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________________ मिलता जुलता पाठ मैत्रायणी संहिता (१.११.५) और काठक संहिता (१४.५) में भी उपलब्ध है। तात्पर्य यह है कि वाणी चार प्रकार की है किन्तु विद्वान् दो प्रकार की वाणी बोलते हैं । ये ही बाद में प्राकृत और संस्कृत कही गई हैं । २. (i) पाणिनीय शिक्षा के अन्त में लिखा मिलता है --- येनाक्षर समाम्नायधिगम्य महेश्वरात् ।। कृत्स्नं व्याकरणं प्रोक्तं तस्मै पाणिनये नमः ॥ (ii) अष्टाध्यायी में काश्यप (१.२.२५) गार्ग्य (८.३.२०) गालव (७.१.७४) चाक्रवर्मण (६.१.१३०) भारद्वाज (७.२.६३) सेनक (५.४.११२) के भी नाम उल्लिखित हैं। ३. श्री तत्त्वविधि नामक एक ग्रंथ में नो व्याकरणों के नाम हैं ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् । सारस्वतं चापिशलं शाकल्यं पाणिनीयकम् ।। ४. कृष्ण यजुर्वेद काण्ड-६, प्रपाठक-४ अनुवाक-७ । ऐसा ही पाठ अन्यत्र मंत्रा० संहिता ४.५.८, काठक संहिता २७.२, शतपथ ४.१.३.११ में भी उपलब्ध है। ५. भाषाविदों ने इस पर तरह-तरह के आक्षेप किए हैं जो उनके द्वारा इसे संस्कृतव्याकरण की दृष्टि से देखने का परिणाम है। वस्तुतः यह जीवन्त रही प्राकृत पर लिखा गया व्याकरण है। अजयत् ज” हूणान् (१.२ ८१) सूत्र के आधार पर संस्कृत व्याकरण इतिहास लेखक युधिष्ठिर मीमांसक ने इस म्याकरण को कश्मीर राजा अभिमन्यु के समय लिखा गया सिद्ध किया है (राजतरंगिणी १.१७४-७६) उसने चन्द्र को चन्द्रगोभी अथवा चन्द्राचार्य के नाम से उल्लिखित किया है। ६. काशकृत्स्न धातुपाठ में अनेकों धातुओं के दो दो रूप हैं। जैसे ईड ईलस्तुती जबकि पाणिनि ने केवल इड़ रूप पढ़ा है। इसी प्रकार वहां ऐसी धातुएं भी हैं जो उभयपदी हैं । परस्मैपद और आत्मनेपद दोनों प्रक्रियाओं में उनसे रूप बनते हैं । जैसे वस निवासे, वद व्यक्तायां वाचि आदि । पाणिनि इन्हें केवल परस्मैपदी मानता है। प्राकृत भाषा के कुछ अव्युत्पन्न शब्दों का उल्लेख तुलसी प्रज्ञा (१८१२) के पुस्तक समीक्षा स्तंभ में 'राजस्थानी शब्द सम्पदा'-- की समीक्षा में किया गया है । देखें पृष्ठ १५८,१५९ । 9. शाकटायन ने शब्द के तीन प्रकार बताए हैं-तदेवं निरुक्तकार शाकटायन दर्शनेन त्रयी शब्दानां प्रवृत्तिः। जातिशब्दा: गुण शब्दा: क्रियाशब्दा इतिजिनेन्द्र बुद्धि । इसी प्रकार का-तन्त्र वृत्ति की दुर्ग टीका में पाद विषयक आपिशल का मत उल्लिखित हैआपिशलीयं मतं तु पादस्त्वर्थ समाप्तिर्वा ज्ञेयो वृत्तस्य वा पुनः । मात्रिकस्य चतुर्भागः पाद इत्यभिधीयते ।। खण्ड २२, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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