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________________ प्रतिलोम स्थितियों में अथवा अवस्थाओं में जो सत्त्व को अनुभूत करता है, उसे वेदना की संज्ञा दी गई है । बौद्ध दर्शन में प्रायः त्रिविधा वेदना का निरूपण किया गया है -सुखा वेदना, दुक्खा वेदना तथा उपेक्खा वेदना (असुखा, अदुक्खा वेदना)। सुखा वेदना--जो शुम को क्षीण अथवा विनष्ट कर देता है, उसे सुख कहते हैं अथवा काय और चित्त की अबाधा को जो खन देता है अर्थात् खा जाता है, उसे सुख कहते हैं। जब सत्त्व को अनुकूल अनुभव होता है अथवा सत्त्व जब चित्त के द्वारा अनुकूल अनुभूति करता है तो वह वेदना सुखा वेदना कहलाती है । दुक्खा वेदना-चित्त के प्रतिकूल जो संवेदन होता है, उसे दुक्खा वेदना कहते हैं । कांटों का चूभ जाना, आंख में धूल पड़ जाना आदि कुछ सामान्य दुःख हैं जिनका अपनयन भैषज्योपचार से हो जाता है । लेकिन जिस प्रकार पृथ्वी में जल, आकाश में हवा और शमी काण्ठ में अग्नि व्याप्त है उसी प्रकार चित्त और शरीर में दुःख व्याप्त है। यह दुःख असामान्य है जिसके निराकरण के लिये ही तथागत ने धर्म देशना की है। साधक या योगावचर के द्वारा सतर्क एवं जागरूक होकर "मैं दु:ख का अनुभव कर रहा हूं, दुःख मुझे सम्पीड़ित कर रहा है, नाना प्रकार के दुःखों से मैं परिगत हो गया हूं" ऐसा जानना ही दुक्खा वेदना है। उपेक्खा वेदना-सुख और दुःख दोनों अनित्य हैं। अतः इनसे उपरत अर्थात् विमुक्त होने के लिए जब साधक साधना के मार्ग पर आगे बढ़ता है, सुखात्मक एवं दुःखात्मक परिस्थितियों एवं स्थितियों में विमुक्त होने का अनुभव करता है, तो उसे उपेक्खा वेदना कहा जाता है। उपेक्खा वेदना की स्थिति तब आती है जब चित्त वीतराग, वीतद्वेष तथा वीतमोह होता है और युक्तिपूर्वक वह सुखात्मक, दुःखात्मक अनुभूतियों की कर्मानुसार मीमांसा करता हुआ उससे सर्वथा पृथक रहता है। ३. चित्तानुपश्यना सम्पूर्ण भारतीय दर्शन में विशेषकर योगदर्शन और औपनषदिक दर्शन में चित्त के स्वरूप की मीमांसा की गई है। योग को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में कहा है कि चित्तवृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है । धम्मपद के 'चित्त वग्गो' में चित्त के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है ---- फन्दनं चपलं चित्तं दुक्खं दुन्निवारमं ।' संयुक्त निकाय में इसके स्वरूप को मक्कट (बन्दर) के समान दर्शाया गया है। स्वभावतः चित्त प्रभास्वर रहता है परन्तु आगन्तुक मलों से संकिलिष्ट रहता है। यह चित्त शब्द चुरादि के 'चिन्त' चिन्तने 'चित्त' सञ्आणे तथा स्वादि के 'चि' चये धातुओं से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-चिन्तन करने वाला, ज्ञान करने वाला आदि । चित्तानुपश्यना के क्षण में जब साधक देखता है कि मेरा चित्त राग से युक्त है अर्थात् सराग है तब साधक राग युक्त चित्त की वृत्तियों को अवहित होकर देखता है। पुनः वह अनुपश्यना करता है कि मेरा चित्त द्वेष युक्त है तो चित्त उस द्वेष युक्त चित्त का अवलोकन करता है। इसी प्रकार पुनः साधक देखता है कि मेरा चित्त मोह युक्त बण्ड २२, अंक १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524587
Book TitleTulsi Prajna 1996 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size8 MB
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