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वैशेषिक शास्त्र में कणाद मुनि कहते हैं कि वेद में जो वाणी है वह बुद्धिपूर्वक कही गई है (बुद्धि पूर्वा वाक् प्रकृतिर्वेदे) और स्वयं वेद कहता है यह कल्याणकारी वाणी मनुष्यों के लिए, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, स्त्री, आर्य-अनार्य सबके लिए कही गई है (यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः । ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्रायचार्याय, च स्वाय चारणाय च)। मुनि पतंजलि इस सम्बन्ध में एक बात कहते हैं कि शब्द, अर्थ तथा प्रत्यय के परस्पर अध्यास से अभिन्न ज्ञान होता है और उसके प्रविभाग में संयम करने पर सारे प्राणियों के उच्चारित शब्दों का अर्थज्ञान होता है (शब्दार्थ प्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्तत्प्रविभाग संयमात्सर्वभूतरुतज्ञानम्)-यह कथन समवायांग के चौतीसवें समवाय के सूत्र क्रमांक २२-२३ का पूर्वार्द्ध मालूम होता है। वहां लिखा है कि भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते हैं और वह भाष्यमाण अर्द्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुस्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप आदि की अपनी-अपनी हित, शिव और सुखद भाषा में परिणत हो जाती है (भगवं च गं अद्धमागहीए भासाए धम्माइक्खइ। सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्ज माणी तेसिं सव्वेसि आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरीसिवाणं अप्पणो हिय सिव-सुहदाभाए त्ताए परिणमइ)। अर्द्धमागधी भाषा
'समवायांग' में उल्लिखित उक्त अर्द्धमागधी के संबंध में औपपातिक सूत्र भी कहता है-'तएणं समण भगवं महावीरे कूणि अस्स रण्णो भिभिसार पुत्रस्स अद्धमागहाए भासाए भासाइ-।
"भगवती' में इसे देव भाषा कहा गया है --- 'देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति ।' 'पन्नवणा' इसे आर्यों की भाषा कहता है -'भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासंति ।' जबकि निशीथ चूणि में इसे अठारह भाषाओं का मिश्रण कहा गया है.---'मगदद्धविसयभासाणि वद्धं अद्धमागहं अट्ठारसदेसी भासाणियतं वा अद्धमागहं।' 'षट् प्राभृत टीका' में इस पद की व्याख्या है --- 'सर्वार्द्ध मागधीया भाषा भवति । कोऽर्थः ? अर्द्ध भगवद् भाषाया मगधदेशभाषात्मकं, अर्द्ध च सर्वभाषात्मकम् ।'
वस्तुतः आर्य और आर्यतुल्य दो प्रकार की प्राकृत थीं-"आर्षोत्थमार्षतुल्यं च द्विविधं प्राकृतं विदुः।' उसी को ऋषिभासित कहा गया और कालान्तर में संस्कृतप्राकृत । स्थानांग और अनुयोगद्वार की निम्न गाथाओं से यह स्पष्ट है
सक्कता पागता चेव दोण्णि य भणिति आहिया । सरमंडलंमि गिज्जते पसत्था इति भासिता ।।
सक्कया पायया चेव भणिइओ होंति दोण्णि वा । सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिता ॥
खण्ड २२ अंक १
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