर्गाचार्य की टीका। १३. षड् भावविकार भवन्तीति वार्ष्यायणिः-जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्द्धते,
__ अपक्षीयते, विनश्यतीति । निरु० १.२.८. १४. महाभाष्य १.३.१. १५. कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया । महाभाष्य १.३.१. १६. क्रियाप्रधानमाख्यातम् भवति । महाभाष्य ५.३.६६. १७. भाववचनो धातुः। महाभाष्य १.३.१ १८. महाभाष्य १.३.१ पर उद्योत टीका। १९. महाभाष्य १.३. १ एवं ‘एका हि क्रिया' महाभाष्य १.२.६४. २०. अतो भावविकारेषु सत्तका व्यवतिष्ठते-वाक्यपदीय क्रि० समु २७.
--डॉ० (श्रीमती) सरस्वती, सिंह रिसर्च साइन्टिष्ट 'ए' संस्कृत विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
वाराणसी
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तुलसी प्रज्ञा
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