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________________ ऐतिहासिकता विवाद का विषय होते हुए भी, इनसे एक बात स्पष्ट है कि बुद्ध के उपदेशों को उनके अनुयाइयों ने दो तीन सदियों में संकलित किये। इस संकलन में मूल के अतिरिक्त भाव और भाषा आ जाने की संभावना तो है, किन्तु उसके साथ यह भी तो मानना पड़ता है कि उपदेश की स्मृति विद्यमान थी, और मूल से ठीक-ठीक निकट ऐसा विश्वसनीय साहित्य संगृहीत हुआ है। इससे यह मानना पड़ेगा कि हमारे पास प्राचीनतम प्राकृत साहित्य के भाषा स्वरूप के अभ्यास के लिए ई० पू० की पांचवीं सदी से लेकर महत्व की सामग्री विद्यमान है। अब, जब हम इस साहित्य को अन्वेषण की दृष्टि से देखते हैं तब उसकी भाषा के बारे में अनेक तरह की शंकायें पैदा होती हैं। परम्परा के अनुसार, बुद्ध के उपदेश भिन्न-भिन्न विहारों में, मठों में, भिक्षुओं की स्मृति में संचित थे। ये भिक्षुगणे भी भिन्न-भिन्न प्रान्त के निवासी थे। परम्परा के अनुसार दूसरी वाचना के समय दूरदूर के प्रदेश के भिक्षु उपस्थित थे। अवन्ति, कोशाम्बी, कन्नौज, सांकाश्य, मथुरा और वहां से आने वाले भिक्षुओं की निजी भाषा भी भिन्न-भिन्न होगी। उत्तर और पश्चिम की बोलियां पूर्व से ठीक-ठीक भिन्न थी। विनय का जो संकलन किया गया, उसमें इन सब भिन्न-भाषी भिक्षुओं का अपना हिस्सा भी होगा, और उसके फलस्वरूप भाषा परिवर्तन भी हुआ होगा। मूल के उपदेश थे कोशल के राजकुमार और मगध के भिक्षु की भाषा में, शिष्ट मागधी में। जब कोई नागरिक दूसरे प्रान्त की बोली बोलता है, तब वह उस प्रान्त की शिष्ट बोली ही बोलेगा, वहां की ग्रामीण बोली से वह परिचित न होगा। दूसरी वाचना के संहनन में अन्यान्य भिक्षुगण जो कि पश्चिम से आये थे, उनका प्रभाव मूल उपदेश की इस शिष्ट मागधी पर पड़ा। उसके बाद यह साहित्य लिपिबद्ध होता है। अशोक के समय में ही यह साहित्य कुछ अंश में लिपिबद्ध हो चुका था यह बात हमको भाव के लेख से मिलती है। किन्तु, अधिकांश बौद्ध साहित्य लिखा गया सिंहलद्वीप में। बौद्ध साहित्य का यह धर्मदूत, उज्जैन में जिसका बचपन बीता, वह राजकुमार महेन्द्र, सम्राट अशोक का पुत्र था। बौद्ध साहित्य के विकास में ये छोटी-छोटी हकीकतें भाषादृष्टि से खूब सूचक हैं। ये हकीकतें सामने रखकर अब निर्णय करना होगा कि बौद्ध धार्मिक साहित्य की पालि भाषा किसी एक भौगोलिक प्रदेश की प्रचलित भाषा हो सकती है ? विद्वानों ने पुन:-पुनः पालि को kunst sprache संस्कृति की 'भाषा' कदाचित् 'मिश्र-भाषा' भी कहा है। संस्कृति की भाषा के मूल में भी हमेशा किसी न किसी प्रदेश की बोली होती है, इसलिए पालि के तल में किस बोली का प्रभाव है इसका विवाद किया जाता है । वस्तुतः प्राचीनतम बौद्ध साहित्य भी, निर्वाण के बाद करीब चार सौ साल के बाद ही लिपिबद्ध होता है, और वह भी अनेक तरह के भिक्षुओं की बोलियों के प्रभाव के बाद । इससे यह मानना स्वाभाविक हो जाता है कि जो पालि साहित्य हमारे समक्ष है वह पूर्व और पश्चिम की भाषाओं के मिश्रण के बाद, धार्मिक शैली में लिखा गया है, स्थल वा काल की स्पष्ट भेद-रेखायें उसमें से मिलनी मुश्किल हैं। प्राकृत साहित्य का दूसारा अंग है जैन आगम साहित्य । महावीर भी पूर्व में पैदा तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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