________________
मार्ग की प्राप्ति के लिये तथा निर्वाण के साक्षात्कार के लिये एकमात्र मार्ग है। ये जो चार स्मृतिप्रस्थान हैं, वे निम्नलिखित हैं१. कायानुपश्यना
कायानुपश्यना का तात्पर्य है, अपने अन्दर एवं बाहर काया के प्रति पूर्णत: सचेष्ट रहना । साधक या योगावचर अपनी साधना के क्रम में स्मृतिमान् होकर काया में केश, रोम, नख, दन्त, त्वचादि बत्तीस कुत्सित पदार्थों के समूहों का बार-बार अवलोकन करता है, इस क्रम में वह देखता है कि यह काया बत्तीस कुत्सित पदाथों का समुच्चय मात्र है। साधक के द्वारा इन बत्तीस कोट्ठासों का बार-बार स्मरण करने को ही कायानुपश्यना कहा जाता है। इन बत्तीस अशुभ पदार्थों की भावना करना ही काया के प्रति सजगता कहा जाता है। पाद तल से केश-मस्तक तक त्वचा से घिरे इस काया को विभिन्न प्रकार के मलों से पूर्ण देखने को ही कायानुपश्यना या काया के प्रति जागरूकता कहा जाता है। साधक पुनः इस शरीर को रचना के अनुसार देखता है और जानता है कि यह शरीर चार महाभूत एवं चौबीस उपादाय रूपों का समुच्चय मात्र है। यह उत्पन्न एवं विनाश से सम्पन्न है। काया के इन स्वरूपों के प्रति स्मृतिमान् होकर पूर्ण सचेष्ट रहना ही कायानुपश्यना है। साथ ही चालीस कर्मस्थानों में से दस अशुभ कर्मस्थानों को देखना और उससे काया के स्वभाव का अवलोकन करना कि यह काया भी इसी अनित्य स्वभाव से युक्त है। पुनः इस शरीर अर्थात् काया के प्रत्येक क्रिया-कलापों को साधक देखता है और उसके प्रति स्मृति बनाये हुए जागरूक रहता है। साधक चलते, उठते, बैठते, सोते, जागते सदा स्मृतिमान् रहता है कि मैं चल रहा हूं, उठ रहा हूं, बैठ रहा हूं, सो रहा हूं, जाग रहा हूं, चंक्रमण कर रहा हूं। तो साधक के द्वारा शरीर के प्रत्येक क्रिया-कलापों के प्रति जागरूक रहना ही कायानुपश्यना कहलाता है । इस प्रकार अंग को फैलाना, सिकोड़ना, संघाटी, पात्र-चीवर धारण करना, खाना-पीना आदि कार्य करते समय प्रत्येक क्रिया के प्रति स्मरण बनाये रखना ही कायानुपश्यना कहा जाता है। इसी प्रकार अरण्य प्रदेश में वृक्षमूल के नीचे या एकान्त में आसन मारकर, शरीर को सीधा कर, स्मृति को सामने कर जब साधक लम्बी श्वास लेता है तथा छोड़ता है, छोटी श्वास लेता है तथा छोड़ता है तो वह प्रत्येक अवस्था में अनुभव करता है कि मैं श्वास ले रहा हूं, छोड़ रहा हूं। तो साधक के द्वारा अपने प्रत्येक क्रिया-कलापों के प्रति जागरूक रहने को ही कायानुपश्यना कहा जाता है । २. वेदनानुपश्यना
बौद्ध दर्शन के स्मृतिप्रस्थानों में वेदनानुपश्यना का विवेचन किया गया है। यह वेदना तीन सन्दर्भो में उपलब्ध होती है-नामरूप अर्थात् पञ्चस्कन्धों में, प्रतीत्यसमुत्पाद में तथा चेतसिक के रूप में। वेदना को परिभाषित करते हुए कहा गया है
वेदयितलक्खणा वेदना, अनुभवलक्खणा वेदना । अर्थात् यह वेदना अनुभव लक्षण वाली होती है । अनुकूल एवं प्रतिकूल, अनुलोम
तुमसी प्रज्ञा
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org