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________________ लकार का रूप मानते ७.३.८४ से गुण कृणो+अन्त तथा अवादेश पा. ६.१.७८ कर इसका निर्वचन होता है । सायण कृणवः ऋ १.५४.५ (√ कृवि लेटि सिपि अड़ागमः । ), कृणवते ऋ ४.२.८ (√ कृवि लेटि धिन्विकृ| लेटोsडाटी इत्यड़ागमः ) कृणवसे ॠ ६. १६.१७, कृणवावहै ऋ १०.९५.१ और कृणवत् अ. वे. ३.१.१ (√ कृवि अस्मात् लिङथें लेटि अड़ागमः धिन्वि'' इति 'उ' प्रत्ययः । तत् सन्नियोगेन अकारोन्तादेशः । तस्य स्थानिवद् भावात् लघूपध्यगुणाभावः) प्रभृति पदों को / कृवि धातु के लेट् हैं । जबकि आलोच्य पद इस धातु के लट् लकार का रूप होता है । किन्तु अ.वे. भाष्यकार इस धातु के 'कृणवत्' पद को लिङर्थक लेट बतलाते हैं । यहां लक्षणीय है कि नागेश ने (पा. ८.१.३० ) महाभाष्य के उद्योत टीका में इसे केवल लेट् का रूप कहा है । महाभाष्य में इसको लेकर पाठान्तर पाया जाता है यथा निर्णयसागर प्रेस के संस्करण में 'कृणात्' पाठ है जबकि रोहतक (१९६१) संस्करण में 'कृणवन्' पाठ मिलता है। तदनुसार प्रदीप टोका में भी दोनों संस्करणों में क्रमशः कृणात् और 'कृणवत्' पाठ मिलता है । मैकडोनल (१९१०,४१७) ५ प्रमृति आधुनिक विद्वान् उपर्युक्त सभी पदों को स्वादिगण के वर्तमानकालिक लेट् लकार के रूप में गिनते हैं । इनमें कृणवन्ते को छोड़ कर अन्यत्र लकार ग्रहण में मर्तक्य तो है पर धातुग्रहण में उभय प्राच्य-पाश्चात्यों ने पृथक - मतों का पोषण किया है । भारतीय वैयाकरण इन सभी पदों को / कृवि हिंसाकरणयोश्च से साधन करते हैं raft आधुनिक वेदविदों ने स्वादि / कृ करना से इनका स्वरूप दिखाने का सार्थक प्रयास किया है | अर्थंगत कारण से दोनों का विचार प्रायः समान है । रूप-रचनार्थं भारतीयों के कृवि और पाश्चात्यों के √ कृ करना में से / कृ का ग्रहण कर उपर्युक्त सभी पदों का गठन सरलरूप में हो सकता है । उदाहरणार्थ 'कृणवः' का निर्वचन देखा जा सकता है यथा अतः √ कृ + लेट्, कृ + सिप्स, कृ + श्नुतु + सि स् = इतश्चः पा. ३.४.९७ कृ+नु+अट्+अ+ स् ( पा. ३. ४९४ ) इसी अवस्था में पूर्ववत् णत्व गुण, अवादेश तथा सकार को रुत्व विसर्ग कर कृणवः होता है दोनों में जो अन्तर है वह कृणवः, कृणवन्त के साधन से स्पष्ट हो जाता है । √ कृ कृणवः आदि का गठन सीधे रूप से हो जाने के कारण / कृ धातु का करना अधिक तर्क संगत होगा । कृणवन्ते पद को सायण ने लट् लकार का रूप माना है । परन्तु कुणवते, कृणवत् आदि प्रथमान्त पद लेटलकार में बनता है । इसलिए कुणवन्ते भी लेट का एक रूप हो सकता है । ग्रहण यह लक्षणीय है कि संहिता पाठ में 'कृणवन्त' और पदपाठ में गुणवन्ते ( सन्धि नियम हेतु) मिलता है । पाश्चात्य विद्वान् संहिता पाठ ग्रहण कर इसका निर्वचन करते हैं जबकि सायणादि भाष्यकार पदपाठ के अनुसार इसका समाधान किए हैं। यही ग्रहणीय है । ऊपर में दर्शाए गए सभी पदों को स्वादि के लङ्ङ्घर्ग के लेट के रूप में ग्रहण किया जा सकता है क्योंकि स्वादि तथा तनादि में अन्तर साधारणतया लङादि तुलसी प्रशा १६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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