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क्रिया में है, क्योंकि कर्म कर्तरि में अन्य कारक भी अपने व्यापार में स्वतंत्र होने के कारण कर्ता बन जाते हैं। उस समय इनकी प्रवृत्ति-विशेष का बोध क्रिया से होता है। 'स्थाली पचति' इस प्रयोग में स्थाली अपनी अधिकरणता का त्याग कर स्वव्यापार में स्वतंत्र होने के कारण कर्ता है । सम्प्रदान, अपादान कारक को छोड़कर अन्य कारक भी कर्ता बन जाते हैं । उन सभी की प्रवृत्ति-विशेष का बोध आख्यात या क्रिया से होता है । अत: 'कारकाणाम्' पद में बहुवचन का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रवृत्ति-विशेष का तात्पर्य कारकों का सामान्य-व्यापार है। प्रत्येक आख्यात या क्रियापद धात्वंश, धातु-सामान्य तथा धातु विशेष का बोधक होता है । 'पचति' पद में पच धातु 'धातु-सामान्य' के रूप में फल और व्यापार का बोधक है तथा धातु विशेष के रूप में विविलत्ति और फूत्कारादि का बोध कराती है। इस प्रकार क्रिया का स्वरूप निश्चित करने पर पतञ्जलि द्वारा कथित आख्यात का आधार निश्चय करना समीचीन होगा। उन्होंने आख्यातार्थ के विषय में लिखा है कि आख्यातार्थ में क्रिया की प्रधानता होती है।
इसी प्रसंग में पतञ्जलि ने धातु के स्वरूप एवं उसके दार्शनिक आधार की भी विवेचना की है । 'भूवादयोः धातवः' सूत्र की व्याख्या के प्रसंग में धातु-लक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है कि "क्रियावचनो धातुः" अर्थात् क्रियावाचक को धातु कहते है, सभी धातुओं में 'करना' अर्थ सामान्य रूप से रहता है जैसे किं करोति ? 'पचति' । किं करिष्यति ? पक्ष्यति । इन प्रयोगों में पच्' और 'कृ' धातु का समानाधिकरण्य है । अतः ‘क्रियावचनो धातुः' कहा जा सकता है परन्तु धातु का यह लक्षण अस्ति, भवति, विद्यते आदि में घटित नहीं होता। इसलिए धातु का अन्य लक्षण करते हुए उन्होंने लिखा है कि "भाववचनो धातुः" इस लक्षण के आधार पर अस्ति, भवति आदि की समस्या का भी समाधान हो जाता है, क्योंकि ये सभी भाववचन अर्थात् 'होना' अर्थ का बोध कराती हैं।
पतञ्जलि के मत में क्रिया तथा भाव ब्यापार-सामान्य के वाचक हैं। दोनों पद समानार्थक होते हुए भी पतञ्जलि ने दो लक्षण इसलिए बनाये हैं, क्योंकि धातुओं से प्रकट होने वाला व्यापार 'सपरिस्पन्द' तथा 'अपरिस्पन्द' दो प्रकार का होता है । 'करोति' से समानधिकरण्य वाली धातुयें शारीरिक चेष्टा से युक्त 'सपरिपन्द' व्यापार की बोधक होती हैं। 'भवति' आदि शारीरिक चेष्टा रहित धातुयें 'अपरिस्पन्द' व्यापार की बोधक हैं । प्रथम लक्षण क्रियावचनो धातुः' सपरिस्पन्द व्यापार सामान्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है। द्वितीय लक्षण 'भाववचनो धातुः' अपरिस्पन्द एवं सपरिस्पन्द व्यापार सामान्य, दोनों दृष्टियों से उपयुक्त है । पूर्व प्रसंग में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि धातु फल और व्यापार की बोधक है । पतञ्जलि के मत में क्रिया या आख्यात-अनुमानगम्य, अप्रत्यक्ष तथा अखण्ड है।
वाक्यपदीयकार भर्तृहरि ने क्रिया के लक्षण 'कारकाणां प्रवृत्ति' से सभी कारकों के व्यापार को धातु का अर्थ नहीं माना। उन्होंने केवल कर्ता एवं कर्म को ही धातु का अर्थ माना। इसमें कर्ता का व्यापार क्रिया तथा कर्म का व्यापार फल होता है । अतः
खण्ड २२, अंक १
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