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इस प्रकार 'कच्चायन व्याकरण' में उद्धत स्थविर-परंपरा के अनुसार मागधी ही मूल भाषा है। यह जीव के स्वाभाविक गुणों से निष्पन्न है और आर्य वाणी अथवा सिद्ध वाणी है
सा मागधी मूलभासा नरा यायादिकप्पिका । ब्रह्मातो चस्सुता लाया सम्बुद्धा चापि भासरे ॥
जीवस्स साभावियगुणे हिं ते पागत भासाए।
आरिसवयणे सिद्धदेवाणं अद्धमागही वाणी। सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम् ।
सर्वायं सर्वतो वाचं सर्वशी प्रणिदध्महे ।। सारांश
__ तत्त्वत: प्राकृत सहस्रों वर्षों से धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक दृष्टि से भारतीय जनजीवन की संवाहक रही है । शास्त्रीय दृष्टि से प्राकृत का उद्भव, विकास और विलोप संस्कृत के समाज से दूर हो जाने से जुड़ गया है। जिस समय संस्कृत मर्यादाओं में जकड़ गई और समाज उससे दूर हो गया; उस समय भगवान् महावीर और बुद्ध ने जनभाषा को अंगीकार किया और अनायास ही वे समाज से जुड़ गए।
विनय पिटक (चुल्लवग्ग) में एक प्रसंग है जिसमें बुद्धवचन को संस्कृत में निबद्ध करने की भगवान् बुद्ध से अनुज्ञा चाही गई है। उस प्रसंग में भगवान् बुद्ध ने उसे संस्कृत (छन्दस भाषा) में निबद्ध करने से गम्भीरता पूर्वक मना किया है ।
प्राकृत भाषा का इस दृष्टि से अध्ययन नहीं हुआ.। इस भाषा में न केवल उच्चस्तरीय साहित्य सुरक्षित है; अपितु मगध से पश्चिमोत्तर के दरद प्रदेश और हिमालय से श्रीलंका तक की तत्कालीन लोकभाषा भी संरक्षित है। भारतीय जन जीवन की विभिन्न धारणाएं, आचार-विचार और अनेकों पुरातन बातों की जानकारी के लिये यह अनमोल खजाना है । . भारतीय चिन्तन का जो अनन्त ज्ञान संस्कृत-वाङ्मय में निहित माना जाता है; वह बिना प्राकृत-साहित्य के ज्ञान के एक पक्षीय है। प्राकृत में बेलाग, निश्छल और सरल, सुबोध भाषा में भारतीयता भरी पड़ी है। उसे प्रकट करना नितांत वांछनीय
संदर्भ : १. निरुक्त (१३.९) में लिखा है -अथापि ब्राह्मणं भवति-सा वै वाक् सृप्टा चतुर्धा
व्यभवत् । एष्वेव लोकेषु त्रीणि, पंशुषु तुरीयम् । या पृथिव्यां साऽग्नी सा रथन्तरे । यान्तरिक्षे सा वायो सा बामदेव्ये । या दिवि सादित्ये सा बृहति सा स्तनयित्नौ । अथ पशुषु । ततो या वागत्यरिच्यत तां ब्राह्मणेष्ववथुः । तस्मात् ब्राह्मणा उभयीं वाचं वदन्ति, या च देवानां या च मनुष्याणाम् इति। इससे
तुलसी प्रज्ञा
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