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________________ हमको उलटी गणना करने पर कुछ रहस्य मिल सकता है। धन, अशुद्धि (+Error) का जो मैंने सुझाव दिया है वह प्रतिवर्ष, अधिकाधिक होती जाती है। जिसकी गणना करने में मानव सक्षम नहीं है। वह परमपिता परमात्मा ने वैदिक ज्योतिष में १५ वें अन्तिम मनु में पूरी कर दी है। यह अशुद्धि ९९४ चतुर्युगी की संख्या है। तो १५ वें अन्तिम मनु की संख्या ६ चतुर्युग रह जाती है इस प्रकार कल्प की संख्या स्थिर बनी रहती है तो सिद्धान्त प्रयोग दोनों से सामंजस्य बैठ जाता है तथा, अशुद्धि दूर हो जाती है । इस पकार कल्प की संख्या भी स्थिर रहती है तथा गणना की धन अशुद्धि भी दूर हो जाती है । ७ संधियों की गणना निराधार है क्योंकि, सूत्र स्वयं ६ मनु सन्धि सहित (ससंध्यः) कहता है। फिर संधिकाल की अलग से गणना क्यों करें ? संदर्भ: १. परमायुः शतं तस्य तयाहोरात्रसंख्यया । ___ आयुषोऽर्द्धमितं तस्य शेषकल्पोऽयमादिमः ॥१.२१॥ २. देखें-परमेश्वर सोलंकी-शकसाका, सं० २०४८ पृ० २-३ ३. अल्पावशिष्टे तु कृते मयनामा मयासुरः । रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम् ॥१.२॥ ४. षण्मनूनां तु संपीड्य कालं तत्सन्धिभिः सह । कल्पादि सन्धिना साधं वैवस्वतमनोस्तथा ।। युगानां त्रिधनं यातं तथा कृतयुगं त्विदम् । प्रोज्झ्य सृष्टेस्ततः कालं पूर्वोक्तं दिव्यसंख्यया । सूर्याब्द संख्यया ज्ञेया कृतस्यान्ते गता अमी। खचतुष्कयमाग्निशर रन्ध्र निशाकराः ॥१.४५,४६,४७।। ५. युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रि द्वि एकसंगुणः । क्रमात् कृतयुगादीनां षष्ठांश: सन्ध्ययोः स्वकः ॥१.१७।। ससन्धयस्ते मनवः कल्पे शेयाश्चतुर्दश । कृत प्रमाणः कल्पादो सन्धिः पंचदशः स्मृतः ॥१.१९।। ६. ग्रहक्षं देव दैत्यादि सृजतोऽस्य चराचरम् । कृताद्रिवेदा दिव्याब्दाः शतघ्ना वेधसोगताः ॥१.२४॥ ७. शतं ते अयुतं हायनान्द्व युगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः । इन्द्राग्नी विश्वे देवास्तेऽनु मन्यन्तामहणीयमानाः ।।८.२.२१॥ खण्ड २२, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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