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पारंपरीय प्राकृत
प्राकृत भाषा का पहला संदर्भ नाट्य शास्त्र में उपलब्ध होता है कि संस्कार गुण वर्जित और विविध रूपों वाली भाषा प्राकृत होती है--"संस्कार गुण वजिता तथा नानावस्थान्तरात्मकम् ।" वाक्पतिराज इसे जनभाषा मानता है। उसके आशय को स्पष्ट करते हुए टीकाकार कहता है --- 'प्रकृतिरेव प्राकृतं शब्दब्रह्म। तस्य विकारा विवर्ता वा संस्कृतादयः -- इति मन्यते स्मः कविः"-अर्थात् गड्डवहो का कवि मानता है प्रकृति ही प्राकृत है और संस्कृतादि भाषाएं उसके विकार हैं। इस संबंध में नमि साधु की व्युत्पत्ति प्रसिद्ध ही है कि संस्करण से संस्कृत होती है वर्ना प्राकृत ही समस्त जन्तुओं की सहज भाषा है।"
पाश्चात्य विद्वान् अल्फ्रेड सी. वूलनर और रिचर्ड पिशेल ने भी प्राकृत को. मूल भाषा मानने का सुझाव दिया है। भारतीय विद्वानों में प्रबोध बेचरदास पंडित, जगदीश चन्द्र जैन, हरदेव बाहरी और नेमिचन्द शास्त्री प्रभृति लोगों के विचार भी प्राकृत को मूल भाषा मानने के हैं। प्रबोध पंडित संस्कृत के बाह्य रूप में प्राकृत को प्रवाहित देखते हैं । जगदीशचन्द्र जैन का कहना है कि 'वैदिक आर्यों की सामान्य बोलचाल, जो ऋग्वेद की संहिता की साहित्यिक भाषा से जुदा है, प्राकृत का मूल रूप है। हरदेव बाहरी ने प्राकृतों से संस्कृत का विकास माना है। उनका कहना है कि 'प्राकृतों से वेद की साहित्यिक भाषा का विकास हुआ, प्राकृतों से संस्कृत का विकास हुआ और प्राकृतों से इनके अपने साहित्यिक रूप भी विकसित हुए।' नेमिचन्द्र शास्त्री प्राचीन आर्य भाषा 'छान्दस' से प्राकृत का विकास मानते हैं। वे संस्कृत और प्राकृत को सहोदरा कहते हैं। उनका कथन युक्ति संगत लगता है।
___ छान्दस भाषा में लिखे प्राचीनतम साहित्य-ऋग्वेद आदि में भाषा के दोनों रूप दृष्टिगत होते हैं । वहां नियमों की प्रतिबद्धता कठोर नहीं है और एक ही पद के दो या अधिक रूप भी प्रयुक्त हैं। तावत्-ताव; पश्चात्प श्चा ; यशस्=जस; स्वर्ग=सुवर्ग; स्वःसुवः; देवेहि-देवेभिः; तेभिः-तैः; शृंथिरा= शिथिराः; दुर्लभ दूलह; दुर्णाश=दूषाण; दण्ड-डण्ड; दोला-डोला; पुरोडाश-पुरोडास; प्रतिसंधाय-प्रतिसंहाय; क्लिष्ट किलिट्ठ; तव्वी= तणुवी-- इत्यादि । विसर्गों को ओकार जैसे देवो, जिणो, संवत्सरो, सो इत्यादि द्विवचन पदों को बहुवचन जैसे इन्द्रावरुणौ-इन्द्रावारूणा। ऋकार को उकार जैसे - वृन्द-वुन्द; ऋतुउउ; कृत=कुठ। इसी प्रकार यदि एक ही नमूना लें तो ऋग्वेद के प्रसिद्ध मंत्र-'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया'-को व्याकरण की दृष्टि से 'द्वौ सुपणौं सयुजी सखायौ'-ऐसा कुछ होना चाहिए। वहां 'तितउ'; जरी तुर्फरी; खीला; नाली; तक्षा; कीनाशा; आदि अव्युत्पन्न शब्द हैं और एक पद के अनेक रूप देखें तो ऊधन्, ऊधनि, ऊधभिः, ऊनः आदि भी मिलते
तुलसी प्रज्ञा
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